अनीश अंकुर का लेख -- लियोनार्दो
दा विंची : चित्रकार, चिंतक व क्रांतिकारी
लियोनार्दो दा विंची : चित्रकार, चिंतक
व क्रांतिकारी
लियोनार्दो दा विंची की
मृत्यु हुए पाँच शताब्दियाँ बीत चुकी है। मानव चिन्तन व संस्कृति के क्षेत्र के
इस विराट शख्सियत का महत्व आज भी वैसा ही बना हुआ है। लियोनार्दो ने चित्रकला को
उसके मध्युगीन दायरे से बाहर निकाल कला में क्रांति का अंजाम दिया। कई विशेषज्ञ
मानते हैं विश्व इतिहास में लियानार्दो दा विंची से बड़ा कलाकार आज तक नहीं हुआ। आज
भी विशेषज्ञों को हैरत होती है कि लियानार्दो दा विंची ने अपने चित्रों में वो
जादुई प्रभाव कैसे हासिल किया। उनकी कला सौंदर्य की दृष्टि उन्नत होने के साथ-साथ
गूढ़ दार्शनिक अर्थ लिये होती।
बुर्जुआ वर्ग का
अभ्युदय और कला
मानव इतिहास
में कई दफे ऐसा वक्त आता है जो बुनियादी परिवर्तन लाने वाला निर्णायक मोड़ साबित
होता है। सोलहवीं शताब्दी का प्रारम्भिक वर्ष ऐसे ही मोड़ लाने वाली शताब्दी थी।
यूरोप में सामन्तवाद का अवसान और बुर्जुआ वर्ग का उभार हो रहा था। आदतें, अवधारणाएँ, और परम्पराएँ जो युगों-युगों से स्वीकृत
समझी जाती थी। सहसा उनपर प्रश्नचिन्ह लगना शुरू हो गया, उन्हें
चुनौती दी जाने लगी। इतिहास के रंगमंच में बुर्जआजी आने के साथ ही नयी कला
अभिव्यक्तियाँ तथा साहित्यिक शैलियाँ प्रकट होने लगी। इसे रेनेसां का काल कहा जाता
है।
इस रेनेसां काल के बारे
में फ्रेडरिक एँगेल्स ने अपने मशहूर किताब ‘‘ डायलेक्टिक्स ऑफ़
नेचर’ में लियोनार्डो दा विंची सहित अन्य लोगों के विषय में
चर्चा करते हुए कहा ‘‘ मानव जाति के अपने अनुभव में घटित
सबसे महानतम प्रगतिशील क्रांति थी। यह विशाल शख्सियतों का समय था जिसने चिन्तन,
भावना और चरित्र में बड़े-बड़े लोगों को पैदा किया। ऐसा शायद ही कोई
महत्वपूर्ण व्यक्ति न था जिसने खूब यात्रायें न की हों, चार-पाँच
भाषाएँ न जानता हो और कई क्षेत्रों में एक साथ महारथ न हासिल की हो। लियोनार्डो दा
विंची न सिर्फ महान चित्रकार थे बल्कि महान गणितज्ञ, मैकेनिशियन,
इंजीनियर के बल्कि भौतिकी के विभिन्न शाखाएँ में नयी-नयी खोजों के
लिए भी उनके कृतज्ञ होना चाहिए। ’’
रेनेंसा का प्रभाव
रेनेंसा के प्रभाव में
पन्द्रहवी शताब्दी से ही इटली नये मिजाज का केन्द्र बनता जा रहा था। मनुष्य ने
ईश्वर के बरक्स अपनी सत्ता, स्वायत्ता की दावेदारी करना शुरू कर
दिया। कला में ‘इंडीविडुलिज्म’ का
विकास होता है, व्यक्ति केन्द्र में आते हैं। यह निजी
पोट्रेट का युग माना गया। इस प्रकार नये युग का स्वभाव बना ‘व्यक्ति
का युग’।
इस युग को
व्यक्त करने का माध्यम बना ऑयल पेंटिंग (तैल चित्र)। बर्जुआजी के उभार के साथ ऑयल
पेंटिंग का गहरा सम्बन्ध था। ऑयल पेंटिंग (तैल चित्र) की परिघटना के सम्बन्ध
सुप्रसिद्द कला समीक्षक जॉन बर्जर ने अपनी चर्चित कृति ‘way of seeing’ में
कहा ‘‘ऑयल पेंटिंग ने देखने का एक नया तरीका इजाद किया जो
सम्पत्ति और विनिमय द्वारा निर्धारित होता था और अपनी चाक्षुश (टपेनंस) अभिव्यक्ति
ऑयल पेंटिंग के माध्यम से पायी थी। इसे किसी दूसरे चाक्षुश कला माध्यम द्वारा
प्रकट भी नहीं किया जा सकता था। ऑयल पेंटिग ने हमारी आभास की दुनिया पर ठीक वही
प्रभाव डाला जो पूँजी ने सामाजिक सम्बन्धों पर डाला था।’’ लियानार्दो
ने पहली बार ऑयल पेंटिंग की तकनीक का पहली बार प्रारम्भ किया। ऑयल पेंटिंग से
उन्हें रंगों का बड़ा रेंज उपलब्ध हो गया। लियानार्दो के बाद ऑयल पेंटिंग का पूरे
यूरोप में इस्तेमाल होने लगा था।
फ्लोरेंस में
1452 में जन्मे
लियानार्दो दा विंची टुस्कन शहर में अपने वकील पिता की अवैध संतान थे। लियानार्दो
ने अपने कला जीवन का प्रारम्भ मूर्तिकार-चित्रकार वेराशियो के वर्कशॉप से किया।
उन्हें औपचारिक शिक्षा ने होने के कारण उन्हें लैटिन बहुत कम आती थी जो उन दिनों
आवश्यक समझा जाता था। पर गणित पर उनकी गहरी पकड़ थी। प्रकाश सम्बन्धी अपने ज्ञान का
उपयोग उसने कला व इंजीनियरिंग दोनों के लिए किया। लियोनार्डो ने उस समय पहाड़ों को
जोड़ने वाली सुरंगों, नदियों के बीच नहरों, पक्षियों के उड़ने की गतियों से अभिभूत होकर उसने उड़ने वाली मशीन का का
डिजायन किया। उनके द्वारा बनाए गये असंख्य रेखाचित्रों में हम हेलीकॉप्टर के
रेखाचित्र बनाए यहाँ तक कि रानी के शौचालय की भी रूपरेखा बनायी।
लेकिन बाद के दिनों में
इटली के शासकों से उन्हें गंभीर दिक्कत होने लगी। 1476 में
उन्पर होमासेक्सुअल होने का आरोप लगा। यह बहुत एक बेहद गंभीर आरोप था। इस आरोप में
जिन्दा जलाकर मार डालने की सजा का प्रावधान था। उन्हें दो महीनों की जेल भी हुई।
लेकिन अपने रसूखदार मित्रों के कारण वे बच गये। उनपर बनी फिल्म ‘‘द दा विंची कोड’’ में उन्हें एक ‘अल्हड़ होमोसेक्सुअल’ के रूप में दर्शाया गया। कई
लोगों का अनुमान है कि ये आरोप उनसे चिढ़ने- जलने वाले कलाकारों द्वारा साजिश के
तहत लगाया गया हो। लियानार्दो को ये अहसास हुआ कि फ्लोरेंस उनके लिए खतरनाक जगह
है। 1481 में उन्होंने शहर छोड़ मिलान की ओर रूख किया।
मिलान में
मिलान तब एक
एक समृद्ध व्यापारिक केन्द्र था, फ्लोरेंस के मुकाबले अधिक
बुर्जआ व व्यावहारिक भी। उस समय शहर में अपराधी किस्म के ऐसे धनी खानदानी लुडोविको
स्फोर्जा का शासन था जो बेहद सख्त माना जाता था। लेकिन वो अन्दर से असुरक्षित भी
महसूस किया करता था। उसके ठीक पहले उसके पूर्वज की अपने ही दरबारियों द्वारा 37
बार चाकू से घोंपकर हत्या कर दी गयी थी। लियानार्दो ने अपने नये
संरक्षक का विश्वास जीतने के लिए उसकी कलात्मक रूचि नहीं बल्कि उसके युद्ध के साजो
सामान यथा टैंक, राइफल, ऑटोमेटिक
बंदूकें आदि के डिजायन के बारे में बताया।
लियानार्दो
अपने संरक्षक की प्रतापी होने आडम्बरपूर्ण आकांक्षा को सहलाने हेतु उसकी विशाल
अश्वारोही मूर्ति की योजना बनायी। यह मूर्ति घोड़े की सबसे बड़ी मूर्ति के रूप में
जानी जाने वाली थी। संरक्षक की सरपरस्ती के बावजूद लियोनार्दो दा विंची का हृदय
किसी पर निर्भरता को स्वीकार नहीं कर पाता था। लगातार दबाव, शिकायतों
के बावजूद लियोनार्दो दा विंची ने अपने संरक्षक को 17 सालों
तक इंतजार कराया और तब भी घाड़े का सिर्फ टेराकोटा मॉडल (मिट्टी की प्रतिमा) ही बन
पाया। अपनी कलात्मक स्वतन्त्रता को जाहिर का लियोनार्दो का अपना अनूठा तरीका था,
जल्दबाजी से इंकार।
इतने लम्बे वक्त के
बावजूद इस मूर्ति की किस्मत में पूरा होना नहीं बदा था। मिलान शहर पर फ़्रांस ने
हमला कर दिया। लुई चैदहवें की फ्रांसीसी सेना ने मिलान शहर में प्रवेश किया उसे
लियानार्दो की बनायी गयी उस विशाल टेराकोटा मॉडल पर नजर पड़ी। वो मॉडल सेना के
अभ्यास का स्थल बन गया। साथ उसे मूर्ति को ढ़ालने के लिए वहाँ रखे गये 60 टन
लोहे को गलाकर तोप ढ़ाल दिया गया। इस बार पुनः लियानार्दो को भागना पड़ा। उनका अगला
ठिकाना था रोम।
रोम में: माइकल एजेंलो
और लियानार्दो
रोम का शासक
उस वक्त था क्रूर व रंगीन मिजाजों वाला सेसारे बोर्जिया। उसने अपना राजनीतिक
कैरियर अपने भाई व बहनोई की हत्या कर प्रारम्भ किया था। लियानार्दो ने किसी प्रकार
उसकी भी इनायत प्राप्त कर ली। रोम में लियानार्दो की कला परवान चढ़ी। लियानार्दो ने
अपने मॉडल यथार्थ जीवन से चुने, जैसे बाजारों व वेश्यालयों
से। अपनी प्रख्यात कृति ‘द लास्ट सपर’ पर
काम करते हुए उसने शहर के कई मॉडलों का स्केच तैयार किया। लियोनार्दो को तलाश थी
एक ऐसा चेहरा जो ईसा मसीह का चेहरा उसमें नजर आए। वे दो साल तक यहूदी बस्तियों में
घूमते रहे। दो वर्षों के बाद वो व्यक्ति मिला। ‘द लास्ट सपर’
को 1498 में तैयार हुआ। राजा देखकर चकित रह
गया।
लेकिन उनकी इस
प्रतिभा ने उनके कई प्रतिद्वंद्वी भी पैदा किये। शासकों व राजाओं से कृपा प्राप्त
करने की होड़ ठीक वैसी ही साजिशों व षडयंत्रों को जन्म दे रही थी जो उस युग के
राजनीतिक जीवन के लक्षण थे। लियानार्दो को युवा चित्रकारों से कड़ी प्रतिस्पर्धा का
सामना करना पड़ा। विशेषकर माइकेल ऐंजेलो से। माइकेल एँजेलो, लियानार्दो
से बहुत चिढ़ता व नफरत करता था। माइकल एँजेंलो के साथ इटली का रेनेसां उदात्त
पराकाष्ठा पर पहुँच रहा था। माइकल एँजेंलो धार्मिक प्रेरणाओं से निर्देर्षित हो
रहे थे जबकि लियानार्दो इटली की रेनेंसा के असली संतान थे जिसने धर्म से कतई
प्रेरणा नहीं ली। माइकल एँजेंलो ने चर्च की इच्छानुसार काम किया। फलतः माइकेल
ऐंजेला और राफेल जैसे चित्रकारों की सितारा बुलन्द जबकि लियोनार्दो का गर्दिश में
जाने लगा।
लियानार्दो को दूसरी चुनौती चर्च से भी मिलने लगी। भौतिकवादी
(मैटेरियलिस्ट) ढ़ंग से सोचने वाले लियानार्दो को जैसे स्वतन्त्र चिन्तन रोम के
शक्तिशाली पदारियों को रास नहीं आ रहा था। वे मुश्किल में फँसते जा रहे थे। उनका
अगला ठिकाना बना फ्रांस। लियानार्दो दा विंची कहा करते ‘‘मैंने ईश्वर व मनुष्य जाति दोनों को कुपित किया है क्योंकि मेरे कार्य उस
ऊँचाई तक नहीं पहुँच पाए जहाँ उन्हें पहुँचना चाहिए था।’’ वे
अपने कृतियों को अधूरा छोड़ दिया करते। विश्वप्रसिद्द चित्र ‘मोनालिसा’
को भी कई लोग अधूरी कृति ही मानते हैं।
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पेन्टिंग: सन्दली वर्मा
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