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 पहरेदार

वो करके काम कुछ-कुछ
 मेरी निगरानी भी करता रहा है
 मेरी आज़ादियों का ये परिन्दा
 अपने ऊपर
नज़र से उसकी
 इतना बेख़बर भी तो नहीं

 मेरी आज़ादियों का ये परिन्दा
मगर ये  जानता है
उड़ भी नहीं सकता अचानक
 इतनी बुलन्दी पर के उसकी
नज़रों से हो जाए ओझल

अभी इक दौर
रूपोश समझौते का है जो
 यूँ ही चलता रहेगा
वो कुछ-कुछ काम करने का
बहाना करके
 मेरी आज़ादियों पर
 यूँ ही पहरे बिठाता ही रहेगा
और मैं भी
कुछ-कुछ काम करके
उसकी बेख़बर  निगरानी में रहने का बहाना
करता रहूँगा

मगर इक दौर
मुकम्मल वक़्त तो होता नहीं है
 कभी तो वो थकेगा
कभी तो आँख झपकेगी ही उसकी
 बस इक लम्हे की ख़ातिर

उसी इक लम्हे की
तो मुन्तज़िर है
रूपोश ज़ंजीरों में मुक़ैय्यद
निहाँ हर दिल की आज़ादी की हसरत


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