ग़ज़ल
चुप तो रहता हूँ मगर बोलता रहता है कौन
मैं हूँ कमरे में सरे-राह ये फिरता है कौन
अपना दस्तार बचाने में था मसरूफ़ ऐसा
मैंने देखा ही नहीं सर को कटाता है कौन
याद भी अब तो नहीं कब के मैं बाहर निकला
और सदियों से मेरे कमरे में बैठा है कौन
हाकिमे-शह्र ने लगता है के फ़रियाद सुनी
वैसे इस वह्म को सच में भी बदलता है कौन
वैसे दूकाँ में मुखौटों से अलग कितने ही जिन्स
लेकिन इस शह्र में अब उनपे लपकता है कौन
एक लम्हे को सही इतना लगा दिल के क़रीब
मैं समझ भी न सका वो मेरा लगता है कौन
इन तमाशों पे बहस ख़ूब सुना है 'कुन्दन'
कोई सोचे तो ज़रा वज्हे-तमाशा है कौन
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चुप तो रहता हूँ मगर बोलता रहता है कौन
मैं हूँ कमरे में सरे-राह ये फिरता है कौन
अपना दस्तार बचाने में था मसरूफ़ ऐसा
मैंने देखा ही नहीं सर को कटाता है कौन
याद भी अब तो नहीं कब के मैं बाहर निकला
और सदियों से मेरे कमरे में बैठा है कौन
हाकिमे-शह्र ने लगता है के फ़रियाद सुनी
वैसे इस वह्म को सच में भी बदलता है कौन
वैसे दूकाँ में मुखौटों से अलग कितने ही जिन्स
लेकिन इस शह्र में अब उनपे लपकता है कौन
एक लम्हे को सही इतना लगा दिल के क़रीब
मैं समझ भी न सका वो मेरा लगता है कौन
इन तमाशों पे बहस ख़ूब सुना है 'कुन्दन'
कोई सोचे तो ज़रा वज्हे-तमाशा है कौन
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