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योगेन्द्र कृष्णा की तीन कविताएँ

योगेन्द्र कृष्णा की तीन कविताएँ 

 

 

गिरने की जगह

 

मैं ढूंढना चाहता था इस पृथ्वी पर

बेशुमार गिरे हुए बेहिस बेहया लोगों के बीच

अपने लिए भी गिरने की थोड़ी जगह

 

जहां भी देखा

जिंदा लोगों के बीच हर जगह

गिरने की होड़ मची थी

कि कौन किससे ज्यादा गिर सकता है

भर गई थीं पृथ्वी की सारी खाली-भरी जगहें

यहां तक कि नदियां पहाड़ जंगल और घाटियां

मंदिरों मस्जिदों गिरीजाघरों स्कूलों मदरसों न्यायालयों

संसद सभाओं को जाती सड़कें पगडंडियां

और मैं लड़खड़ाता मुंह बाए खड़ा रह गया था

गिरे हुए लोगों के बीच मुंतजिर उन पंक्तियों में

जिनका गिरना अभी बाकी था

 

आसमान तक उठती उन सीढ़ियों की तलाश में

वो गिरे थे आत्महीन

अपनी ही बेइंतहा महत्वाकांक्षाओं के बोझ से

आजू-बाजू गिरे अपने ही पड़ोसियों परिजनों के प्रति

हिकारत, घृणा और जुगुप्सा से शरसार

वो गिरे थे दलदल में फंसी ऊंचाइयों की तलाश में

नई सभ्यता की पतनशील खेप के लिए

बजबजाते कीचड़ में लिथड़ कर

जीवन संवारने का जादुई कोई वैश्विक मंत्र उच्चारते

 

फिर भी दुखांत किसी ग्रीक नाटक का दृश्य नहीं था यह

नहीं था यह स्वर्ग से आदम और ईव का

पृथ्वी पर गिर चुकी कौमों के बीच आलिंगन-बद्ध गिरना

नहीं था यह आदमी और आदमी के बीच

जमी बर्फ का पिघल कर गिरना

ही दो मुल्कों के बीच दिन--दिन

ऊंची होती दीवार का अचानक टूट कर गिरना

 

और ही नाज़ी गैस चेंबर में

गैस प्रक्षेपण के बाद का भयावह कोई दृश्य था यह

जहां आत्मीयता और उम्मीद की कुछ बारीक चिंदियां

तमाम बर्बरताओं-क्रूरताओं के बावजूद

अंधेरे में जुगनुओं की तरह शेष थीं

 

ठसाठस भरे गैस चेंबरों में

जगह नहीं छोड़ी थी नाजियों ने

उन्हें गिरने की

लोग मर कर भी खड़े थे

एक-दूसरे का हाथ थामे

गले में बांह डाले

जैसे जीवन में वैसे ही मर कर

एक-दूसरे का संबल बन

आने वाले समय को ज़रूरी

उम्मीद और भरोसे का गोपन

कोई सुराग सौंपते

 

जिंदा कौमें जहां-जहां गिरी थीं

बंजर पड़ गई थी धरती

सूख गई थीं नदियां जल गए थे जंगल

पहाड़ों से लौट गई थीं सारी ऋतुएं

घाटियों ने ओढ़ ली थीं चुप्पियां

अब नहीं गूंजती थीं वहां

संकट में पुकारे गए शब्दों की प्रतिध्वनियां

 

ऐसे ही माकूल बंजरों ने जगह दी होगी

दुनियाभर के तानाशाहों को

बेरोकटोक फैलने-पसरने की

 

लेकिन

मर कर भी जो खड़े रहे

एक-दूसरे का हाथ थामे

चूमते हुए एक-दूसरे की लाशें

उनके पक्ष में अचानक खिल उठे थे

मुरझा रहे दुनिया के फूल सारे

 

चमत्कार की तरह उगे इन फूलों ने ही

प्रेत की तरह पीछा किया होगा तानाशाहों का

और गहन अवसाद में हिटलरों ने की होंगी आत्महत्याएं

               ***

 

आदिम किसी लिपि की तरह

 

पिता के साथ गुज़र गई थीं

बहुत सारी पुरानी चीजें

रह गई थीं बस उनसे जुड़ी

कुछ धूमिल स्मृतियां

और हम अकसर उन चीजों की तलाश में

आते-जाते रहे कबाड़ियों की दूकान पर

शहर के कुछ बहुत मामूली लोग भी

वहां आते-जाते रहे जैसे

अपनी खोई हुई चीजों की तलाश में

 

पहचानने लगा था शहर का हर कबाड़ीवाला मुझे

एक दिन आखिर नहीं रहा गया उससे

हिम्मत जुटाई और नजदीक आकर कहने लगा मुझसे

इतनी पुरानी चीजों की तलाश में

अगर इस तरह आते रहे आप हरदम

तो एक दिन आपको ढूंढते हुए भी

लोगबाग कहीं आने लगेंगे मेरे ही पास

तब मैं क्या जवाब दूंगा उन्हें जिनकी आंखों में

अपने पुरखों के प्रति ऐसा ही अनुराग होगा

जैसा कि आपकी आंखों में देखता हूं हर दिन

 

मैंने कहा वो पुरानी डायरी देना जरा

उसने कहा यह तो मैं बहुत दिनों से ढो रहा हूं

कल ही तो सड़-गल रही चीजों के साथ

मेरे समझदार बच्चे इसे भी जला देने वाले थे

वह तो मैंने उठा लिया इसे कि वो इसे स्कूल ले जाकर

पूछे अपने कड़क जानकार गूगल मास्टर से

कि बता क्या लिखा है इसमें

बहुत सारी अबूझ लिपियों की जानकारी है उसे

जवाब नहीं देने पर पीटता है

हमारे बच्चों को अकसर...

 

डायरी मैंने जैसे ही अपने हाथों में लिया

मुझे लगा जैसे मैंने अपने पिता को

कंधे पर बिठा लिया होऊं

कैथी में लिखे अपने पिता के हस्ताक्षर

मैं पहचानता था

वह मेरे पिता का हस्ताक्षर नहीं था

किसी और के पिता का था

लेकिन था वह पिता ही किसी का

जिसे कंधे पर बिठा मैं उतना ही खुश

अपने घर ले आया था

 

पुराने शहर के खंडहरों से उठती

या हवा के साथ गूंजती

पूर्वजों की एकाश्म आवाजों के बीच

कितना कठिन है

किसी एक आवाज को पकड़ कर

उसमें खुद को ढूंढ पाना

 

डायरी उलट-पुलट कर देखा

हर पिता की लिखावट

हर पिता की कहानी

हर पिता की गंध

कलम की स्याही और कागज का रंग

बिलकुल एक-सा क्यों था

यह सिर्फ कबाड़ीवाला जानता था

 

पिता को मुकम्मल समझने के लिए

मुझे जाना होगा उसी के पास

बार-बार शायद...

 

दर्ज होना होगा मुझे फटी-पुरानी डायरी के

पीले पड़ गए पन्नों पर आदिम किसी लिपि की तरह

           ***

        अभी-अभी

 

समुद्र की चट्टानों पर बैठा गुमसुम

अभी-अभी मैं खुद से बाहर निकल

खुद को ढूंढ रहा हूं

 

प्रचंड लहरों और शांत चट्टानों

के रिश्तों के बारे सोच रहा हूं

 

अभी-अभी समुद्र से बाहर छिटक

सामने तट पर निस्संग और क्लांत

पड़ा एक पत्थर भी शायद

उन लहरों के बारे में ही

सोच रहा है

 

जिसने उसपर कितने ही वार किए

तटों से बार-बार टकराया

इतना सुंदर रूप यह धूसर पाया

फिर अपनी ही विराट काया से

छूट कर जो बाहर आया...

 

अभी-अभी उठ कर मैंने

उसे अपने हाथों का

कोमल स्पर्श दिया है

 

उठा कर चूमता हूं उसको

जैसे कि चूमता है

कोई खुद को

खुद से बाहर निकल

  ***

सम्पर्क: योगेंद्र कृष्णा, 2/800, शास्त्रीनगर, पटना : 800023. मो. 9835070164.

पेन्टिंग: सन्दली वर्मा.   

 

 


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