ग़ज़ल
रात आँखों में ही गुज़ारी है
और हर लम्हा दिन का भारी है
कोई नश्शा तो उसपे तारी है
मेरे अलफ़ाज़ थे नदामत के
उसने समझा के इन्कसारी है
ध्यान आया है आख़िरी पल में
जीत कर हमने जंग हारी है
ख़ुद से छुप के मिलें हैं जिस लम्हा
हमने लम्हे में उम्र उतारी है
पत्थरों पे फिसलता हो पानी
वैसे ही दिल पे शेर तारी है
इक सलीक़े का शेर हो 'कुन्दन '
बस यही एक बेक़रारी है
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