राकेश रंजन की तीन कविताएँ
यह पहला
मौका नहीं था
क्या तुम
कासिम हो ?
मंदिर के
बाहर मैंने पूछा
तो अचानक
वह चौंक गया
देखने
लगा मुझे अवाक
बारह-तेरह
साल का लड़का
जो बेच
रहा था धूप-दीप
और अगरबत्तियाँ
क्या तुम
सलीम दरजी के बेटे हो ?
मैंने
फिर पूछा
आप कैसे
जानते हैं ?
धीरे से,
सकपकाकर पूछा उसने
तुम्हारे
चेहरे से लगा मुझे
तुम्हारे
अंदाज से
मैंने
कहा और देखा
उसके
चेहरे पर गहरी आशंका थी
वह खड़ा
था पसीने से लथपथ
रंगे हाथ
पकड़ में आए किसी चोर-सा
अपने लोग
पहचान में आ जाते हैं बाबू
मैंने
उसका कंधा थपथपाया
चाहे वे
कहीं रहें, कुछ करें
आँखें
पहचान लेती हैं अपना अजीज
मैंने
उसका माथा सहलाया और कहा
बेटाजान
क्या
हिंदू क्या मुसलमान
प्यार से
बड़ा और मेहनत से अलग
कौन-सा
दीन कौन-सा ईमान
मैंने
देखा, वह बिलकुल आश्वस्त नहीं था
उसकी
आँखों में भरा था खौफ
मुझे माफ
कर दें
उसने
धीरे से कहा
यह गलती
फिर नहीं होगी, वह रोता हुआ बोला
मैं कुछ
कहता इससे पहले वह भागा
जैसे
पुलिस की गिरफ्त से छूटकर भागा हो मुजरिम
अपनी
आशंका से
मेरे
संवेदन
और
सद्विचार की धज्जियाँ उड़ाता हुआ
वह भागा
और भीड़
में गायब हो गया
यह पहला
मौका नहीं था
जब इस
प्रकार हतप्रभ था मैं
जब नहीं
समझा गया था भरोसे के काबिल
वक्त ही
ऐसा है कि हर वक्त
हर कहीं
देखा जाता हूँ भय और संशय की नजर से
जानी-पहचानी
चीजों
और राहों
के बीच से गुजरता हूँ
असमंजस
से भरा हुआ
जो सबसे
अपना है, सबसे अजीज
उससे भी
पूछते सहमता हूँ
क्या
तुम्हीं हो वह आदमी ?
यह पहला
मौका नहीं था मित्रो
यह पहली
पराजय नहीं थी।
***
मुझे
क्षमा करें
मैं और
सुबह आता
पर देर
हो गई
मैं चला
गया था
शाम के
परिंदों के साथ
जंगलों,
पहाड़ों के पास
रातभर
रहा सुनता पत्तों पर ओस का टपकना
पेड़ों
के साथ
खड़ा रहा
निविड़ अंधकार में
तारों की
डूबती निगाहें
देखती
रहीं मुझे अशब्द
प्राणों
की काँपती पुकारें और विकल पंख-ध्वनियाँ
जगाए
रहीं रातभर
निगलती
रहीं मुझको भूखी छायाएँ
लौटते
समय
मेरे
रस्ते में फैला था
बकरी की
आँखों-सा पीला सन्नाटा
जले हुए
डैने छितराए
सारस-सा
गिरा था सवेरा
सवेरे से
पहले
फेंक गया
था कोई जन्मजात बच्चा
शिशिर के
जलाशय में फूलकर
सफेद हुआ
था उसका फूल-सा शरीर
उसकी ही
बंद मुट्ठियों में मैं फँसा रह गया था कुछ देर, मुझे क्षमा करें
मैं और
सुबह आता
पर देर
हो गई।
***
गाय
जब भी
कोई उत्सव होता
बाबा उसे
सजाते थे
कभी-कभी
तो उसे पूजते
औ' आरती
दिखाते थे
अक्सर वह
अपने खूँटे से
बँधकर,
डरकर रहती थी
जाने
क्या-क्या दुख सहती थी
नहीं कभी
कुछ कहती थी
गम खाकर
भी रह लेती थी
आँसू पी
भी जी लेती
अगर
कलेजा फटता उसका
चुपके-छुपके
सी लेती
आज मगर
कर्तव्यमूढ़-से
बाबा ने
बेबस उसको
सौंप
दिया कंपित हाथों से
एक अजाने
मानुस को
चली गई
वह देह सिकोड़े
मुँह
लटकाए रोती-सी
संझा के
बोझल पलछिन में
दृग से
ओझल होती-सी
कहाँ गई
वह चिर दुखियारी
बस्ती या
वीराने में
हरे-भरे-से
चरागाह में
या फिर
बूचड़खाने में?
***
सम्पर्क:
राकेश रंजन, सहायक प्राध्यापक, विश्वविद्यालय हिंदी विभाग,
बी.आर.ए.बिहारविश्वविद्यालय,मुजफ्फरपुर।
मो. 8002577406
ईमेल : rakeshranjan74@gmail.com
पेन्टिंग: सन्दली वर्मा.
सुंदर कविता है।पहली बार आपको पढ़ा है। आपके शब्दों के जादू को दिल ने महसूस किया।
जवाब देंहटाएंहार्दिक शुक्रिया!💐
हटाएंसंदली की बनाई तसवीर के क्या कहने!
जवाब देंहटाएंबहुत मोहक, सुंदर और सर्जनात्मक!
शुक्रिया.
हटाएंशुक्रिया.
हटाएं♥️♥️♥️♥️♥️♥️♥️
जवाब देंहटाएं🍀🙏🙏🙏🙏🙏🍀
💐💐💐💐💐
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