पंकज सुबीर पंकज मित्र जिन्हें नाज़ है अपने मज़हब पे उर्फ धर्म का मर्म धर्म या साम्प्रदायिकता पर लिखा गया है उपन्यास कहते ही बहुत सारी बातें , बहुत सारे चित्र ज़हन में आते हैं मसलन ज़रूर इसमें अल्पसंख्यक - बहुसंख्यक वाला मामला होगा या नायक नायिका अलग - अलग मज़हब के मानने वाले होंगे जिनके परिवारों में भयानक दुश्मनी होगी , दंगों के हृदयविदारक दृश्य होंगे , सर्वधर्म समभाव के फार्मूले के तहत दोनों ओर कुछ समझने - समझाने वाले लोग होंगे या दौरे-हाज़िर से मुतास्सिर लेखक हुआ तो हल्का सा भगवा रंग भी घोल सकता है - क्या थे हम और क्या हो गए टाइप थोड़ी बात कर सकता है , गरज यह कि आमतौर पर इसी ढर्रे पर लिखे उपन्यासों से हमारा साबका पड़ता है. लेकिन पंकज सुबीर का उपन्यास "जिन्हें जुर्म ए इश्क पे नाज़ था" ऐसे किसी प्रचलित ढर्रे पर चलने से पूरी तरह इंकार करता है और तब हमें एहसास होता है कि किस हद तक खतरा मोल लिया है लेखक ने। धर्...
यह ब्लॉग बस ज़हन में जो आ जाए उसे निकाल बाहर करने के लिए है .कोई 'गंभीर विमर्श ','सार्थक बहस 'के लिए नहीं क्योंकि 'हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन ..'
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