मुकेश प्रत्यूष की तीन कविताएँ
हाशिया
जैसे उठाने से पहले कौर
निकालता है कोई अग्रासन
उतारने से पहले बिछावन से पैर
करता है कोई धरती को प्रणाम
तोड़ने से पहले तुलसी का पत्ता
पकड़ता है कोई कान
वैसे ही, लिखने के पहले शब्द
तय करता है कोई हाशिये के लिये जगह
जैसे ताखे पर रखी होती है लाल कपड़े में बंधी कोई किताब
गांव की सीवान पर बसा होता है कोई टोला
वैसे ही पृष्ठ पर रहकर भी पृष्ठ पर नहीं होता है हाशिया
मोड़कर या बिना मोड़े
दृश्य या अदृयस तय की गई सीमा
अलंध्य होती है हाशिये के लिये
रह कर भी प्रवाह के साथ
हाशिय बना रहता है हाशिया ही
तट की तरह
लेकिन होता नहीं है तटस्थ
हाशिया है तो निश्चिंत रहता है कोई
बदल जाये यदि किसी शब्द या विचार का चलन
छोड़ प्रगति की राह यदि पड़ जाये करनी प्रयोगधर्मिता की वकालत
हाशिये पर बदले जा सकते हैं रोशनाई के रंग
हाशिये पर बदले जा सकते हैं विचार
हाशिये पर किये जा सकते हैं सुधार
इस्तेमाल के लिये ही तो होता है हाशिया
बिना बदले पन्ना
बदल जाता है सबकुछ
बस होती है जरुरत एक संकेत चिह्न की
जैसे बाढ़ में
पानी के साथा आ जाते हैं बालू
जद्दोजहद में बचाने को प्राण आ जाते हैं सांप
मारते सड़ांध पशुओं के शव
कभी-कभी तो आदमियों के भी
और चले जाते हैं लोग छोड़कर घर-बार
किसी टीले या निर्वासित सड़क पर
वैसे ही
झलक जाती है जब रक्ताभ आसमान के बदले गोधूली की धुंध
हाशिया आ जाता है काम
पर भूल जाते हैं कभी कभी छोड़ने वाले हाशिया
हाशिये पर ही दिये जाते हैं अंक
निर्धारित करता है परिणाम हाशिया ही
हाशिया है तो हुआ जा सकता है सुरक्षित
***
शुक्र मनाओ
शुक्र मनाओ परवरदिगार
मसीहा तुम भी
और यदि अब तक बढ़ी न हो आबादी
तो तैंतीस करोड़ देवी देवता लोग तुम भी
शुक्र मनाओं की तुम हो और सुरक्षित हो
शुक्र मनाओ कि हो गई शाम और तुम ले रहे हो आरती-भोग का आनंद
सब शुभ का संकेत करती बजी हैं घंटियां तुम्हारे घर
शुक्र मनाओ कि तुम अब भी दे लेते हो दर्शन
कर दिए जाओगे कब परदे की ओट में
रोक दिया जाएगा कब आने से किसी को तुम तक
बता नहीं सकता यह तो कोई नजूमी भी
शुक्र मनाओ कि अब भी टेर लेते हैं लोग तुम्हे
तुम भी कर बना देते हो किसी किसी का काम
सब का तो संभव भी नहीं
शुक्र मनाओ कि अब तक पीटी नहीं गई है मुनादी
कि जिसे भी लेना हो तुम्हारा नाम
पहले ले अनुमति, चुकाए कर
कम लाभ का ध्ंाधा थोड़े ही है खोलना तुम्हारे नाम की दुकान
शुक्र मनाओ कि तुम्हारे पास भी है जर-जमीन
भक्तों को छोड़ डाली नहीं है किसी और ने निगाह
फूटे हैं जो दो चार बम तुम्हारे पवित्र घर-आंगन में
वह तो है गुरु - भाइयोंे का खेल
शुक्र मनाओ कि नहीं लगाने पड़ रहे हैं तुम्हे थाने - कचहरी के चक्कर
वरना ताकते रहते तुम भी सूने आकाश में
और बेवशी में मलते रहते हाथ
शुक्र मनाओ -
चाहते हुए भी खुद को जब्त कर रखा है
अबतक
राजा ने
नंगा दिख कर भी दिखना नहीं चाहता है राजा नंगा
रह-रह कर बार-बार ठोक रहा है कपार
राज-पाट के आनंद में बाधक बन रहा है कपड़ा
कफन है बेदाग सफेदी राजा के लिए
***
पहेली
अनिद्रा के परिचायक
नहीं है सपने
नींद से गहरा
रिश्ता है सपनों का. जागी आंखों में
भी
कभी-कभी उतर आते हैं सपने. अधमुंदी आंखों के आगे
सपनों का आना
आम बात है.
सपनों में देखता
है अफसर हाथ बांधे मातहतों की कतार
और तलाशता है
कारण उबलने का
ताकि उतर आए नीचे
चुपचाप चढ़ा हुआ रक्तचाप
मंत्री देखता
है 'राजा` की कुर्सी और उसका पांवदान
और ऐंठता है देह
बैठने की नई-नई मुद्रा मेंं
'राजा` देखता है भीड़ में अकेला है वह
कभी दूर रेगिस्तान
में ढूहों के बीच भटकता
कभी घने जंगल
में भेड़ियों की ओर
हडि्डयां फेंकता
हुआ
सोचता है राजा
क्या होगा जब नहीं बचेंगे जूठन
गवाह हैं दंतकथाएं -
चिंता से उड़
जाती है राजा की नींद
चिरौरी पर उतर
आता है राजा एक अदद नींद के लिए
उतार देता है
मुकुट
मान लेता है दरिद्र
को नारायण
दंत कथाएं तो
दंत कथाएं हैं
आज कहां ईर्ष्या
से भरता है राजा कूबड़ धरती पर
चिलचिलाती धूप
में नींद में डूबे किसी को देखकर
फिर क्यों पटकेगा
ले जाकर उसे अपनी सेज पर
धत्
छोड़ो
कहां नींद कहां राजा
राजा
तो राजा है
राजा गया वन में : बूझो अपने मन में
***
संपर्क:
मुकेश प्रत्यूष, 3G जानकीमंगल इंक्लेव, शक्तिधाम अपार्टर्मेंट, पूर्वी बोरिंग कनाल रोड, निकट पंचमुखी मंदिर, पटना 800 001 मोबाईल : 9431878399 ईमेल : mukeshpratyush@gmail.com
रेखाचित्र :
सन्दली वर्मा
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