सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

ग़ज़ल


क्या क्या भेस बदलते हैं ये,क्या क्या ढब दिखलाए हैं
औरों  को   धोखा  देने  में  ख़ुद  से  धोखा   खाए  हैं  
रोशनी और अँधेरे का ये फ़र्क़ समझना मुश्किल है
अन्दर सदियों का अन्धेरा बाहर दिए जलाए हैं 

वक़्त ही ज़ख्मों को भरता है बात सरासर झूठी है
वक़्त ने लम्हों के रहज़न से बस डाके डलवाए हैं 

कुछ कुछ ग़म तो रहते ही हैं, कुछ कुछ खुशियाँ आती हैं
अपने  घर   के   इन   दोनों   ने   फेरे   ख़ूब    लगाए  हैं 

दस्तक और दरवाज़े का ये रिश्ता उल्टा-पल्टा है 
बोलो, कितने दरवाज़े इन दस्तक ने खुलवाए हैं 

दीवाना तो  दीवाना  है , उसपे  हँसो  ,पत्थर फेंको
सोच-समझकर इश्क़ ने इसमें घाटे सिर्फ़ उठाए हैं 

सारी उम्र जहाँ की रस्मों हम तो गुनहगर तेरे रहे
'कुन्दन' की आज़ाद तबीयत ने बंधन खुलवाए हैं 

**************************

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

कथाकार पंकज सुबीर के उपन्यास ‘जिन्हें जुर्म-ए-इश्क़ पे नाज़ था’ की समीक्षा कथाकार पंकज मित्र द्वारा

पंकज सुबीर                पंकज मित्र                               जिन्हें नाज़ है अपने मज़हब पे उर्फ धर्म का मर्म   धर्म या साम्प्रदायिकता पर लिखा गया है उपन्यास कहते ही बहुत सारी बातें , बहुत सारे चित्र ज़हन में आते हैं मसलन ज़रूर इसमें अल्पसंख्यक - बहुसंख्यक वाला मामला होगा या नायक नायिका अलग - अलग मज़हब के मानने वाले होंगे जिनके परिवारों में भयानक दुश्मनी होगी , दंगों के हृदयविदारक दृश्य होंगे , सर्वधर्म समभाव के फार्मूले के तहत दोनों ओर कुछ समझने - समझाने वाले लोग होंगे या दौरे-हाज़िर से मुतास्सिर लेखक हुआ तो हल्का सा भगवा रंग भी घोल सकता है - क्या थे हम और क्या हो गए टाइप थोड़ी बात कर सकता है , गरज यह कि आमतौर पर इसी ढर्रे पर लिखे उपन्यासों से हमारा साबका पड़ता है. लेकिन पंकज सुबीर का उपन्यास "जिन्हें जुर्म ए इश्क पे नाज़ था" ऐसे किसी प्रचलित ढर्रे पर चलने से पूरी तरह इंकार करता है और तब हमें एहसास होता है कि किस हद तक खतरा मोल लिया है लेखक ने। धर्...

एक आम आदमी की डायरी- 1- संजय कुमार कुन्दन

          एक आम आदमी की डायरी- 1 आज से यह नया कॉलम शुरू कर रहा हूँ- एक आम आदमी की डायरी. पहले इस शीर्षक को ही साफ़ कर लें, उसके बाद शुरू होगी यह डायरी. दो शब्द जो बहुत स्पष्ट से दिखते हैं, स्पष्ट नहीं हो पा रहे- ‘आम’ और ‘डायरी’. और हाँ यह तीसरा शब्द ‘आदमी’ भी. ‘की’ की तो कोई बिसात ही नहीं. आम मतलब एकदम आम यानी वही जो ख़ास नहीं. आम मतलब जिसको हम पहचानते हुए भी नहीं पहचान सकते. जिसकी कोई बिसात ही नहीं. जैसे ख़ास मतलब जिसको पहचान की ज़रूरत ही नहीं, जिसे सब पहचानते हैं लेकिन जो नहीं भी पहचानता हो वह नहीं पहचानते हुए भी नहीं पहचानने का दुःसाहस नहीं कर सकता. लेकिन आम के बारे में अब भी अवधारणा स्पष्ट नहीं हुई. क्योंकि यह ख़ास का उल्टा है, विपरीतार्थक शब्द है बल्कि इतना उल्टा है कि ख़ास के गाल पर एक उल्टे तमाचे की तरह है तो अगर कोई आम इस पहचान की परवाह नहीं करता कि उसे भी ख़ास की तरह पहचान की ज़रुरत ही नहीं तो क्या वह आम ख़ास हो जाएगा. और अगर वह आम ख़ास हो जाएगा तो क्या तो बाबा आदम के ज़माने से चले आ रहे मानव समुदाय के इस विशिष्ट वर्गीकरण की धज्जियाँ न उड़ जाएँगी. देखिए, मैं ...

कमलेश की कहानी-- प्रेम अगिन में

  कमलेश            प्रेम अगिन में   टन-टन-टन। घंटी की आवाज से तंद्रा टूटी छोटन तिवारी की। बाप रे। शाम में मंदिर में आरती शुरू हो गई और उन्हें पता भी नहीं चला। तीन घंटे कैसे कट गये। अब तो दोनों जगह मार पड़ने की पूरी आशंका। गुरुजी पहले तो घर पर बतायेंगे कि छोटन तिवारी दोपहर के बाद मंदिर आये ही नहीं। मतलब घर पहुंचते ही बाबूजी का पहला सवाल- दोपहर के बाद मंदिर से कहां गायब हो गया ? इसके बाद जो भी हाथ में मिलेगा उससे जमकर थुराई। फिर कल जब वह मंदिर पहुंचेंगे तो गुरुजी कुटम्मस करेंगे। कोई बात नहीं। मार खायेंगे तो खायेंगे लेकिन आज का आनन्द हाथ से कैसे जाने देते। एक बजे वह यहां आये थे और शाम के चार बज गये। लेकिन लग यही रहा था कि वह थोड़ी ही देर पहले तो आये थे। वह तो मानो दूसरे ही लोक में थे। पंचायत भवन की खिड़की के उस पार का दृश्य देखने के लिए तो उन्होंने कितने दिन इंतजार किया। पूरे खरमास एक-एक दिन गिना। लगन आया तो लगा जैसे उनकी ही शादी होने वाली हो। इसे ऐसे ही कैसे छोड़ देते। पंचायत भवन में ही ठहरती है गांव आने वाली कोई भी बारात और इसी...