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फणीश्वरनाथ रेणु और ‘रेणु अंक’ से सम्बंधित अमरेन्द्र मिश्र का संस्मरण 'रेणु' गांव

फणीश्वरनाथ रेणु और ‘रेणु अंक’ से सम्बंधित अमरेन्द्र मिश्र का संस्मरण 'रेणु' गांव

 




उनके जीवन काल में मैं 'रेणु' जी से कितनी बार मिला, मुझे ठीक पता नहीं लेकिन उनकी पत्नी श्रीमती पद्मा रेणु से मैं कुल जमा तीन बार मिला और तीनों ही बार वो उतनी ही आत्मीय और स्नेहिल लगीं जिसे याद करते आज भी मेरी आंखें नम हो जाती हैं। उनसे पहली बार मैं 1971 में मिला जब मेरे कॉलेज में एक साहित्यिक उत्सव होने जा रहा था और 'रेणु' जी उसके मुख्य अतिथि थे। काॅलेज प्रबंधन ने मुझे यह जिम्मेदारी सौंपी थी कि मैं औराही हिंगना पहुंच कर 'रेणु' जी को साथ लेकर आऊं। जब मैं उनके दरवाजे पर पहुंचा तो उनके गाड़ीवान कुसुमलाल को दरवाजे पर न पाकर चिंतित हो उठा। गाड़ी के बैल जुगाली कर रहे थे किंतु कुसुमलाल नहीं था। यह कुसुमलाल ही था जो 'रेणु' को बैलगाड़ी द्वारा गांव से सिमराहा स्टेशन और स्टेशन से गांव या शहर ले जाने का काम करता था। मैंने उस टप्पर की ओर देखा जो अभी गाड़ी पर लगा नहीं था। मुझे कुछ चिंता हो आयी कि कहीं 'रेणु' जी बीमार तो नहीं ?



इस बीच दरवाजे पर गुल्ली-डंडा खेल रहे एक बच्चे के द्वारा मैंने अपने आने की सूचना दी और बाहर बैठे उस बरगद के पेड़ को देखता रहा जिसकी लंबी जटायें जमीन तक लोट-पोट हो रही थीं। लगभग आध घंटे बाद पद्मा जी एक बड़े और लंबे गिलास में बेल का शर्बत लिए आयीं। मैंने उन्हें नमन किया तो मुसकरा भर दीं और शर्बत देकर वहीं खड़ी हो गयीं। मैं चाहता था कि वह घर के अंदर चली जायें तो मैं इत्मीनान से इसे ख़त्म करूं और वो शायद सोचती थीं कि मैं जब गिलास ख़त्म करूं तो वह फिर से इसे भर सकें।मैंने शर्बत पीना शुरू किया ही था कि इसी बीच 'रेणु' बाहर निकले। मेरे हाथ से गिलास लेकर पद्मा जी अंदर चली गयीं। मैं कुछ कह न पाया और न तो वही कुछ कह पायीं और नहीं कुछ कहने-सुनने को ही ऐसा कुछ था।



यह एक बेहद संक्षिप्त सांकेतिक मुलाकात थी जिसमें एक आत्मीय सदाशयता थी।



'रेणु' जी के विषय में यह जगत प्रसिद्ध था कि वे कहीं किसी समारोह में जाने से पहले तैयार होने और बनने ठनने में दो-तीन घंटे लगा देते थे। बाहर निकले तो उन्हें देख मैं चकित रह गया। ऊंचा लंबा क़द, रेशम का कुर्ता, सफेद चूड़ीदार पाजामा, सफेद रंग की चप्पलें,कंधे तक झूलते लंबे बाल, सोने की क़लम और सोनेका फ्रेम जड़ा चश्मा... अद्भुत और विलक्षण व्यक्तित्व !



"आप ही आये हैं ? " पूछा उन्होंने।

" जी। " संक्षिप्त उत्तर देकर मैं इंतजार करने लगा कि वे कुछ कहें तभी कुछ बोलूंगा।

" चलिये चलते हैं "-कहा उन्होंने।

" आप अपनी टप्पर गाड़ी से नहीं जायेंगे? "

उन्हें मेरा यह कहना शायद ठीक न लगा हो, घूमते हुए बोले-" नहीं, स्टेशन तक तो पैदल ही चलना पड़ेगा। "

'रेणु' बहुत कम बोलते थे यह हम सब भली-भांति जानते थे इसलिए पैदल चलते हुए वे एकदम चुपचाप चल रहे थे और उनके पीछे-पीछे चलता हुआ मैं उनका अनुसरण कर रहा था।

जब सिमराहा स्टेशन आ गया तब बोले-" आप अपना टिकट ले लीजिए। "



'रेणु' सिमराहा स्टेशन से फारबिसगंज आ गये और वहां से कॉलेज जाने के बजाय जगदीश मिल पहुंच गये।यह एक अवांतर प्रसंग है जिस पर कभी अलग से लिखना संभव होगा। बहरहाल, मैं सीधे पद्मा 'रेणु' के साथ अपनी दूसरी मुलाकात की ओर बढ़ता हूं।



'रेणु' की 'मौत' 11 अप्रैल 1977 के रोज़ हुई थी। यह एक स्वाभाविक मृत्यु न होकर एक खौफ़नाक 'मौत' थी। इसे मैं किसी भी तरह मृत्यु मानने को तैयार नहीं। सन् 1988 में जब गिरिजा कुमार माथुर 'गगनाञ्चल' पत्रिका के संपादक बनकर आये थे तो उन्होंने भी किसी प्रसंग में 'रेणु' की 'मौत' शब्द को हटाकर मृत्यु कर दिया था तब उस वक्त भी मैंने असहमति प्रकट करते उसे 'मौत' रहने दिया था।बाद चलकर जब उन्होंने इसका कारण पूछा था, तब मैंने जवाब दिया था-" 'रेणु' की मृत्यु नहीं,मौत हुई थी - उन्नीस महीने की इमरजेंसी और उन्नीस दिनों की बेहोशी। जेल की अंधेरी काल कोठरी, न धूप, न हवा, न रौशनी और नहीं ईलाज की बेहतर सुविधायें। उन यातनादायक महीनों को याद करते रोंगठें खड़े हो जाते हैं। उनकी 'मौत' के बाद ही मैं दिल्ली आ गया था और पत्रकारिता का सफ़र 1978 से शुरू हुआ। एक फ्रीलांसर का सफरनामा आरंभ हुआ और राजधानी स्थित प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लिखना शुरू हुआ। फ्रीलांसिंग का भी अजीब गणित होता है। आप दो हजार का काम करें तो पैसे एक हजार मिलेंगे। लेकिन स्थिति उतनी बुरी भी नहीं थी। इसके दो कारण थे- पहला यह कि उन दिनों लिखित पत्रकारिता ही एकमात्र विकल्प थी, इतने चैनल्स नहीं थे, एक दूरदर्शन के अलावा और कुछ न था और दूसरा यह कि संघर्ष करने वाले युवा साथियों का साथ था।



एक रोज़ मैं 10 दरियागंज, स्थित 'सारिका' कार्यालय में नंदन जी के पास बैठा 'नवलेखन की चुनौतियां' विषय पर परिचर्चा आयोजित करने संबंधी चर्चा कर रहा था कि इसी बीच बाहर से किसी का फ़ोन आया। नंदन जी ने मुझे रुकने का इशारा किया और बातचीत करने लगे। बात 'रेणु' विशेषांक पर हो रही थी और नंदन जी की बातोें से ऐसा लगता था,मानों यह काम किसी पत्रकार को देने जा रहे हैं। जब उन्होंने बात पूरी कर ली तो मेरी ओर देख कर कहा-"आप भी तो 'रेणु' जी के निकट रहे हैं..." मैं कुछ जवाब देता, कि इस बीच एक और फ़ोन आ गया। बातचीत में कोई व्यवधान पैदा न हो यह सोच मैं स्वयं उनके दफ़्तर से निकल आया और सोचता रहा कि काश ! 'रेणु' अंक का काम मुझे मिल जाता। लेकिन दिल्ली जैसे महानगर में मुझसे सीनियर लेखकों की कमी न थी और मैं बिलकुल नया और अपनी पहचान बनाने की जद्दोजहद कर रहा था। 'गोलचा' सिनेमा तक आते-आते मैंने स्वयं को स्वयं से ही समझाते यह मान लिया कि मुझे तो 'नवलेखन की चुनौतियां' को ही फोकस करना है।




औराही हिंगना से दिल्ली आने तक मेरे पास 'सारिका' के प्रस्तावित 'रेणु - अंक' के लिए पर्याप्त सामग्री थी-'रेणु' का गांव, गांव के लोग, खेत-खलिहान, पद्मा जी के साथ अंतरंग बातचीत, जयशंकर जी का संस्मरणात्मक आलेख, 'ऐसे थे रेणु चाचा', 'रेणु' के जीवित पात्रों का संसार, 'आधे-अधूरे पत्रों की हकीक़त,' रेणु :अंतरंग झलकियां'... इनके साथ कुछ ऐसी सामग्री जो दूसरे रचनाकार - पत्रकार ने भिजवायी थी लेकिन अस्सी प्रतिशत रचनात्मक सहयोग मेरे ख़ुद का ही था। इन रचनाओं को मेरे सामने ही 'नंदन' जी उलट-पुलट कर देखते रहे और कहीं-कहीं भावविह्वल होते रहे। उन्होंने 'रेणु' परिवार और विशेष रूप से पद्मा जी के विषय में पूछा और 'रेणु' के जीवित पात्रों के साथ लिखी मेरी मुलाकात और उनकी फोटो देखते रहे। 'रेणु' के हाथ से लिखे एक पत्र को पढ़ने के बाद वे अपने आंसू रोक नहीं पाये और फूट-फूट कर रो पड़े।



उन दिनों मैं दिल्ली स्थित पालम कालोनी में रहता था और दिल्ली गेट से 770 नंबर की डीटीसी बस सीधा वहां जाती थी। दरियागंज में टाइम्स ऑफ इंडिया की बिल्डिंग में 'सारिका' कार्यालय से निकलकर मैं पैदल दिल्ली गेट आकर पालम जानेवाली बस में बैठ चुका था।



मैंने पद्मा जी को अपने ठीक-ठाक दिल्ली पहुंचने की सूचना एक पत्र के माध्यम से दे दी और सोचता रहा कि जब 'रेणु - अंक' निकल जायेगा और प्रति उन्हें समर्पित करूंगा तब उनका कहा सच होगा कि, " उनके ('रेणु') विषय में अब कुछ अच्छा और सच्चा आ सकेगा...."

लगभग महीने भर के भीतर 'सारिका' पत्रिका का 'रेणु अंक ' छपकर तैयार हो गया। अंक बहुत अच्छा बन पड़ा थाऔर दिल्ली से निकलने वाली दूसरी पत्रिकाओं के मुकाबले कुछ अलग और विशिष्ट बन पड़ा था। ज्यादातर लोगों की जिज्ञासा का विषय यह था कि 'रेणु' ने अपनी कहानियों और उपन्यासों में जिन पात्रों को उठाया है, क्या वे पात्र वैसे ही हैं जैसा कि उन्होंने दिखाया था ? उनकी जिज्ञासा को शांत करने के लिए हमारा यह प्रयास सकारात्मक रहा कि उन पात्रों से सचित्र बातचीत करके हमने उनकी जिज्ञासा शांत की।उनमें से कुछ पात्र तो दिवंगत हो गये थे लेकिन कुछ चलते-फिरते मिले थे,जिनकी तलाश में हमने औराही-हिंगना,मेरीगंज,बिराटनगर तथा नेपाल तक की यात्रा की थी।उन जीवित चलते-फिरते पात्रों से हमने दूसरे अन्य सवालों के साथ-साथ यह महत्वपूर्ण सवाल भी पूछा था कि 'रेणु ' ने अपने उपन्यासों में आपको जैसा दिखाया हैक्या वह सच है ? और क्या आप उससे संतुष्ट हैं ?और सबने यही कहा कि वह सौ फीसद सही है और वे पूर्णतया संतुष्ट हैं। और तो और 'मैला आंचल' के बहरू चेथरू ने यहां तक कहा कि," उसे नहीं पता कि 'रेणु ' ने उसके विषय में क्या लिखा है लेकिन बच्चों ने जब उपन्यास पढ़कर बताया तो लगा कि उन्होंने जो लिखा है वह सच है।बहरा चेथरू वास्तव में बहरा था और वह बिलकुल वैसा ही. था जैसा कि 'रेणु' ने उसके विषय में लिखा है। इन जीवित पात्रों के साथ बातचीत और उनके गांव-घर की अद्भुत छवियां,खेत-खलिहानों का संसार-यह सब 'सारिका' के अलावा कहीं भी दुर्लभ था।इस दॄष्टि से यह अंक अनुपम बन पड़ा था।



उन दिनों न तो इतने अधिक न्यूज चैनल थे,न मेल सर्विस थी,न मोबाइल था,नहीं हमारे आस-पास इतना बड़ा सूचना तंत्र ही था इसलिये ममता और संवेदना जीवित थी।विश्वास बचा था।यही कारण है कि हम बचे थे।'रेणु' अंक के छप कर आने के बाद नंदन जी ने मुझे अपने चैंबर में बुलाया। उस अंक की प्रति मुझे देते हुए शुभकामनाएं दीं। " बहुत-बहुत बधाई!"



मेरी आँखों में आँसू थे जिनमें पद्मा जी और 'रेणु' जी के झिलमिलाते बिंबों के अलावा और कुछ भी नहीं था। नंदन जी मेरी तरफ़ अपलक देख रहे थे। पूछा-"क्या सोच रहे हैं आप ?"

नंदन जी ने पूछा था-"क्या सोच रहे हैं ? "



"यही कि जब दिल्ली के लिए चला था तो पद्मा जी ने कहा था कि उपलब्ध सामग्री के आधार पर अंक ऐसा निकलना चाहिए कि वह विश्वसनीय लगे। उन्होंने यह भी कहा था कि 'रेणु' के जाने के बाद इन दिनों पत्र पत्रिकाएँ जो छाप रही हैं उनमें से अधिकांश गलत और झूठ है और इसीलिए ऐसी पत्रिकाओं पर वह कोई ध्यान न देते हुए कहीं रख देती हैं। कई पत्रिकाओं को तो वे उलट-पलट कर भी नहीं देखतीं।अब जबकि यह अंक छप कर आ गया है तो इसके द्वारा निश्चित तौर पर पर हम उनके इस विश्वास की रक्षा कर पायेंगे।"



"ठीक कह रहे हैं आप। मैं भी कुछ ऐसा ही सोच रहा हूँ। एक और बात मेरे मन में आ रही है।क्यों न आप इस अंक की पांच प्रतियाँ अपने साथ लेकर उनके गांव चले जायें। दूसरे अन्य लोगों को हम इसकी प्रतियाँ डाक से भिजवा देंगे।"

"उनकी भी प्रतियाँ हम डाक से भिजवा सकते हैं।"मैंने कहा।

"लेकिन यह मुझे अच्छा लगेगा अगर आप स्वयं चले जाते। मैं देखता हूं कि इस अंक के लिए आपका पारिश्रमिक कितना बना है।" यह कहकर वे अपने चैंबर से बाहर निकल गए।

इस बीच मैंने अंक पर सरसरी निगाह डाली। मुझे लगा, मानो मुझे कोई खोई हुई खुशी मिल गयी हो।जयप्रकाश नारायण, बीपी कोईराला,निर्मल वर्मा, पद्मा और लतिका रेणु, रवींद्र राजहंस,जयशंकर, रामकृष्ण, कन्हैयालाल किंगर,रामधारीसिंह दिवाकर, विजय अग्रवाल रजनीश, गीता पुष्प शाॅ,अवध नारायण मुद्गल जैसे लेखकों के रचनात्मक अवदान से सुसज्जित यह अंक मेरे लिए एक अधूरे सपने के पूरा होने के समान था।अद्भुत और अनुपम !



इस बीच नंदन जी अपने चैंबर में आए,कहा-"आपका कुल पारिश्रमिक पंद्रह सौ बनता है। इसके अतिरिक्त अलग से पाँच सौ रुपए आप फोटोग्राफरों को दे सकते हैं जिसकी हमें प्राप्ति रसीद चाहिए होगी। इसके साथ-साथ आपको एक और काम करना है।

आप इसमें से ही पांच सौ रुपये पद्मा जी को दे दीजियेगा।लेकिन इसके लिए आप पर कोई दवाब नहीं है।"

मैं सोचता रहा-अजीब बात है। दोनों बातें खुद ही कह रहे हैं।



"मैं एक फ्रीलांसर हूं। मेरे पास कोई नौकरी नहीं है। अगर कहीं कोई नौकरी होती तो पूरे पंद्रह सौ मैं उनके चरणों पर समर्पित कर देता। क्या बेनेट कोलमैन अपनी तरफ़ से उपहार स्वरूप उन्हें कुछ रकम नहीं दे सकता ?"

वे हल्के तल्ख हो आये।कहा-"कह तो दिया है आपको,कि आपके ऊपर कोई दवाब नहीं है। कंपनी वाले इन बातों को समझ नहीं पायेंगे।न हो तो आप कल ही चले जाएँ।"



"मेरे आने-जाने का खर्च क्या कंपनी दे सकेगी?"

"कोशिश करते हैं...लेकिन उम्मीद कम ही है।कल आकर आप पता कर लीजिये। कल जरूर आइए। परसों मैं कानपुर निकल जाऊंगा।"

"आप कानपुर निकल जाइये।मैं चार दिनों बाद आ सकूंगा।मुझे मैडम शीला संधू जी से मिल कर ही रेणु गांव जाना होगा। पिछली बार भी उनसे मिलने के बाद ही मुझे जाना था लेकिन उनसे मिल नहीं पाया था। इस बार भी अगर बिना मिले चला गया तो वे नाराज हो जायेंगी। गुस्सा भी कर सकती हैं। अभी वे भी दिल्ली से बाहर हैं और चार दिन बाद ही लौट सकेंगी।"



इस बीच दिल्ली में 'सारिका' का 'रेणु' विशेषांक वितरित होना शुरू हो चुका था और इस महत कार्य में मेरा नाम बिलकुल नया था। जाहिर है कि मुझे एक पहचान मिल रही थी और दूसरी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं से जरूरी असाइनमेंट मिलने की शुरुआत हो चुकी थी।

एक सप्ताह के बाद मुझे 'सारिका' से पारिश्रमिक मिला और मैंने अपनी यात्रा की तैयारी शुरू की।मेरे पास फिर से एक सफरी झोला और छोटा सा बैग था। और साथ में नंदन जी का पद्मा जी के लिए सप्रेम अभिवादन भी था।मुझे कंपनी ने ट्रेन से आने-जाने का किराया नहीं दिया और मैंने इसे बहुत महत्वपूर्ण भी नहीं माना।

***
सम्पर्क: अमरेंद्र मिश्र , सम्पादक, समहुत, 4/516, पार्क एवेन्यू, वैशाली, ग़ाज़ियाबाद-201010

                    पेन्टिंग: सन्दली वर्मा    


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