आलोकधन्वा की तीन
कविताएँ
किसने बचाया मेरी
आत्मा को
किसने बचाया मेरी
आत्मा को
दो कौड़ी की
मोमबत्तियों की रोशनी न्र
दो-चार उबले हुए
आलुओं ने बचाया
सूखे पत्तों की आग
और मिट्टी के
बर्तनों ने बचाया
पुआल के बिस्तर ने
और पुआल के रंग के
चाँद ने
नुक्कड़ नाटक के
आवारा जैसे छोकरे
चिथड़े पहने
सच के गौरव जैसा
कंठ-स्वर
कड़ा मुक़ाबला करते
मोड़-मोड़ पर
दंगाइयों को खदेड़ते
वीर बाँके
हिन्दुस्तानियों से सीखा रंगमंच
भीगे वस्त्र-सा विकल
अभिनय
दादी के लिए रोटी
पकाने का चिमटा लेकर
ईदगाह के मेले से
लौट रहे नन्हे हामिद ने
और छह दिसंबर के बाद
फरवरी आते-आते
जंगली बेर ने
इन सब ने बचाया मेरी
आत्मा को
***
फ़र्क
देखना
एक दिन मैं भी उसी
तरह शाम में
कुछ देर के लिए
घूमने निकलूँगा
और वापस नहीं आ
पाऊँगा
समझा जाएगा कि
मैंने ख़ुद को ख़त्म
कर लिया !
नहीं, यह असम्भव
होगा
बिलकुल झूठ होगा !
तुम भी मत यक़ीन कर
लेना
तुम जो मुझे थोड़ा
जानते हो !
तुम
जो अनगिनत बार
मेरी क़मीज़ के ऊपर ऐन
दिल के पास
लाल झंडे का बैज लगा
चुके हो
तुम भी मत यक़ीन कर
लेना I
अपने कमज़ोर से कमज़ोर
क्षण में भी
तुम यह मत सोचना
कि मेरे दिमाग़ की
मौत हुई होगी !
नहीं, कभी नहीं !
हत्याएँ और
आत्महत्याएँ एक जैसी रख दी गई हैं
इस आधे अँधेरे समय
में I
फ़र्क कर लेना साथी !
***
भूखा बच्चा
मैं उसका मस्तिष्क
नहीं
मैं महज़ उस भूखे
बच्चे की आँत हूँ I
उस बच्चे की आत्मा
गिर रही है ओस की तरह
जिस तरह बाँस के
अंखुवे बंजर में तड़कते हुए ऊपर उठ रहे हैं
उस बच्चे का सिर हर
सप्ताह हवा में ऊपर उठ रहा है
उस बच्चे के हाथ हर
मिनट हवा में लम्बे हो रहे हैं
उस बच्चे की त्वचा
कड़ी हो रही है
हर मिनट जैसे
पत्तियाँ कड़ी हो रही हैं
और
उस बच्चे की पीठ
चौड़ी हो रही है जैसे कि घास
और
घास हर मिनट पूरे
वायुमंडल में प्रवेश कर रही है
लेकिन उस बच्चे के
रक्तसंचार में
मैं केवल एक जलाकार
हूँ
केवल एक जलउत्तेजना
हूँ I
***
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