एक आम आदमी की डायरी- 1 आज से यह नया कॉलम शुरू कर रहा हूँ- एक आम आदमी की डायरी. पहले इस शीर्षक को ही साफ़ कर लें, उसके बाद शुरू होगी यह डायरी. दो शब्द जो बहुत स्पष्ट से दिखते हैं, स्पष्ट नहीं हो पा रहे- ‘आम’ और ‘डायरी’. और हाँ यह तीसरा शब्द ‘आदमी’ भी. ‘की’ की तो कोई बिसात ही नहीं. आम मतलब एकदम आम यानी वही जो ख़ास नहीं. आम मतलब जिसको हम पहचानते हुए भी नहीं पहचान सकते. जिसकी कोई बिसात ही नहीं. जैसे ख़ास मतलब जिसको पहचान की ज़रूरत ही नहीं, जिसे सब पहचानते हैं लेकिन जो नहीं भी पहचानता हो वह नहीं पहचानते हुए भी नहीं पहचानने का दुःसाहस नहीं कर सकता. लेकिन आम के बारे में अब भी अवधारणा स्पष्ट नहीं हुई. क्योंकि यह ख़ास का उल्टा है, विपरीतार्थक शब्द है बल्कि इतना उल्टा है कि ख़ास के गाल पर एक उल्टे तमाचे की तरह है तो अगर कोई आम इस पहचान की परवाह नहीं करता कि उसे भी ख़ास की तरह पहचान की ज़रुरत ही नहीं तो क्या वह आम ख़ास हो जाएगा. और अगर वह आम ख़ास हो जाएगा तो क्या तो बाबा आदम के ज़माने से चले आ रहे मानव समुदाय के इस विशिष्ट वर्गीकरण की धज्जियाँ न उड़ जाएँगी. देखिए, मैं ...
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