ग़ज़ल
चारदीवारी के अन्दर भी फ़र्क़ बहुत ही आया है
इक कमरे में मैं रहता हूँ,इक में मेरा साया है
आज अकेला बैठा हूँ मैं अपने वीराँ कमरे में
धुँधली-धुँधली यादों ने बस अपना साथ निभाया है
मिलने-जुलने का हंगामा,प्यार-मुहब्बत की बातें
माना तुम मसरूफ़ हो लेकिन अपना ये सरमाया है
वाक़िफ़ है बाज़ार के वो आदाब से कुछ इतना ज़्यादा
दूकाँ- दूकाँ खोटा सिक्का उसने ख़ूब भुनाया है
हम जैसों पे कौन सितम ढाएगा,कितना ढाएगा
किश्तों में जब हमने अपना ख़ुद ही लहू बहाया है
बनते-बनते बात बिगड़ने की जैसे इक रस्म है ये
रस्मों के पाबन्द रहे हैं,ख़ुद ये रोग लगाया है
हमने भी 'कुंदन'पहाड़ से दिन को काटा है पल-पल
उसने भी कुछ आँसू देकर अपना फ़र्ज़ निभाया है
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