ग़ज़ल
क्या क्या भेस बदलते हैं ये,क्या क्या ढब दिखलाए हैं
औरों को धोखा देने में ख़ुद से धोखा खाए हैं
रोशनी और अँधेरे का ये फ़र्क़ समझना मुश्किल है
अन्दर सदियों का अन्धेरा बाहर दिए जलाए हैं
वक़्त ही ज़ख्मों को भरता है बात सरासर झूठी है
वक़्त ने लम्हों के रहज़न से बस डाके डलवाए हैं
कुछ कुछ ग़म तो रहते ही हैं, कुछ कुछ खुशियाँ आती हैं
अपने घर के इन दोनों ने फेरे ख़ूब लगाए हैं
दस्तक और दरवाज़े का ये रिश्ता उल्टा-पल्टा है
बोलो, कितने दरवाज़े इन दस्तक ने खुलवाए हैं
दीवाना तो दीवाना है , उसपे हँसो ,पत्थर फेंको
सोच-समझकर इश्क़ ने इसमें घाटे सिर्फ़ उठाए हैं
सारी उम्र जहाँ की रस्मों हम तो गुनहगर तेरे रहे
'कुन्दन' की आज़ाद तबीयत ने बंधन खुलवाए हैं
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अन्दर सदियों का अन्धेरा बाहर दिए जलाए हैं
वक़्त ही ज़ख्मों को भरता है बात सरासर झूठी है
वक़्त ने लम्हों के रहज़न से बस डाके डलवाए हैं
कुछ कुछ ग़म तो रहते ही हैं, कुछ कुछ खुशियाँ आती हैं
अपने घर के इन दोनों ने फेरे ख़ूब लगाए हैं
दस्तक और दरवाज़े का ये रिश्ता उल्टा-पल्टा है
बोलो, कितने दरवाज़े इन दस्तक ने खुलवाए हैं
दीवाना तो दीवाना है , उसपे हँसो ,पत्थर फेंको
सोच-समझकर इश्क़ ने इसमें घाटे सिर्फ़ उठाए हैं
सारी उम्र जहाँ की रस्मों हम तो गुनहगर तेरे रहे
'कुन्दन' की आज़ाद तबीयत ने बंधन खुलवाए हैं
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