मैंने सोचा था मेरे चाहनेवाले हैं बहुत
ये न समझा के यहाँ शख़्स निराले हैं बहुत
मुझपे शक कर लो मगर झाँक के दिल में देखो
मेरी मासूम मुहब्बत के हवाले हैं बहुत
मैंने माना के मेरी जान अन्धेरा है दबीज़
सब्र कर इसमें शररबार उजाले हैं बहुत
एक लम्हे के लिए ख़ुद में ज़रा गुम जो हुआ
ख़ैरख़्वाहों ने तो मफ़हूम निकाले हैं बहुत
भूख पर उनकी ही तक़रीर ज़बर्दस्त रही
जिनके ग़ल्ले हैं फ़ुजूँ,जिनके निवाले हैं बहुत
उस नगर से ही मैं निकला हूँ अभी बाइज़्ज़त
जिसकी तारीख़ के दस्तार उछाले हैं बहुत
कल थका सा था मिला वो ही तुम्हारा 'कुन्दन'
ज़िन्दगी , जिसने तेरे वार सँभाले हैं बहुत
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