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ग़ज़ल 

ये  आज  हो  गया है ज़रा रतजगा तो क्या 
और इक तवील नींद का है आसरा तो क्या

वो पल था  फ़ासलों पे  चढ़े क़ुर्बतों   के  रंग 
अब दूरियों ने याद को धुँधला दिया तो क्या 

अब  अपने  इस बिखराव पे  रोऊँ  के  हँसूँ  मैं 
अपनी हिफ़ाज़तों में वो यकजा हुआ तो  क्या 

मिलने को उसको  वैसे  हरेक शै  है  मयस्सर 
जो चाहिए था उसके सिवा सब मिला तो क्या  

वो  मुतमइन  कभी  न  था  बिखराव से   मेरे 
ये आज उसने कह ही दिया बरमला तो  क्या 

वो  तामियाद   साँस  के  ज़िन्दाँ   में  क़ैद  है 
चोटों के तसलसुल से ज़रा थक गया तो क्या 

'कुंदन'  कहीं  पे  मुन्तज़िर   होगी  बहार  भी 
ताउम्र  गरचे  बाग़  ये  उजड़ा  रहा  तो  क्या 

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