ग़ज़ल
हरेक शख्श को बस यही बेकली है के बेहतर सी कोई जगह पे वो जाए
ज़रा-सा वो खुद से तो बाहर निकल ले तो शायद ज़माने को ख़ुद में वो पाए
यही सोचता हूँ मैं अक्सर के बादल फ़क़त तर्जुमाँ है फ़ज़ा की तपिश का
रगों में जो मेरी अजब-सी है हिद्दत कोई उससे काग़ज़ को नम कर तो जाए
हर एक लम्हा यूँ बदगुमाँ है वो मुझसे के लम्हों के पाँवों में पत्थर बंधे हों
इधर ठहरे लम्हों को बस गुद्गुदाके ये सोचा है उसको हँसी आ तो जाए
बरतता है शेरों को क्या ख़ुशदिली से वो नज़्मों से है किस क़दर प्यार करता
लिपट जाए माँ से कोई तिफ़्ल जैसे के मासूम सोते हुए मुस्कराए
कभी तो लगा है मुझे भी ये 'कुंदन' के मैं जी रहा हूँ मगर ज़िंदगी ख़ुद
समझ ये न पायी है अबतक के मुझसे रखे फ़ासला के गले से लगाए
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