राधा प्रसाद की एक कहानी
[राधा प्रसाद (1915-06.07.2003) पिछली सदी के तीसरे-चौथे दशक के एक महत्वपूर्ण
लेखक थे. इनकी पहली कहानी प्रेमचंद द्वारा संपादित ‘हंस’ में प्रकाशित हुई. उस समय
की महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिकाओं यथा ‘विशाल भारत’,’अवंतिका’, ‘ज्योत्सना’
इत्यादि ने इनकी कहानियों को स्थान दिया था. इनकी प्रकाशित एवं अप्रकाशित कहानियों
एवं उपन्यासों का संकलन कर रचनावली के रूप में प्रकाशन का कार्य प्रक्रियाधीन है.
जन्मस्थान- पूर्णिया, कार्यक्षेत्र- फॉरबिसगंज एवं मृत्यु- पटना.]
पलायन
राधा प्रसाद
पार्क काफ़ी बड़ा था. किनारे-किनारे एक मझोली दूरी
लिए बेंच रखे थे. इस फैलाव के ठीक बीचोबीच जयप्रकाश नारायण की एक बड़ी-सी मूर्ति
स्थापित थी. कुछ दूर हट एक
फव्वारा था जो रख-रखाव के अभाव में सूखा पड़ा था.
शाम का वक़्त था.सूर्य अब अस्त होने ही को था.
पूर्व की तरफ़ एक कोने में आम के बड़े पेड़ की घनी
छाया में एक बेंच रखा था. कुछ दूर हट और भी बेंच थे जिनपर कई लोग बैठे बातचीत में
मशगूल थे.कहीं किसी बेंच से क़हक़हे की आवाज़ आ रही थी. दाईं तरफ़ एक खोमचेवाले की ज़रा
तीख़ी, ज़रा मीठी बोल सुनाई पड़ रही थी- चन्नाजोर गरम प्यारे...
कि इतने में एक बूढ़ी औरत धीमी चाल से आ, आम के
छायादार पेड़ के नीचे रखे बेंच पर बैठ गई. बूढ़ी की उम्र अन्दाज़न पैंसठ की होगी.
लम्बी और क़द-काठी से असरदार मालूम पड़ती थी. रंग गेंहुआ और चेहरा अण्डाकार; आँखें
बड़ी-बड़ी लेकिन इनमें जैसे सदियों की मायूसी भरी दीख पड़ती थी.
वह देर तक बेंच पर बैठी रही. दूर रखे बेंच के
क़हक़हों से बेख़बर वह बैठी थी. कुछ फ़ासले पर खेल रहे दो बच्चों को देख रही थी. बच्चे
दो बड़े-बड़े बैलून को हवा में उछाल, उनपर झपट पड़ते पकड़ने के लिए.
इस बार दोनों बैलून हवा में तैरते बूढ़ी अम्मा के
पास आ गिरे. एक तो सीधा बूढ़ी की गोद में और दूसरा उसकी बाईं ओर बेंच के एक किनारे
पर.
बस बच्चे झपट पड़े बैलून पर. झींगामुश्ती में लड़की
बूढ़ी की गोद में आ गिरी. लड़का बूढ़ी के दाहिने कन्धे पर ज़ोर डाल, इस बार गिरते
बैलून पर झपटा और फिर धागे को पकड़ पलट कर भागा. इधर लड़की जो धम्म से बूढ़ी की गोद
में गिरी, उसके सिर और बूढ़ी के कन्धे से टकरा बैलून एक फटाक् के साथ फूट गया.
लड़की अनजाने में संभलकर बूढ़ी की गोद में बैठ गई,
उसका चेहरा उतर गया. फिर दो बूँद आँसू आँखों में फैल गए. अचानक वह अपनी गुदगुदी,
नरम हथेली से बूढ़ी के कन्धे को पीटते-पीटते बक चली-- वह मेरा नहीं था, मुन्नू का
था. मेरा तो वह है जिसे लेकर वह खच्चर मुनुआ भाग खड़ा हुआ है.
फिर एकबारगी पलटकर उसने बूढ़ी को देखा और सकपकाकर
उसकी गोद से उतर, कुछ सहमी-सहमी-सी, दो क़दम पीछे हट गई. उसने घूमकर देखा. कुछ दूर
पर मुन्नू बैलून उछालता, हँस-हँसकर बहन को चिढ़ा रहा था.
लेकिन जबतक बूढ़ी यह निश्चय करे कि मुन्नी को
बुलाकर उसे एक बैलून ख़रीद दे, एक जवान औरत, औसत क़द की, गोरी लेकिन कुछ ख़ास सुन्दर
नहीं, लपकती हुई आई और मुन्नी का हाथ पकड़, बूढ़ी से क्षमायाचना के स्वर में बोली—अम्माजी,
माफ़ कीजिए, ये बच्चे एकदम बदमाश हैं. घर पर भी ऐसे ही परेशान किए रहते हैं और बाहर
भी. मैं तो तंग आ गई हूँ इनसे.
लेकिन बूढ़ी अधखुले मुँह से बच्ची के स्पर्श से
उपजे अमृत का मंथन कर रही थी जो बहुकाल बाद उसके ह्रदय के मरु बन गए स्थल को फोड़कर
सहसा उसके सारे शरीर को प्लावित कर गया था. उसके मुँह से हठात् निकला—आह..वह..
तो.. और फिर उसके ह्रदय के दारुण उच्छ्वास ने सहसा उसके चेहरे पर फैल, क्षणभर के
लिए उसे एक अनबूझी व्यथा से भर दिया.
मुन्ना और मुन्नी माँ के दोनों बगल झगड़ा करते,
डांट खाते आगे बढ़ गए. और बूढ़ी अम्मा की आँखें स्निग्ध, तरल, दूर भूत की वादियों
में अपने मुन्ना-मुन्नी को टटोलती तरल हो उठीं.
वह शाम. अभी कई साल पहले ही तो...
एक सजा-सजाया ड्रॉइंगरुम. बूढ़ी एक कोने पर रखी
सेटी पर बैठी थी. उसके मुन्ना-मुन्नी—पोता और पोती चॉकलेट के डब्बे पर छीनाझपटी
करते तूफ़ान की तरह कमरे में घुसे. डब्बा मुन्नी के हाथ से झपट मुन्ना लपककर सोफ़ा
पर धम्म से जा बैठा. उधर मुन्नी उसका पीछा करती हुई सोफ़े पर उचकती हुई मुन्ना की
बाँह पर जा बैठी. मुन्ना सोफे पर चित्त जा गिरा. बस छीनाझपटी, नोचानोची शुरू हो
गई. इस उछलकूद में बगल में रखी एक तिपाई पर का ‘वास’ फ़र्श पर गिर दो टुकड़े हो गया.
तब बूढ़ी सेटी से उठ दौड़ती हुई जाकर दोनों को अलग
करने लगी. दोनों अलग होते फिर गुत्थमगुत्थी करने लगते.
शोर सुनकर बहू दौड़ी आई थी. और तब...
बूढ़ी की आँखें नम हो आईं.
बहू ताने के लहजे में बोली—क्यों नहीं. कोई काम
धाम तो है नहीं. बस रोटियाँ तोड़ना और सुबह-शाम इधर-उधर मोहल्ले में मेरे दुश्मनों
के घर अड्डा मारना. इतना भी नहीं होता कि बच्चों को सँभालकर रक्खें. एक मैं हूँ कि
दिन रात एक कर घर को चुस्त-दुरुस्त रखने में अपने को खटा-खटा कर नाश कर लिया. और
एक वे हैं कि घर का सारा बोझ मुझपर डाल
अपने काम में ऐसे खोए रहते हैं जैसे सरकार उन्हें कौन-सा ...
आगे उसे फ़ौरन सूझा नहीं कि बात पूरी करने के लिए
कौन-सी उपमा ज़्यादा तराश लाए और वह मुन्ना-मुन्नी को ड्रॉइंगरूम से खदेड़ती हुई
बाहर चली गई.
कि फ़ौरन बाद लौटकर आई और हन-हन करती हुई, कपाल
ठोककर बोली—माँजी, आपसे इतना भी नहीं हुआ कि इतने क़ीमती वास को टूटने से बचा
लेतीं. हाय राम, मैं मर क्यों नहीं जाती कि रोज़-रोज़ का सत्यानाश देखने से बच जाऊँ.
और वह उलटे पाँव उसी तेज़ी के साथ कमरे से बाहर हो
गई थी.
...बूढ़ी बेंच पर चुपचाप, निस्पन्द भूत में खोई
बैठी रही. उसे याद आया विक्रम को, पति के मरने के बाद, मेहनत मशक्कत कर, बच्चों के
स्कूल में मास्टरी कर पढ़ाया लिखाया. और एक दिन वह इम्तिहान में बढ़िया कर
डिप्टी-मैजिस्ट्रेट हो गया. फिर शादी, शुरू में धूमधाम. तब बच्चे और दिन-प्रतिदिन
घर की लक्ष्मी के बदलते तेवर. आज विक्रम उससे मीलों दूर खडा एक अपरिचित जवान था.
आज उसकी आँखों के सामने से भूत के वे सारे दिन एक दुःस्वप्न मात्र रह गए थे
जिन्हें वह जितनी जल्द हो भूल जाना चाहता था.
शाम घिर आई थी. पार्क ख़ाली हो रहा था. बूढ़ी एक
गहरी साँस लेकर उठ खड़ी हुई और धीरे-धीरे पार्क से बाहर हो गई.
** ** ** **
फिर दूसरे दिन और उसके बाद के भी दिन.
बूढ़ी शाम के वक़्त फिर आम के पेड़ की छाया में बेंच
पर आ बैठी. थोड़ी देर बाद किसी की पगध्वनि से उसका ध्यान टूटा. घूमकर देखा, एक
बूढ़ा, शायद सत्तर साल का होगा, लंबा, हाथ में एक छड़ी लिए, मामूली कुर्ता-पायजामा
में मलबूस, उसी बेंच पर कुछ काफ़ी हटकर बैठ गया.
उसने एक पल बूढ़ी को देखा, फिर दूसरी ओर घूमकर कुछ
ही दूर बैठी एक दम्पति की ओर देखने लगा.
ऐसा लगता था, इस दम्पति की शादी बस अभी-अभी हुई
थी. दोनों की आँखों में बस एक ऐसा सुरूर था कि वे मानो एक-दूसरे में समा जाना चाह
रहे हों.
जवान कह रहा था—जानती हो पम्मी, तुम्हें जो पहली
बार उस कमबख्त़ वकील के घर जलसे में देखा था, मेरा दिल धक्-सा कर उठा था. क्या
कहते हैं अंग्रेज़ी में, भला-सा उसके लिए एक जुमला है, हाँ- अ कैच ऐट द हार्ट.
फिर युवती की आवाज़- हर दफ़ा तुम मद में आ जाते हो.
सामने वो देखो, दो लोग बैठे हैं. क्या कहेंगे सुनकर. छिः.
घूमकर युवक ने बेंच की तरफ़ देखा. फिर घृणा से
होंठ बिचकाकर बोला—सुन लेंगे? माय फुट. अरे, मैं तो सारे ज़माने के सामने तुम्हें
गोद में .... ये ओल्ड फ़ोगीज़. थुह.. कि युवती ने अपनी हथेली से उसका मुँह बन्द कर
दिया.
बूढ़े ने उसकी सारी बातें सुन लीं. बूढ़ी ने पता
नहीं, सुना-समझा या नहीं. लेकिन बूढ़े के चेहरे पर जैसे कोई खोया हुआ, सुदूर पूर्व
के धुंधलके में गुम हुआ वसंत, पलक मारते खिंच गया और फिर बरसात की घनी रात के एक
लम्हे में तब्दील हो गया जब बारिश ज़ोरों की हो रही हो और घुप्प अँधेरा छाया हो.
बूढ़ा अपनी छड़ी की नोक से ज़मीन खोदता रहा, खोदता
रहा. फिर उसने सिर उठाया, बूढ़ी की ओर देखा और फिर कुछ दूर जाते हुए दो अँगरेज़
सैलानियों को देखने लगा. उसने कुछ नहीं कहा. कौन जाने, उस दम्पति के उद्यत
प्रेम-सम्भाषण ने उसके दिल पर झपट्टा मार कौन से दृश्य की माधुरी खींच दी कि उसके
होंठ हिले और ऐसा जान पड़ा कि जैसे उसने थोड़ा, बहुत थोड़ा-सा मुस्करा दिया हो.
लेकिन फिर उसके चेहरे पर घने बादल छा गए....
पत्नी बरसों पहले एक रात—दिसम्बर की कड़ाकेदार
सर्दी की रात में, उसके हाथ में हाथ डाल, चल बसी थी. बाद के दिन, सचमुच भीषण
संघर्ष के थे. उसने अपने दो बेटों की पढ़ाई-लिखाई, भरण-पोषण में जान लगा दी, कहीं
कोर-कसर नहीं रखी. बड़ा लड़का अजय फ़ौज का बड़ा अफ़सर बना और पत्नी को लेकर एकाएक आँख
बदल बैठा. आज वह कहीं सुदूर लेह में पदस्थापित है, पत्नी और बच्चे मेरठ में कहीं
एक आलीशान मकान में रह रहे हैं. उन्हें ग़रीबी से बड़ी घृणा है. सो वे इस बूढ़े
ध्यानचंद को एक बुरा सपना समझते हैं.
बूढ़ा छोटे लड़के किशनचंद के साथ यहीं शहर में रह
रहा है. उसके पास आज पैसे नहीं हैं. जो कुछ था बेटों की पढ़ाई, उनकी नौकरी, उनकी
शादी पर सर्फ़ कर दी. उसके आख़िरी पैसे जब चुक गए, किशनचंद का प्रेम भी टिमटिमा रहे
दीपक की आख़िरी लौ की तरह बुझ गया.
किशनचंद की पत्नी उर्मिला पॉलिश्ड है. वह मीठी
मार करती है. बूढ़ा आज अपने कमरे से निकल बंगले के आउटहाउस में नौकरों की बगल में
डेरा डाले है—डाले क्या है, डलवा दिया गया है बड़ी मीठी चाशनी भरी दुत्कार के साथ.
बूढ़े ने चेहरे पर के पसीने को अपनी मैली रूमाल से
पोछा. फिर एक गहरी साँस लेकर उठ खड़ा हुआ. बूढ़ी कब की जा चुकी थी. वह भी उठा और
धीरे-धीरे पश्चिम की ओर चला गया.
** ** ** **
आज फिर वैसी ही शाम. लेकिन आज बूढ़ी अभी तक नहीं
आई थी. बेंच का कोना ख़ाली था. बूढ़ा और दिनों के बनिस्बत कुछ पहले ही आ गया था.
थोड़ी देर तक वह बैठा रहा. पलटकर कभी बेंच के सूने हिस्से को देख लेता, फिर अपने
में खोया, पार्क के नज़ारे देखने लगता.
बेंच से कुछ फ़ासले पर तीन चार नवजवान हरी घास पर
आकर बैठ गए. शायद कॉलिजी थे.
कुछ परे हट एक दूसरे बेंच पर एक जोड़ी बैठी थी.
लड़की शायद अठारह-उन्नीस की होगी, जवान,यही समझो तेईस चौबीस का रहा होगा. दोनों
शायद छिपकर प्रेम की परिभाषा सीखने, पार्क के अजाने वातावरण में आज पहली बार आए
थे.
बूढ़ा आज कुछ ज़्यादा मायूस था. ढेर सारी स्मृतियाँ
उसके ज़हन के फैले तट पर बेचैन लहरों की तरह थपेड़े ले रही थीं. एक वक़्त था. हाँ,
उसी दिन तो—अजय सेकेण्ड लेफ्टिनेंट हो गया था. उसकी बहाली पूर्वी आसाम रेजिमेंट
में हुई थी. कल वह गुआहाटी के लिए रवाना हो रहा है.
अजय अल्पभाषी है.लेकिन उस दिन गुआहाटी रवाना होने
के लिए जब वह पिटा के पाँव छूने लगा तो सहसा उमड़ आए उच्छ्वास में भर वह फूट पड़ा—बाबूजी,
बाबूजी, आज से आपकी सारी परेशानियाँ बस यहीं पर ख़त्म होती हैं. अब आप आराम से बैठ
पत्र-पत्रिका पढ़ें, मुहल्ले में घूमें, शाम को मैदान में हवाखोरी के लिए निकल
जाएँ. मस्ती से रहें. आज से सारा बोझ मेरे सर.
ध्यानचंद की आँखें छलछला आई थीं. अजय जा चुका था.
और वह फ़ौरन उपजे भाव-तरंगों पर लहराता, उतराता, दूर-दूर तक फैले सुख, वैभव और
शान्ति की विपुल धारा में मस्त अवगाहन करता जाने कितनी देर तक खाट पर बैठा था.
और आज—
सपने के महिमामंडित भवन में जैसे भूचाल आ गया था.
इस भूचाल में उसका भवन खंडित हो, आज चूरमार एक विस्तृत मलबे में परिणत हो गया था
जिसपर वह एकाकी, भ्रमित, भग्न खड़ा था.
उसने गहरी साँस ली. साँस में एक आवाज़ थी, घायल,
चूर, एक लम्बी कराह थी इतनी स्पष्ट कि बेंच के दूसरे छोर पर बैठी बूढ़ी चौंककर उठ
खड़ी हुई और अनायास उसके पास जाकर पूछ बैठी—क्यों, क्या हुआ आपको? तबीयत ज़्यादा
ख़राब हो गई है? रिक्शा बुलवाऊँ?
नहीं, नहीं, कुछ नहीं, सब ठीक है. सब ठीक है.
तबीयत बहुत पहले ही...लेकिन अब? अरे अब तो मैं उस दीवाल की तरह... क्या-क्या बक
गया मैं. अच्छा चलूँ. शाम काफ़ी फैल चुकी है.
और उसने बूढ़ी के चौंके-सकपकाए चेहरे पर एक नज़र
डाल, अपनी छड़ी उठाई और पश्चिम की तरफ़ धीमे क़दमों पर चला गया.
दो दिन बीत गए. ठीक वक़्त पर बूढ़ी आती और बेंच के
अपने नियत कोने पर बैठ चली जाती.
लेकिन वह नहीं आया. तीसरे दिन भी वह नहीं आया.
बूढ़ी बैठी-बैठी उस अपरिचित बूढ़े के लिए चिंता करती रही. कौन है यह भला आदमी?
कौन-सी मौन वेदना लिए वह जी रहा है?
फिर वह सोच में पड़ गई. मेरी ज़िन्दगी में ही क्या
रखा है. दो जून रोटियों के लिए कितने ताने-मेहने, कितनी फटकार रोज़-रोज़ सुननी पड़ती
है. अगर ये मुन्ना-मुन्नी हीन होते अपने छलनी बन गए दिल को लिए मैं और कितनी दूर जा सकती. अभी परसों ही तो. एक तो
पुरानी साड़ी, ज़रा खोंच लग गई और पल्लू पर थोड़ी चिरक लग गई. बहू कितनी देर तक बकती
रही. जब उसने देख लिया कि मेरी आँखों में भय छा गया और वे भींग गईं तभी उसने पिंड
छोड़ा.
वह धीरे-धीरे उठी. पार्क से निकलते उसे शाम की
फैल गई अँधियाली में खो गए बूढ़े पर जाने
बेबूझ की ममता हो आई. बेचारा, कौन जाने वह भी ज़िन्दगी के अपने आख़िरी दिनों
में मेरी तरह ही सताया हुआ कोई टूटा हुआ आदमी हो. उससे पूछा भी नहीं कि साहब, आप
कहाँ रहते हो, क्या तकलीफ़ है आपको.
सोच में डूबी बूढ़ी धीमे पग पर पार्क से निकल पूरब
की तरफ़ जाती लम्बी सड़क में खो गई.
इसके तीन दिन बाद. बूढ़ी आज शाम पार्क में कुछ
सबेरे आ अपने नियत स्थान पर बैठ गई.
बूढ़ा काफ़ी देर कर आया मतलब जब बूढ़ी मन बना चुकी
थी कि अब लौट जाऊँ. जाने क्यों,उसे देखते ही बूढ़ी के चेहरे पर एक बेबूझ की हरियाली
छा गई. कौन है वह उसका? उसे वह जानती तक नहीं, नाम-धाम, पता-वता कुछ भी नहीं.
दूर-दूर तक उससे कोई नाता नहीं. फिर यह अचानक की उपजी बेबूझ-सी ख़ुशी क्यों? जन
पड़ा, जैसे कोई खोई चीज़ अचानक मिल गई हो. एक ढाढ़स, एक संतोष, पलक मारते ख़ुशी की एक
अनबूझी माया उसके चेहरे पर तिर गई. क्यों, किसलिए, इसका इसका कोई भी उत्तर उसके
पास नहीं था. उसे जान पड़ा, कई दिन का रीतापन भर गया हो.
बूढ़ा आया और बैठ गया. लेकिन आज वह बेंच के आख़िरी
छोर पर नहीं बैठा था. आज वह थोड़ा खिसककर, बस बिलकुल ज़रा-सा बूढ़ी की ओर आ गया था.
उसके हाथ में एक किताब थी. कभी वह उसके पन्ने उलटकर अन्यमनस्क भाव से एक-दो सतर पढ़
लेता फिर किताब बन्द कर सुदूर नीले आकाश में जाते एक हवाई जहाज को देखने लगता.
अचानक बेंच के पास से तीन-चार लड़के आसमान की तरफ़
आँख किए दौड़ते आए और चिल्ला-चिल्लाकर एक दूसरे को कहने लगे—देखो,देखो, कोई मामूली
जहाज नहीं है. ख़ासा जेट है. देखते नहीं, कितनी दूरी पर, एकदम जैसे आसमान से सटकर
जा रहा है. और देखो, पीछे धुआँ की एक कैसी मोटी लकीर छोड़ते जा रहा है. देखो, वह
देखो, दूर पूरब से एकदम पश्चिम तक –जैसे लम्बी सड़क बना, पीछे छोड़ते चला जा रहा है.
दूर एक बेंच पर बैठे तीन –चार लोग भी आसमान की
तरफ़ देखने लगे. लोग उठकर खड़े हो गए. सबके चेहरे पर एक अजीब बेबूझ की उत्सुकता छा
गई.
लड़कों में से एक ने चिल्लाकर कहा—यह ज़रूर कोई
पाकिस्तानी जहाज है.
दूसरे ने एकदम जानकार आवाज़ में कहा—नहीं, नहीं,
यह ज़रूर कोई अमरिकन जहाज है. इसकी पैनी, दूर से आती जों-जों सुन रहे हो? साफ़ सुनाई
पड़ती है. यह कोई टोही विमान है.
बूढ़े ने भी अपनी जगह से उठकर खड़ा हो एकबार आकाश
की ओर देखा. बूढ़ी के चेहरे पर हल्की-सी घबड़ाहट की छाया थी.
फिर बूढ़ा बैठ गया लेकिन इस मर्तबा वह बूढ़ी से
थोड़ा क़रीब आ गया था. अबतक लड़के शोर मचाते पार्क के दूसरे सिरे पर भागते जा रहे थे
जैसे सूदूर आकाश में वेग से भागते जहाज का, अनजाने में, बेबूझ उपजे उत्सुक आह्लाद
में पीछा कर रहे हों.
अचानक बूढ़ा अपनी छड़ी की मूठ पर हथेली मलते-मलते
पूछ बैठा—आप कहाँ रहती हैं?
बूढ़ी ने पहले तो जैसे सुना ही नहीं. फिर लगा जैसे
बूढ़े का सवाल पलटकर उसके कान पर बज उठा—आप कहाँ रहती हैं?
बूढ़ी चौंकी, सकपकाई, फिर सहसा उसे मालूम हुआ कि
जैसे उसके दिल के पास से एक शीतल बयार बह कर निकल गई हो.
उसने जब कहा—वहीं, वह जो देख रहे हैं न पूरब की
तरफ़, पहले मकान को छोड़ तीन मकान बाद चौथे दुमंज़िले पर रहती हूँ.
उसे स्वयं अनुभव हुआ उसके उत्तर में जाने कहाँ से
एक तरलता आ गई थी. उसे बूढ़े की आवाज़ में जाने क्यों एक अनजान सामिप्य का बोध हुआ.
लगा कि वह और कुछ पूछता रहे और वह जवाब देती रहे.
फिर बूढ़ी के बिन पूछे बूढ़ा कह चला—और मैं ठीक
पश्चिम की तरफ़ पार्क के बाएँ बाजू पर जो पहला एकतला है,ठीक सड़क के किनारे, उसी में
रहता हूँ.
फिर वह मौन हो गया. बूढ़ी ने जैसे कुछ पूछना चाहा.
उसके होंठ खुले, फिर वह मन-ही-मन कुछ बुदबुदाई और तब जैसे निराशा की हल्की बारिश
उसके मन पर फैल गई.
इसके बाद दोनों चुप हो गए. शाम की अँधियाली बस अब
उतरा ही चाहती थी. बूढ़ा उठा, कुछ कहने को उत्सुक हुआ पर जाने क्यों चुप हो गया.
फिर दो क़दम चलकर वह रुक गया. और तब घूमकर उसने
बूढ़ी की तरफ़ देखा. बोला—अरे नहीं, आप तो पूरब की तरफ़ कुछ फ़ासला तय कर जाएँगी न?
और वह धीमी चाल से पार्क की पश्चिम दिशा की ओर चल
दिया.
बूढ़ी बेंच पर बैठी रही, कुछ लम्हों के लिए. फिर
वह एक गहरी साँस लेकर उठी और पश्चिम की ओर चल दी.
** ** ** **
इसके तीन दिन बाद.
आज बूढ़ी के हाथ में एक छोटी-सी पोटली थी.
उसके बैठते हुए अभी पाँच मिनट ही गुज़रे होंगे कि
बूढ़ा आ गया. आज वह कुछ उत्तेजित दिखता था. उसके हाथ में एक छोटा-सा बैग था.
आज बूढ़ी उसके क़रीब आकर बैठ गई. कुछ देर चुप रहने
के बाद वह बोली—कल से आप मुझे नहीं देख पाएँगे. मैं..मैं.. फिर यहाँ कभी नहीं
आऊँगी.
बूढ़ा कुछ चकित हुआ. पूछा—आख़िर क्यों?
बूढ़ी आज प्रगल्भ हो उठी थी. उसकी आवाज़ में मज़बूती
थी, एक अजीब निश्चय, एक ऐसी दृढ़ता जिससे थोड़ी देर के लिए बूढ़े को विस्मय डाल दिया.
बूढ़े ने दुहराया—आख़िर कौन-सी बात हो गई? कुछ
कहेंगी?
बूढ़ी के चेहरे पर विषाद की प्रगाढ़ रेखा खिंच आई.
साथ ही, विदाई की वह भावना जो उन परिचित लोगों के चेहरे पर आ जाती है जो हमसे
सदा-सदा के लिए जुदा होते हैं. जैसे कहीं किसी होटल में मिले, फिर बाय-बाय किया और
सदा के लिए विस्मृति के दरिया में खो गए.
अपने चरित्र के ठीक विपरीत जैसे बूढ़ी पर किसी
दूसरे व्यक्ति का साया उतर आया हो, वह कहने लगी—यह पोटली देख रहे हैं न? आज मेरी
कुल सम्पत्ति यही है. अब मेरे लिए इस जग में कहीं कुछ नहीं रह गया है. स्थिर से
सोने के लिए जगह भी नहीं. लेकिन मेरी माँ का ह्रदय विशाल है. वह बराबर मुझे अपने
सीने से लगा लेने के लिए तैयार है. मैं उसी की गोद में सदा-सदा के लिए सो रहने के
लिए तैयार होकर आई हूँ.
बूढ़ा हकबका गया. पूछा—क्या कह रही हैं आप? मैंने
बिलकुल नहीं समझा.
बूढ़ी सहसा ठठाकर हँस पड़ी. बूढ़ा डर गया. क्या हो
गया है आज इस बूढ़ी माँ को?
बूढ़ी ने कहा—पार्क के उस पार कुछ दूर, माँ गंगा
अपनी प्यार-भरी बाँह मेरे लिए खोले खड़ी है. कितना सुख और चैन और शान्ति मिलेगी माँ
की गोद में.
बूढ़ा खड़ा हो गया. उसकी आँखें सजल हो आई थीं. उसने
अपना बैग उठा लिया था. अब उसकी आँखों में एक ऐसा सुरूर आ गया था जो किसी दुर्गम पहाड़
पर चढ़ने के पहले एक पर्वतारोही की आँखों में छा गया होता है.
उसने मज़बूत आवाज़ में कहा—आप मेरा यह बैग देख रही
हैं न? जीवन में सबकुछ खो देने के बाद बस एक यही सम्पत्ति मेरे पास बची है. यह
बहुत बड़ी तो नहीं है, लेकिन मेरे सारे प्राण इसमें सिमटे पड़े हैं. इसे मैंने आजतक
अपने ह्रदय में संजोए रखा है. यही मेरा संबल है.
और उसने सहसा बैग खोलकर बूढ़ी को दिखला दिया.
यह मात्र एक धुँधला-सा फोटो था—उसकी पत्नी का.
बैग को बन्द करते हुए उसने कहा—जो कल तक मेरा था,
आज वह दूसरों का हो गया है. अरे, वे तो मुझे पहचानते तक नहीं. आज मैं ज़िन्दगी के
उस नाव को डुबोकर आया हूँ जिसपर दिग्भ्रमित मैं कठिन, तूफ़ान भरी यात्रा करता आया
था.
तो चलो, बूढ़ी माँ, चलो. मुझमें अभी तक पुराना
दम-ख़म है. हम अपनी राह बना लेंगे.
तब उसने बूढ़ी का हाथ थाम लिया. बोला—तो हम चलें?
बूढ़ी विस्मय विमुग्ध उसे देखती रह गई. फिर जैसे
सबकुछ लुटाकर कोई निर्द्वंद, हल्का और बेफ़िक्र महसूस करता है, उसने वेदना और द्वन्द में घिरी अपनी आत्मा में
वैसा ही अनुभव किया.
और वे दोनों पार्क से निकल, दूर जाती सड़क पर खो
गए.
***
पेन्टिंग: सन्दली वर्मा
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