ग़ज़ल
आज लगता है के शायद हो कोई शोख़ ग़ज़ल
फिर से चल याद की पुरपेच- सी गलियों में टहल
मैं न कहता था के यूँ अपनी तवक़्क़ो न बढ़ा
तेरे दिल में है ख़ला, उसकी जबीं पर है बल
ख़्वाब भी उसकी रफ़ाक़त के सब हुए ऒझल
चल ,किसी तौर पे खोती हुई यादों से बहल
तू था कमफ़हम,उसे फ़हम का दावा था बहुत
और अब अक़्ल के बख्शे हुए ज़ख्मों पे मचल
राह तेरी भले कोई न तुझे तकता मिले
जाँकनी इतनी है 'कुंदन' के यहाँ से तो निकल
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