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मेरे दोस्त रफ़ी हैदर अंजुम की कहानी


शाह मोहम्मद विथ फ़ैमिली
-- रफ़ी हैदर अंजुम

     ज़यादा खुश तो बच्चे ही थे ... ... उस के दोनों बच्चे , चिंटू और मिंटू . और इन बच्चों की खुशियों में माँ -बाप भी मस्रूरो - शादमाँ 

थे. दरअस्ल आज शहर के एक मशहूरो -मारूफ घराने से शादी का दावत- नामा आया था. इस तरह के मोकों पर बच्चो का खुश होना 

तो फितरी रद्देअमल है लेकिन शाह मोहम्मद कुछ और ही सोच रहा था... ... ये बड़े लोग भी अजीब सनकी होते हैं. कभी कभी उन से 

ऐसी गैरमुतवक्को (अप्रतियाशित ) हरकतें सरज़द हो जाती हैं के छोटा आदमी हैरानो - परेशान हो जाता है. शहर के खानदानी रईस 

सय्यद वजाहत हुसैन की इकलोती साहबजादी की शादी की तकरीब में शिरकत के लिए शाह मोहम्मद जैसे एक बेहद मामूली और अदना 

आदमी का फैमिली के साथ मदउ (आमंत्रित ) किय जाना हैरान-कुन नहीं तो और क्या है ? एक चपरासी की औकात ही क्या होती है ?

पहले तो उस ने सोचा के शाह मोहम्मद कोई और होगा .... हुसैन साहब के मुकाबिल का कोई दूसरा बड़ा आदमी जो हक़ीक़तन शाहवार 

होगा. लेकिन जब उस ने रुकआ (निमंत्रण-पत्र ) गौर से देखा तो वहाँ साफ़ साफ़ हर्फ़ में लिखा था ..... शाह मोहम्मद , विथ फैमिली , पियुन , आज़ाद नगर ...... ठीक ही तो है. नाम रखते वक़्त लोग अपनी हैसियत के बारे में थोडा ही सोचते हैं. जाहो - हशम (ठाट-बाट)

की दीवार तो उस वक़्त खडी हो जाती है जब सैयद वजाहत हुसैन जैसे ज़ीहैसियत आदमी की फेहरिस्त में शाह मोहम्मद का नाम जाता है. उस ने लिफाफा चुपचाप रख लिया था. इनकार करता तो इतने बड़े आदमी की हुक्म अदूली होती. यूँ भी उस के पेशे में नाफ़रमानी की गुंजाइश कहाँ है ? फरमान बजा लाने ही की वो रोटी खाता है.
    उस ने लिफाफा एक बार फिर उलट पलट कर देखा और मुस्कुरा दिया. शादी ब्याह के मौकों पर पडोसिओं और हकदारों का ख़ास ख्याल रखा जाता है. यहाँ तक के लोग आपसी रंजिश भी भुला देते हैं. यहाँ तो मुआमला हुसैन साहब का है जिन्हें दौलत , इज्ज़त और शोहरत के साथ साथ खुश खलकी भी विरसे में मिली है. सुना है , बेटी की शादी में पटना के एक रिटायर्ड फौजी अफसर के आई एस लड़के के साथ हो रही है. लिहाजा इस ख़ुशी में हर अमीरो  - गरीब  को पुछा जा रहा है ताकि हुसैन साहब की वासी- - अरीज़ कोठी भरी - पुरी लगे. शाह मोहम्मद की सोच ने एक नया रुख इख्तेयार कर लिया था .... किसी कीमती शय (वस्तु) की तरह लिफाफा उस ने अपनी शर्ट की जेब में डाल  लिया और अन्दर आकर इन्तेहाई संजीदा लहजे में बोला " आज रात खाना नहीं पकेगा " ... ... ये सुन कर उसकी बीवी हैरत से उस का मुँह ताकने लगी जैसे कोई अनहोनी बात कह दी गयी हो. शाह मोहम्मद गरीब ज़रूर था लेकिन इतनी मुफलिसी नहीं आई थी के किसी शाम चूल्हा ही नहीं जला हो. एक लम्हा के लिए उसने अपनी बीवी के पजमुर्दा चेहरे का लुत्फ़ उठाया और फिर बच्चों की तरफ देख कर मुस्कुराया जो अबतक दम साधे हुए बैठे थे.
      "भई , आज हमलोग दावत में जायेंगे ... ... " ये सुनते ही बच्चे धम धम ज़मीन पर उछालने लगे और बीवी सर पर आँचल डाल कर मुँह घुमाती हुयी आँखों के कोनों से झाँक कर मुस्कुरा दी. शाह मोहम्मद को ये सब देख कर अच्चा लगा और दफ्तर के लिए रवाना होते हुए कह गया  " मै आज जल्दी घर जाऊंगा. तुम लोग तैयार रहना. बड़े लोगों के यहाँ सब कुछ टाइम टेबल के हिसाब से होता है .... "
उसे अपने दफ्तर के साहबों के यहाँ की तकरीब (आयोजन ) के तौर तरीकों का अच्चा ख़ासा तजुर्बा था .

सूरज गुरूब होने से कब्ल ही दफ्तर से घर की तरफ आते हुए शाह मोहम्मद ने अपनी चप्पलों पर पालिश लगवाई . चिंटू के लिए एक नयी हाफ पेंट और मिंटू के लिए नयी बेल्ट खरीदी . गुज़श्ता साल ईद में मिंटू के लिए एक रेडीमेड पेंट खरीदी गयी थी जिस की कमर कुछ ढीली थी . उस की माँ उस पेंट में रिबन फंसा कर उसे पहनाया करती थी . मिंटू पांच साल का हो गया है . अच्छे -बुरे की तमीज उसे गयी है . आज भी रिबन बाँध कर जायेगा तो कैसा बुरा लगेगा . बाज़ार से गुज़रते वक़्त मस्जिद की गली से उस ने अतर -मजमुआ की एक शीशी भी ले ली थी . शहर छोटा हो या बड़ा , मस्जिद के अतराफ का माहौल एक जैसा होता है . कुरता -पायेजामा , टोपी , अतर ,रेहल , तस्बीह , बुर्का , दीनियात की किताबें , हमदर्द की दवाइयां , खुशबूदार तेल वगैरह खरीदना हो तो यहीं आना होता है . अतर - फरोश अब्दुल वहाब पुराने शेनासा (परिचित ) हैं . अतर खरीदते वक़्त उस ने शाह मोहम्मद को छेड़ा .... " यार ! अभी ईद आने में तीन माह बाक़ी हैं " उस ने कोई जवाब नहीं दिया लेकिन दिल ही दिल में सोचा .... बेवकूफ को क्या मालूम ... किसी बड़े आदमी की दावत ईद से कम नहीं होती . आज जो पकवान उसे खाने को मिलेंगे वो तुम ने अपनी ईद में भी नहीं खायी होगी . वो बीवी के लिए भी कोई नयी चीज़ लेना चाहता था लेकिन सारे पैसे एक तोहफा खरीदने में खर्च हो गए . उस ने सौ रुपये में अपने घडी-साज़ दोस्त सज्जाद असगर की दूकान से अजंता कुआर्टज़ की एक दीवार घडी पैक करवाई थी . सौ रुपये भी वो कहाँ दे सका था ! पचास रुपये अगले माह की तनख्वाह के भरोसे उधार पर उठा लाया था . सौ - पचास की चीज़ें उसे आसानी से वक़्त - ज़रुरत उधार में मिल जाया करती हैं . अब खाली हाथ मुँह उठाये किसी दावत में चले जाना क्या अच्चा लगता है ? बराबर वालों में जाना हो तो दस - बीस रुपियों में काम चल जाता है . लेकिन यहाँ तो मुआमला हुसैन साहब के घर का है . बीवी ये तोहफा देख कर अपनी ज़रुरत भूल जाएगी ... "मरे मियां  किसी से कम हैं क्या ? चपरासी हैं तो क्या हुआ ? हैं तो सरकारी नौकर ..... " ऐसी बातें अपनी पड़ोसन शरफू की माँ को वो अक्सर सुना चुकी है
         शाह मोहम्मद अपने मोहल्ले में दाखिल हुआ तो उसके चलने का अंदाज़ थोडा बदल गया . क़दम पुर -वक़ार अंदाज़ में उठने लगे . आँखों में चमक और होंटों पर मुस्कराहट जम  सी गयी थी और हाथों के पैकेट भी कुछ वज़नी मालूम पड़ रहे थे . उसे लगा के वो भी कोई रुतबे वाला आदमी है . घर के करीब पहुंचा तो उसे एक आवाज़ सुनाई दी ..... "बिरादरे इस्लाम , एक ज़रूरी एलान .... " आवाज़ जानी - पहचानी सी थी . पीछे मुड कर देखा तो जसीम भाई रिक्शे पर माइक थामे नज़र आये . आज शाह मोहम्मद ने सड़क पर रुक कर उस ज़रूरी एलान की बाबत तफसील से जानने की ज़रुरत महसूस नहीं की . होगा , कोई जलसा - वलसा ... फलां फलां मौलाना फलां फलां जगह से तशरीफ़ ला रहे होंगे ... पुर -जोर तक़रीर होगी जो बिरादरे - इस्लाम के रूबरू चीख -चीख कर पेश की जाएगी .वो जल्दी से घर की तरफ बढ़ गया .

         शाह मोहम्मद घर के अन्दर दाखिल हुआ तो उसे बेहद  कोफ़्त हुयी . दोनों बच्चे नंग - धडंग एक दुसरे से धींगा-मुश्ती कर रहे थे . उस की बीवी संजीदा खातून टीन का एक बकस खोले परेशानी के आलम में कपड़ों को उलट-पलट कर रही थी . लेकिन बच्चों के लिए ढंग का कोई लिबास मिल ही नहीं रहा था . किसी शर्ट की आस्तीन फटी हुयी है तो किसी का बटन टूटा हुआ है . किसी पतलून का पाइनचा उधडा हुआ है तो किसी का बकलस ही गायब है . ऐसे मौकों पर संजीदा खातून इन्तेहाई गैर-संजीदा होकर अपने नसीब का बखिया उधेड़ना शुरू कर देती थी .... "मैं तो तंग गयी हूँ इन लोगों के झमेले से ... कैसे नाकारा मर्द से वास्ता पड़ा है . कभी कोई ढंग का काम किया  है इन्हों ने ? बस कह दिया , बच्चों को तैयार करा दो ... तैयार क्या ख़ाक करा दूं ...... " वगैरा-वगैरा कहते कहते उस पर खांसी का एक तवील दौरा पड़ा
         शाह मोहम्मद को बेहद गुस्सा आया .... "इस फूहड़ औरत ने तो मेरा जीना हराम कर रखा है ... जब तब अपना रोना ले कर बैठ जाती है ... अब चुप भी करो ... बच्चों को मै संभाल लूँगा ... तुम अपनी तैय्यारी करो ."

           संजीदा खातून की खांसी को अचानक ब्रेक लग गया और बच्चे दौड़ कर उसके पैरों से लिपट गए . थोड़ी देर की मेहनत के बाद बच्चे कपड़ों से आरास्ता (सुसज्जित ) हो गए . उन के सिरों में कामरू बाबु की दूकान से खरीदा गया आंवले का तेल डाला गया और कंघी की गयी . मोज़े एडियों के पास फटे हुए थे मगर जूतों में छुप  गए . उधर उसकी बीवी सज-संवर कर आई तो शाह मोहम्मद को मुतवातिर (लगातार ) कई छींकें आयीं . बीवी की साडी में बसी हुयी फिनाइल की बू (गंध ) कमरे में फैल गयी थी . छींक से नजात पाने के बाद उसने अपनी बीवी के सरापा का जाएजा लिया तो उसे लगा , ज़िन्दगी फज़ली आम की तरह मीठी है और थोड़ी फीकी भी .

शाह मोहम्मद बीवी बच्चों के साथ रिक्शे पर सवार होकर हुसैन साहब की कोठी की तरफ रवाना हुआ तो रास्ते भर बच्चे तरह-तरह के सवालात पूछते रहे ..... पापा ! वहाँ क्या क्या खाने को मिलेगा ? बरात के साथ क्या बैण्ड-बाजा भी होगा ? दूल्हा किस पर बैठ कर आएगा ? दूल्हे के सर पर पगड़ी क्यों होती है ?
                  हुसैन साहब की कोठी दूर से जलवा अफरोज (सुशोभित ) थी . सदर दरवाज़े के सामने एक शाहाना गेट बनाया गया था . सड़क पर कतार डर कतार टियूब लाइट्स की रौशनी बिखरी हुयी थी. सह -मंजिला इमारत बरकी कुमकुमों (बिजली के रंगीन बल्ब ) से सजा दी गयी थी. हल्की-हल्की मुसीकी (म्युजिक ) कहीं दूर से आती हुयी महसूस हो रही थी जो,कानों को भली लग रही थी . कुशादा (विस्तृत ) लॉन के अन्दर मुख्तलिफ जगहों पर कोल्ड ड्रिंक्स , चाय , काफी , पान और सिगरेट के मुफ्त स्टाल खूबसूरती से लगे हुए थे. तीन अदद जहाजी पंडाल अन्दर नस्ब (लगे हुए ) थे जिनकी दिलावेज़ी (हृदय को लुभाना ) में दुनिया भर की फनकारी (कलाकारी ) दिखाई गयी थी. पंडाल के अन्दर क्या-क्या हैं , ये तो वहाँ जाने के बाद मालूम होगा. शाह मोहम्मद सदर दरवाज़े के बहुत पीछे रिक्शा रुकवा कर उतर गया था और अब बच्चों की ऊँगली थामे पैदल चलता हुआ एक एक चीज़ पर की गयी कारीगरी को हैरत और तजस्सुस (जिज्ञासा ) भरी निगाहों से देख रहा था. बच्चों को लगा जैसे रात को वो किसी मेले में गये हों . मिंटू पैट की जेबों में हाथ डाले अकड़-अकड़ कर चल रहा था और उसकी बीवी सर पर आँचल को मजबूती से थामे हुए पीछे-पीछे रही थी. अन्दर कर संजीदा खातून अपने बच्चों को लेकर उस मजमा में शामिल हो गयी जो औरतों , बच्चों और लड़कियों पर मुश्तमिल (सम्मिलित ) था. शाह मोहम्मद को बताया गया के बरात आने में अभी एक घंटे की ताखीर (विलम्ब) है . हस्बे-रिवायत (परम्परा के  अनुसार ) निकाह के बाद ही मेहमानों की जियाफत (खान-पान) का एहतेमाम किया  जायेगा . तब तक वह मशरूबात (पेय पदार्थ) और पान-सिगरेट से दिल बहला सकता है. उस ने देखा के एक से बढ़ कर एक खुश-हाल , खुश-पोश और खुश-वज़आ   (अच्छे वस्त्र और अच्छे रूप वाले) लोगों की आमद बढती जा रही है. ठस्से-दार औरतें और हसीनो-जमील लडकियां जर्क-बर्क लिबासों (चमकीले वस्त्रों) और जेवरों से लड़ी-फंदी खुश-फेलियों (चुहलबाजियों) में मसरूफ हैं.मोटर-गाड़ियों की आमदो-रफत (आगमन और प्रस्थान) का सिलसिला लगा हुआ था.उसे अपनी हैसिअत और बिरादरी के कुछ लोग दिखाई दिए तो वह उनकी तरफ लपका लेकिन वो सब मुख्तलिफ कामों में मशगूल नज़र आये.कुछ लोगों ने उस से पूछा भी के वह यहाँ इतनी ताखीर (विलम्ब) से क्यों आया है?पहले आता तो वह भी किसी काम से लगा होता...... उसे तअज्जुब हुआ के प्रोग्राम के मुताबिक़ वह सही वक़्त पर पहुंचा है...... लेकिन उस वक़्त कोई उस से इत्मीनान से बातें करने के लिए तैयार नहीं था.सब मशीन की तरह इधर - उधर भाग रहे थे.हाँ , इतना ज़रूर मालूम हुआ के ये लोग सुबह से अपने-अपने कामों में लगे हुए हैं और उनकी बीवियां भी अन्दर ज़नानखाने (महिलाओं का स्थान) में बीसीयों कामों में मसरूफ (व्यस्त) हैं......... इतनी भीड़-भाड़ और शोर-शराबे के दरमियान अचानक शाह मोहम्मद खुद को बेहद तनहा और अजनबी महसूस करने लगा. उसे लगा के यहाँ उसकी कोई ज़रुरत नहीं है.उसने यहाँ मेहमानों की तरह कर वाकई गलती की है.


               हुसैन साहब ने उसे इज्ज़त से बुलाया ,इसका ये मतलब हरगिज़ नहीं के वह वाकई काबिले-एहतराम शखसिअत (सम्मान योग्य व्यक्ति) हो गया.ये सोच कर वो दिल ही दिल में शर्मिंदा हुआ.पंडाल के अन्दर आरास्ता (बिछी हुयी) ख़ूबसूरत और नफीस कुर्सी पर बैठे-बैठे उसे उकताहट महसूस होने लगी तो वो वहाँ से उठ कर बे-मसरफ सा इधर-उधर टहलने लगा.उसे तम्बाकू वाला एक पान खाने की ख्वाहिश हुयी. वो स्टाल तक गया भी लेकिन वहाँ साहब-लोगों का मजमा देख कर अपना इरादा मुल्तवी (स्थगित) कर दिया.इसी दरमियान शोर हुआ के बरात गयी है.लोग बारातियों के  इस्तक़बाल (स्वागत) के लिए सदर दरवाज़े की तरफ दौड़ पड़े. बरात की आमद (आगमन) का शोर सुन कर शाह मुहम्मद की बीवी संजीदा खातून  जो,अबतक औरतों की भीड़ में खोयी हुयी थी, दफअतन (सहसा) अपने बच्चों की तरफ मुत्वजजों (ध्यानाकर्षित) हुयी जिन्हें,बरात देखने के इश्तेयाक (उत्सुकता) ने दोपहर ही से बेचैन कर रखा था.लेकिन उसे ये देख कर सख्त सदमा हुआ कि दोनों बच्चे इस हंगामा-खेज़ी के बावजूद आँगन में बिछे हुए तख़्त के एक कोने में सोये पड़े हैं.बच्चों को सोया हुआ देख कर उसे बेहद गुस्सा आया और उसकी संजीदा-मिजाजी यकलख्त (सरासर) रफ़आ (दूर) हो गयी.उस ने बच्चों को झंझोर-झंझोर कर उठाना शुरू किया ,लेकिन लगता था कि बच्चे अफ्यून की गोली खा कर सोये-पड़े हैं.नींद के बोझ तले दबे हुए दोनों बच्चे इतने बोझिल हो चुके थे कि संजीदा खातून थक सी गयी.


                  बारातियों की आमद का शोर बढ़ता जा रहा था लेकिन उन दोनों बच्चों के लिए शादी की इस तकरीब (आयोजन) की अब कोई अहमियत नहीं रह गयी थी. *


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