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ग़ज़ल 

ख़ुद से मिलते हैं कभी ख़ुद को भूल जाते हैं 
हमपे वाजिब भी नहीं नाज़ वो उठाते हैं

लाख हँसते हों मगर हैं तो ख़स्ताहाल ही हम 
सब पे ज़ाहिर हैं मगर इक ज़रा छुपाते हैं

अब अकेले में भी करते हैं क्या इसे छोड़ो 
सामने सबके हमेशा ही मुस्कराते हैं

झूठ भी कहते हुए वो न लरज़ता है ज़रा 
सच भी कहते हुए ये होठ थरथराते हैं

सामना करते हैं दिन-रात हक़ीक़त का हम 
और इक लम्से-तसव्वुर से बिखर जाते हैं

आँख के बदले है कानों पे भरोसा इतना 
जो भी सुनते हैं वही सबको ये सुनाते हैं

लगी है आग जो दिल में उसे भी क्या देखें 
शिकम की आग ही 'कुंदन' यहाँ बुझाते हैं
   

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