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ग़ज़ल

ज़िद में आएगा  ज़रा  और ज़ुल्म ढाएगा
हाकिमे-शह्र है  कैसे  शिकस्त   खाएगा

अभी तो रास्ते यूँ रास्तों से उलझे  हैं
राह-रौ कैसे बताए किधर वो जाएगा

वो रस्मो-राह से दुनिया के ख़ूब वाक़िफ़ है
ज़ख़्म खाएगा ज़रा और मुस्कराएगा

 इस आसमाँ को तशफ़्फ़ी न जाने कब होगी
हमारा सब्र कहाँ तक वो  आज़माएगा

जिसे वो कह के कहे कुछ न और कहना है
कहाँ से ढूंढ कर ऐसा वो शेर लाएगा

ये और बात के बेहतर ही लोग आएँगे
हमारे ऐब मगर कैसे तू गिनाएगा

वो तो चेहरे से थका लगता है 'कुन्दन 'लेकिन
है ज़रुरत तो ज़रा बोझ और उठाएगा

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