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मीर तक़ी मीर के चन्द अशआर जो मुझे बेहद पसंद हैं:---

सहल इस क़दर नहीं है मुश्किलपसंदी अपनी
जो तुझको देखते हैं मुझको सराहते हैं
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तुम्हे भी चाहिए है कुछ तो पास चाहत का 
हम अपनी और से यूँ कब तलक निबाह करें

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तू परी,शीशे से नाज़ुक है ,न कर दावा-ए-मेह्र
दिल है पत्थर के उन्हों के जो वफ़ा करते हैं

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मज़हब से मेरे क्या तुझे,तेरा दयार और
मैं और,यार और,मेरा कारो-बार और
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जौरे-दिलबर से क्या हों आज़ुर्दा
'मीर' इस चार दिन के जीने पर
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दिल वो नगर नहीं ,कि फिर आबाद हो सके
पछताओगे ,सुनो हो ,ये बस्ती उजाड़ के
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मीर साहब ज़माना नाज़ुक है
दोनों हाथों से थामिए दस्तार
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मीर साहब भी उसके ही थे ,लेक
बंदा-ए-ज़र-ख़रीद के मानिंद
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बेकली ,बेख़ुदी कुछ आज नहीं
एक मुद्दत से वो मिज़ाज नहीं
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न मिल मीर ,अबके अमीरों से तू
हुए हैं फ़क़ीर ,उनकी दौलत से तू
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ग़ाफ़िल न अपनी दीदा दराई से,हमको जान
सब देखते हैं ,पर नहीं कहते हया से हम
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यही जाना कि कुछ न जाना ,हाय
सो भी इक उम्र में ,हुआ मालूम
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ज़ुल्म है,क़ह्र है,क़यामत है
ग़ुस्से में ,उसके ज़ेरे-लब की बात
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चोर,उचक्के,सिख,मरहट्टे,शाहो-गदा ज़रख्वाहाँ हैं
चैन में हैं जो कुछ नहीं रखते,फ़क़्र ही इक दौलत है अब
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रखे रहते हैं दिल पर हाथ ,अय मीर
यहीं शायद कि है सब ग़म हमारा
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मीर सदा बेहाल रहो हो ,मेह्रो-वफ़ा सब करते हैं
तुमने इश्क़ किया तो साहब,क्या यह अपना हाल किया
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वही है रोना,वही है कुढ़ना ,वही है सोजिश जवानी की सी
बुढ़ापा आया है इश्क़ ही में,प मेरे हमको न ढंग आया
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उम्र आवारगी में सब गुज़री
कुछ ठिकाना नहीं दिलो-जाँ का
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रहने के क़ाबिल तो हरगिज़ थी न यह इबरतसराय
इत्त्फ़ाक़न इस तरफ़ अपना भी आना हो गया
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ख़ाक में मिल के मीर हम समझे
बेअदाई थी,आस्माँ की अदा
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पशेमाँ हुआ दोस्ती करके मैं
बहुत मुझको अरमान था चाह का
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बात कहने में गालियाँ दे है
सुनते हो,मेरे बदज़बां की अदा
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पाते हैं अपने हाल में मजबूर सबको हम
कहने को इख़तियार है ,पर इख़तियार क्या
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पाँव के नीचे की मिट्टी भी न होगी हमसी
क्या कहें,उम्र को किस तौर बसर हमने किया
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तूने हमेशा जौरो-सितम बेसबब किए
अपना ही ज़र्फ़ था ,जो न पूछा सबब है क्या
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अब भी दिमाग़े-रफ़्ता हमारा है अर्श पर
गो आस्माँ ने ख़ाक में हमको मिला दिया
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ख़ुश रहा ,जब तलक रहा जीता
मीर,मालूम है क़लन्दर था
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मेरे रोने की हक़ीक़त जिसमें थी
एक मुद्दत तक वो काग़ज़ नम रहा
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सरसरी तुम जहान से गुज़रे
वरना हर जा,जहान-ए-दीगर था
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दैरो-हरम से गुज़रे ,अब दिल है घर हमारा
है ख़त्म इस आब्ले पर ,सैरो-सफ़र हमारा
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इब्तदा ही में मर गए सब यार
इश्क़ की कौन इन्तहा लाया
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क़द्र रखती न थी मता-ए-दिल
सारे आलम में मैं दिखा लाया
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दिल से रुख़सत हुई कोई ख़्वाहिश
गिरिया कुछ बेसबब नहीं आता
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हैं मुश्ते-ख़ाक लेकिन ,जो कुछ हैं मीर हम हैं
मक़दूर से ज़ियादा मक़दूर है हमारा
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नमूद कर के वहीं बह्रे-ग़म में बैठ गया
कहे तू ,मीर भी इक बुलबुला था पानी का
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यह तवह्हुम का कारख़ाना है
याँ वही है जो एतबार किया
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हक़ ढूँढने का आपको आता नहीं,वरना
आलम है सभी यार ,कहाँ यार न पाया
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दिल की वीरानी का क्या मज़कूर है
यह नगर सौ मर्तबा लूटा गया
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जिन बलाओं को मीर सुनते थे
उनको इस रोज़गार में देखा
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बेकसी मुद्दत तलक बरसा की,अपनी गोर पर
जो हमारी ख़ाक पर से हो के गुज़रा ,रो पड़ा
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मेरे सलीक़े से मेरी निभी मुहब्बत में
तमाम उम्र ,मैं नाकामियों से काम लिया
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आबाद जिसमें तुझको देखा था एक मुद्दत
उस दिल की मुम्लिकत को,अब हम ख़राब देखा
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शाम से,कुछ बुझा सा रहता है
दिल है गोया चराग़ मुफ़्लिस का
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ताब किसको,जो हाले-मीर सुने
हाल ही और कुछ है मज्लिस का
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जाने का नहीं शोर , सुख़न का मेरे हरगिज़
ता हश्र जहाँ में मेरा दीवान रहेगा
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नाहक़ हम मजबूरों पर यह तोहमत है मुख़तारी की
जो चाहो सो आप करो हो हमको अबस बदनाम किया
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दरहमी हाल की है ,सारे मेरे दीवाँ में
सैर कर तू भी ,यह मजमूआ परीशानी का
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मुझको शाइर न कहू मीर कि साहब मैंने
दर्दो-ग़म कितने किये जमा तो दीवान किया
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हम ख़ाक में मिले तो मिले लेकिन अय सिपह्र
उस शोख़ को भी राह पे लाना ज़रूर था
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हम तौरे-इश्क़ से तो वाकिफ़ नहीं हैं लेकिन
सीने में जैसे कोई दिल को मला करे है
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