संतोष दीक्षित की कहानी-- बब्बे
बब्बे
सारी करामात उसी पाज़ी बब्बे की थी। इतनी उमर हो गई... अभी तक बचपना नहीं गया
उसका...! अभी भी इतना खुराफ़ाती, चुहलबाज और नटकिया है... कि बस...! आखिर एक वह भी तो हैं! खुद को कितना मोड़ा, ढ़ाला, समेटा...! भला कोई ऐसे ही ‘सी’ क्लास की सरकारी
नौकरी में टिक सकता है? बहुत लचीलापन होना चाहिए व्यक्तित्व में... और सहनशीलता भी...। अब तो कुछ और
भी ज़्यादा।
इधर अचानक ही समय कितना बदला है! पूरा सचिवालय चकाचक हो रहा है। उन जैसे
बाबुओं के बैठने की व्यवस्था ‘क्यूबिकल’ हो गई है। अफसरों के
कमरे भव्य दिखने लगे हैं। कर्मी लोग रिटायर हो रहे हैं और नई बहाली बहुत कम हो रही
है। नतीजा यह कि कर्मियों की संख्या कम होती जा रही है, जबकि कम्प्यूटर तेजी से बढ़ रहे हैं। संविदा पर
नियुक्त एक कम्प्यूटर ऑपरेटर कई कई शाखाओं के बाबुओं की रिपोर्ट तैयार कर दे रहा
है। अफसरों को अब एक मामूली पत्र भी कम्प्यूटर से टाइप किया हुआ चाहिए। बात बात पर
नेट, वेबसाइट और गुगल की
चर्चा। इन्हीं में दुनिया का सारा ज्ञान निचुड़कर समा चुका है। सुनते हैं, दो-तीन वर्ष में सारा काम पेपरलेस हो जाएगा। डरे
सहमे से प्रदीप बाबू ने भी कम्प्यूटर का कामचलाऊ ज्ञान अपने बच्चों से प्राप्त कर
लिया है। ना करो तो भद्द पिट जाने के साथ साथ वेतन या वेतन वृद्धि रूक जाने का
खतरा। नित्य ही ऐसा हो रहा है किसी न किसी के साथ। अब कौन झेले रोज रोज की यह
अतिरिक्त ज़लालत। सो उन्होंने बच्चों के साथ बच्चा बनकर कुछ अर्जित कर ही लिया।
थैंक्स बब्बे...! तुम कई जगह कठिन चीजों को सुगम भी बना देते हो।
अक्सर उनके जीवन में घटित होने वाली किसी भी करामाती घटना के पीछे बब्बे का ही
हाथ होता। कब वह उचककर, सर बाहर निकाल, शुरू हो जाता, वह समझ ही नहीं पाते। बस ठगे से खड़े रह जाते और
बाद में उन्हें खूब खूब लज्जित भी होना पड़ता। आइंदा से वह इस बात को लेकर सतर्क
रहते कि कम अज़ कम ड्यूटी पीरियड में बब्बे अपनी कोई करामात न दिखा पाए।
लेकिन कभी कभी चूक जाते वह। उस दिन भी ऐसा ही कुछ हुआ। पिछला डायरेक्टर एकदम
से मुडियल और तपाकी किस्म का अधिकारी था। दरअसल ढ़ोर डंगर वाले इस विभाग का डायरेक्टर
होना एक उच्च प्रशासनिक अधिकारी के लिए दंडात्मक किस्म का तबादला ही माना जाता रहा
है। ज़ाहिर है, जो भी इस पद पर आता, उसका मूड उखड़ा उखड़ा ही रहता और नतीजतन निदेशालय
के तमाम कर्मियों को उनका बाउंसर झेलते रहना पड़ता। लेकिन उस दिन वह ‘एलिस इन वन्डरलैंड’ जैसे अचम्भे में थे। अक्सर तने चेहरे और देखते
ही काट खाने वाले अंदाज़ में पेश आने वाले अफ़सर को उन्होंने कुर्सी पर एकदम सहज भाव
से मुस्कुराते, झूमते पाया। बाहर
प्रचण्ड गर्मी थी और अन्दर कमरे में शीत ताप नियंत्रण वाली शीतलता। इस शीतल
वातावरण को रूम ‘फ्रेषनर’ की गन्ध और भी मादक बना रही थी। ...और तिसपर से पार्श्व
में बजते संगीत की मीठी धुन। ठिठके और अचम्भित से खड़े प्रदीप बाबू को वह दिन याद आ
गया जब अपने बचपन के दिनों में, एक चांदनी रात में, अपने चाचा को उन्हांने यही गीत गुनगुनाते हुए पाया था। तब यह गीत रेडियो के
मनचाहे गीत कार्यक्रम में अक्सरहां सुनाई पड़ जाता था।
मुकेश और सुमन कल्याणपुर की आवाज...।
तभी अफ़सर को हल्का सा कुछ खटका महसूस हुआ और वह अचानक ही सतर्क हो उठा। प्रदीप
बाबू उतनी तेजी से स्वयं को पलट न सके। लिहाजा थोड़ा झूमने और आनन्द लेने की मुद्रा
में रंगे हाथ पकड़े गए। कांख में फाइल दाबे खड़े एक बाबूनुमा प्राणी से उन जैसे उच्च
श्रेणी के आला अधिकारी को ऐसी उम्मीद नहीं थी। गाना अबतक समाप्त हो चुका था। अफ़सर
ने बटन दबाकर म्यूजिक सिस्टम बन्द कर दिया।
‘‘कैसा गाना था बड़ा बाबू...?’’
‘‘बस क्या कहें सर!’’ ‘‘थोड़ा गड़बड़ाते हुए से बोले प्रदीप बाबू- ’’वर्षों बाद आज अचानक सुनने को मिला यह गाना आपकी
कृपा से...। वरना ऐसे गाने अब भला कोई पसन्द ही कहां करता है सर...!’’
यह बब्बे था जो प्रदीप बाबू के मुंह से उचरने
लगा था। उसका कहा यह आखिरी वाक्य अफ़सर के अहम को थोड़ा बहुत सहला गया। वह अचानक ही
उदारतापूर्वक मुस्कुरा उठे। फिर किचिंत व्यंग्य से पूछा उन्होंने, ‘‘पता भी है बड़ा बाबू, यह किस फिल्म का गीत है?’’
‘‘जी हां सर!’’ और बब्बे ने बचपन के मनचाहे गीत से याद किया, अबतक रटा रटाया, पूरा संवाद दुहरा दिया। केवल फिल्म का नाम ही
नहीं, संगीतकार, गीतकार और गायक का नाम भी बता दिया।
सुनते ही साहेब के मुंह से एक अजीब सी चीख
निकलते निकलते रह गई।
वह दिन और उसके बाद से साहेब के तबादले का
दिन... क्या मज़ाल जो साहेब प्रदीप बाबू पर जरा सा झल्ला भी जाएं।
सारे बाबू और अफ़सर उस चैम्बर से मुंह लटकाए
निकलते। जबकि उन दिनों पूरे निदेशालय में एक ही चर्चा थी कि प्रदीप बाबू फाइल पर
जो लिख दें, सो सही। कुछ ग़लत भी
है तो उसे साहेब की कलम खुद ही ठीक कर देगी। ऐसी हो गई थी अपनी शाखा में मामूली सी
भी कूबत ना रखने वाले प्रदीप बाबू की शख़्सियत। उनकी शाखा के दोनों सहायक, जो पहले बात बात पर उनकी खिल्ली उड़ाते थे, अब उनसे थोड़े सहमे सहमे से रहते।
और तब आगे के सात महीने बड़े ही चैन से कटे थे
प्रदीप बाबू के। इसी बीच बब्बे को भी ताक झांक और हस्तक्षेप का पूरा मौका मिलता।
आखि़र उसी की वजह कर तो यह थोड़ा सा चैन या सहूलियत नसीब हो पायी थी उन्हें। और इसी
दौरान जाड़े की एक नर्म धूप वाले छुट्टी के दिन खा-पीकर अखबार और पत्रिकाओं के साथ
औंधे पड़े प्रदीप बाबू ने अचानक बेटी को आवाज दी और उसे झटपट एक सादा पन्ना और कलम
ले आने की ताकीद की।
बब्बे अब अपने करिश्माई अंदाज में शुरू हो चुका था। शुरू हुआ तो फिर उस काम को
अंजाम तक पहुंचाने में भिड़ गया। ऐसा वह आज से पच्चीस वर्ष पहले तक खूब किया करता
था। चाहे किसी अख़बार की वर्ग पहेली हो, या चित्र देखकर शीर्षक लिखो प्रतियोगिता या फिर संपादक के नाम पत्र या समस्या
पूर्ति वाली काव्य प्रतियोगिता। वह जब एक बार काम शुरू कर देता तो फिर उसे आखिरी
अंज़ाम तक पहुंचाकर यानि कि पोस्टकार्ड या लिफ़ाफे़ को लेटर बॉक्स में डालकर ही दम
लेता। काम की समाप्ति तक एक जुनून सा छाया रहता उसपर।
आज भी प्रदीप बाबू अपने कमरे की बत्तियां जलाकर पूरी तनमयता से क़ाग़ज़ परलिखते/काटते/लिखते
जा रहे थे।
दरअसल अपने नाम को कहीं भी छपा हुआ देखना बब्बे को बहुत ही सुहाता था। इससे
उसके भीतर एक बहुत ही मजबूत किस्म का आत्मविश्वास पनप उठता।
इसी ज़ुनून के चलते मन नहीं लगने के बावजूद बब्बे पढ़ने लिखने के मामले में
परिश्रम करता। अपने केरियर के संबंध में उसकी एक ही इच्छा थी और वह यह कि किसी ऐसी
नौकरी में जाए, जहां उसके नाम की
तख्ती लगे। यानि कि अफसर बने वह। इसके लिए यू0पी0एस0सी0, पी0सी0एस0 से लेकर बैंक अफसरों की परीक्षाओं में वह
लगातार बैठा। मगर कभी चुना नहीं जा सका। इसी बीच सचिवालय सहायक की परीक्षा का
फार्म भी भरा था उसने। संयोग से इसमें चुन लिये गए प्रदीप बाबू। और सच पूछिए तो
यहीं जाकर एक ठौर मिला उनके जीवन को...। वरना बब्बे की महत्वाकांक्षा ने तो उन्हें
कहीं का नहीं छोड़ा था।
यह भी एक सच है कि सचिवालय सहायक परीक्षा के फार्म भरने का निर्णय एक थके हारे
और भविष्य के लिए किसी स्थायी ठिकाने की सिद्दत से तलाश करते एक हताश बेरोजगार
युवा का निर्णय था और ठीक यहीं से प्रदीप शुक्ला नाम के एक ऐसे शख़्स का जन्म हुआ
जो अबतक स्कूल कॉलेज की बहियों और प्रमाण पत्रों वगैरह में तो अंकित था। पर
व्यावहारिक जीवन में हर जगह वह बब्बे के नाम से जाना जाता था। बब्बे, प्रदीप शुक्ला के बचपन का, घर का, पुकारू नाम था।
गाँव में तो शायद ही कोई जानता होगा कि उनका नाम वास्तव में प्रदीप है। वहां
तो वह अब भी बब्बे हैं या बब्बे भैया, बब्बे काका वगैरह वगैरह...।
शहर में जहां पिता की नौकरी थी और जहां वह मैट्रिक के उपरान्त पढ़ने आया था, केवल घर में ही उसे बब्बे पुकारा जाता। पड़ोस में
भी मात्र दो-तीन घरों तक ही यह नाम प्रचलित हो पाया।
आगे हर जगह धीरे धीरे प्रदीप नाम ही पसरता चला गया। प्रदीप शुक्ला की नौकरी
लगी। फिर पारम्परिक रीति रिवाज से उनका विवाह हुआ। और फिर देखते ही देखते वह
प्रदीप बाबू बने और अब बड़ा बाबू। अपने अस्तित्व और इस नाते व्यक्तिगत हितों के लिए
दिन रात घुलने वाला एक धर्मभीरू, कायर शहरी। राज सुबह एक घण्टे भगवान की सेवा में केवल इस डर से लगे रहते कि
अफ़सरों के कोप से बचे रहें। बाल बच्चों का निवाला न छिने और उनकी तरक्की होती रहे।
यह एक निष्कलुष किस्म की पूजा होती। बिल्कुल निजी। किसी भी तरह के आडम्बर और
दिखावे से मुक्त। फिर भी दिन भर में कई कई बार झिड़कियां खाते। अमूमन सुबह नौ बजे
घर छोड़ने और शाम के सात के बाद ही घर लौट आ पाने वाले प्रदीप बाबू एक सुखी शहरी भी
थे। एक मध्यवर्गीय परिवार का तमाम वैभव उनके घर लोटता रहता। इसी सुख और वैभव की
क़ीमत चुकाने वह मन मारकर भी रोज दफ़्तर में जाकर बैठ जाते। यद्यपि कि बब्बे को इस
तरह की ज़िन्दगी सख़्त नापसंद थी और वह अक्सर कुछ अलग कर दिखाने को उकसाता रहता।
लेकिन प्रदीप बाबू वक़्त की कमी और मानसिक तनाव का रोना रोते हुए अपनी लीक पर से
जरा भी टस से मश नहीं होते। ज़िन्दगी कुछ इसी अंदाज़ में घिसटती जा रही थी कि...।
... इसलिये तो कहता हूँ कि सारी खुराफ़ात उसी हुलचुलिए बब्बे की
थी। यह उसी की क़ारस्तानी थी कि अनायास ही सुर्खियों में आ गए थे प्रदीप बाबू। जैसे
अचानक से आए किसी बवंडर ने ज़मीन पर पड़ी अपनी तक़दीर को रो रही किसी तस्वीर को अचानक
आसमान की बुलंदियों तक पहुंचा दिया हो। प्रदीप बाबू की अबतक की घटनाविहीन रही
जिन्दगी में प्रसिद्धि कुछ इसी तरह से एक ऐतिहासिक घटना के रूप में प्रकट हुई थी।
जैसे एक भूचाल आए और फिर सर्वत्र वह चर्चा के केन्द्र में आ जाए, ऐसी ही कुछ चर्चा के हकदार बन बैठे थे प्रदीप
बाबू यक ब यक। हमेशा कुत्तों की जम्हाइयों से आबाद रहने वाले उनके दरवाजे़ पर आज
दस जनों की भीड़ जमा थी। सभी के हाथ में कोई न कोई अख़बार। और आज के सारे अख़बारों
के मुखपृष्ठ पर प्रदीप बाबू।
अमूमन किसी सरकारी सेवक के लिए ऐसे सुअवसर तभी आ पाते हैं, जब उसने कोई साहसिक घोटाला किया हो या फिर कोई
संगीन जुर्म। लेकिन प्रदीप बाबू के मामले में देखा जाए तो यह असाधारण में
असाधारणतम घटना थी। इस घटना के रोमांच ने उन्हें स्तब्ध कर दिया था। जबकि बब्बे था
कि भयानक रूप से उछलकूद मचाए हुए था। उसे खुद इस बात का जरा भी इल्म नहीं था कि
एकदम से खेल खेल में चन्द महीने पहले जिस लिफ़ाफे़ को लेटर बॉक्स में गिराकर वह
लगभग भूल चुका था, एक दिन वह किसी
आकर्षक आतिशबाजी के रूप में इस तरह फूट पड़ेगा कि लोगों की आंखें चौंधियां जाएंगीं।
पूरे मुहल्ले में कुछ ऐसी ही स्थिति थी। हर गली में उनका नाम। हर चौराहे पर उनकी
चर्चा। पड़ोस में रहने वाले बैंक मैनेजर, जो उनको देखकर भी नहीं देखने जैसा प्रपंच रचने में माहिर थे, आज सपत्नीक उनके घर उन्हें बधाई देने सबसे पहले
पधारे थे। इतना सम्मान तो बीस तीस वर्षों तक लगातार कलम घिसते रहने वाले कवियों को
भी नसीब नहीं होता, जितना कि आज प्रदीप
बाबू ने केवल एक गीत रचकर अर्जित कर लिया था। वह रातोंरात असाधारण प्रतिभा के धनी
और राज्य के गौरव करार दिये जा चुके थे।
दरहक़ीकत हुआ यह था कि एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी ने एक प्रतियोगिता आयोजित करायी
थी। कुछ चुनिन्दा राज्यों में अपने उत्पादों को पहली बार लांच करने के वास्ते उन
राज्यों के निवासियों से अपने राज्य के उपर एक गीत लिखकर भेजने की प्रतियोगिता का
विज्ञापन उस दिन के सभी अखबारों में दिया था। इस इश्तेहार को पढ़कर बब्बेजी मचल उठे
थे और उसने राज्य के ऐतिहासिक, भौगोलिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के साथ साथ राज्य की पर्यटन संबंधी तमाम
खूबियों को जोड़कर एक प्रचारनुमा गीत तैयार किया। और इसे संयोग कहिए या प्रदीप बाबू
का भाग्य या फिर बब्बे की मेहनत का प्रतिफल... कि यही गीत प्रथम करार दे दिया गया।
दो लाख के नकद पुरस्कार के साथ। आज के सभी अख़बारों के मुख्य पृष्ठ पर ख़बर के साथ
साथ भीतर के पृष्ठ पर उनका परिचय एक ओर छपा था तो दूसरी ओर वह गीत।
सारी रात सो नहीं पाए थे ठीक से प्रदीप बाबू। रात आठ बजे के करीब ही उन्हें एक
अख़बार के दफ़्तर से फ़ोन पर यह सूचना मिली। फिर तो धड़ाधड़ फोन आने लगे सारे अख़बारों
से। प्रदीप बाबू से तो यह सब सम्हलने वाला मामला भी नहीं था। वह तो बब्बे था कि झटपट
उसने उनका एक शानदार परिचय बना लिया। वह खुद चकित थे कि उनमें इतने सारे ऐसे गुण
वास्तव में हैं, जिसका आकलन करना तो
दूर अनुमान तक उन्हें नहीं था।
‘‘मुझसे बेहतर आपको कौन जानता है?लेकिन आप अक्सर मेरी सुनते ही नहीं’’- आज बब्बे उनपर हावी था।
‘‘तुम्हारी सुनता तो आजतक बेरोजगार भटकता रहता।’’
सुनकर बब्बे ने मुंह बिचकाया। ‘‘यह भी तो हो सकता था कि आप शहर के सबसे सफल व्यापारी होते या फिर कोई बड़े
प्रोफेसर या पत्रकार।’’
आधी रात से उपर तक घर में ज़श्न मनता रहा। बब्बे ने कहा कि भई अब आज तो मुझसे
भिण्डी नहीं खाई जाएगी! इशारा मात्र मिलना था और उनका बेटा झट स्कूटर निकाल चिकेन, कोल्डड्रिंक और रसगुल्ले वगैरह ले आया। आंख अभी
लगी ही थी कि खटपट शुरू हो गई घर में। अभी चार ही बजे थे और उनका बेटा शहर के सारे
अखबार खरीद लाने को निकल पड़ा था। सुबह पांच बजे तक सारे अख़बार उनके बिस्तर पर
छितराए पड़े थे और उनकी पत्नी, बेटी सभी उसी समय से मोबाइल पर व्यस्त हो चले थे।
उस दिन दफ़्तर से छुट्टी ले ली थी प्रदीप बाबू ने। एक तो सुबह से ही मिलने
जुलने वालों की भीड़। गहमागहमी। दूसरे कि आज ही तीन तीन चैनेल वालों को इंटरव्यू के
वास्ते आने की स्वीकृति दे दी थी उन्होंने। साक्षात्कार में पूछे जाने वाले
संभावित प्रश्नों की एक सूची बना दी थी बब्बे ने। सारे ज़वाब उन्हें रटा भी दिए गए
थे। ज़वाब सब ऐसे विलक्षण थे कि हतप्रभ थे प्रदीप बाबू। यह कैसी खोपड़ी पायी है
बब्बे ने। वह इस मौके को पूरी तरह भुनाने में लगा था। जैसे कि एक प्रश्न का जवाब
था- ‘‘गीत मैं इसलिए इतना
अच्छा लिख गया क्योंकि मुझे प्रसिद्धि से ज़्यादा पैसे की दरकार थी... अपनी बिटिया
की शादी के वास्ते। इसी चिन्ता ने मुझसे यह नायाब काम करवा लिया।’’
इसके बाद तो गजबे हुआ भाई... गजब! अगले दिन के अखबार में भी सुर्खियां बटोरते
पाये गए प्रदीप बाबू। दरअसल राज्य के साहित्य प्रेमी और कला मर्मज्ञ मुख्य मंत्री
(सभी अख़बारों ने इसी एक वाक्य का प्रयोग किया था) को प्रदीप बाबू की रचना इतनी
पसन्द आयी कि उन्होंने राज्य सरकार की ओर से भी उन्हें दो लाख का पुरस्कार घोषित कर
दिया। इसके साथ यह ऐलान भी कि सभी राजकीय समारोहों की शुरूआत इसी गीत के गायन के
साथ की जाएगी। उन्होंने उस कम्पनी के अधिकारियों को भी धन्यवाद दिया जिनकी वजह से
राज्य में इतना बड़ा ‘टैलेंट हंट’ सम्भव हो सका था।
उस दिन कार्यालय बड़ी शान के साथ पहुंचे प्रदीप बाबू। आत्मविश्वास से लवरेज
उनका चेहरा दिपदिपा रहा था। अभिमान से गर्दन थोड़ी अकड़ी हुई थी। सचिवालय में घुसे
ही थे कि बधाईयों का तांता लग गया। घण्टा भर लग गया उन्हें अपनी कुर्सी तक पहुंचने
में। सारी बधाईयां रूपयों को लेकर थी। थोड़े दूर वाले मिठाई मांग रहे थे, जबकि नजदीकी पार्टी। अभी यह सब हो हल्ला चल ही
रहा था कि निदेशक का बुलावा आ पहुंचा उनके लिए।
दरवाजे़ को ‘पुश’ कर वह भीतर धुसे। निदेशक ने ‘‘आइए... आइए...’’ कि खिल्ली उड़ाने वाली शैली में उनका स्वागत करते
हुए कहा- ‘‘आजकल तो आपके जलवे
हैं प्रदीप बाबू! सी0एम0 तक आपकी नोटिश ले रहे हैं।’’
इधर उधर की कुछ हल्की फुल्की बातों के दरम्यान निदेशक महोदय ने उनके साथ चाय
पी। उनके कई सवाल तो इतने चुभते से थे कि बब्बे उन्हें उनका माकूल जवाब देना चाह
रहा था। जैसे एक सवाल यह कि क्या विभाग से अनुमति ली गई थी कविता लिखने और प्रतियोगिता
में भाग लेने के सम्बन्ध में? बब्बे इसका ज़वाब संविधान में वर्णित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के
साथ देना चाहता था। लेकिन प्रदीप बाबू ने ठान लिया था जो हुआ सो हुआ, अब नौकरी के मामले में वह बब्बे का हस्तक्षेप
बर्दाश्त नहीं करेंगे। यथासंभव स्वयं ही निर्णय लेंगे। यही वजह थी कि वह हां...
हूं... करते टालते रहे बिग बॉस को।
चाय का प्याला उठाकर जब चपरासी कक्ष से चला गया, निदेशक ने अचानक से तेवर बदलते हुए पूछा- ‘‘तब...! ...क्या सोचा है...? नौकरी करनी है न...?? ...या कविता ही करनी है आगे! मेरा तो सुझाव होगा कि
अब तुम कविता ही करो। वैसे भी नौकरी हर कोई कर सकता है... कविता सब किसी के बस की
नहीं...!’’
बब्बे अचानक ही उत्तेजित हो उठा था यह सवाल सुनकर। उसकी इच्छा हुई कि एक भद्दी
गाली देते हुए उनसे यह प्रतिप्रश्न करे कि क्या दरमाहा देगा वह कविता करने के एवज़
में! लेकिन फिर प्रदीप बाबू द्वारा शांत रहने की ताकीद सुनकर उसने एक लम्बा और
सारगर्भित ज़वाब सुझाया उन्हें। कबीर के उदाहरण के साथ। लेकिन प्रदीप बाबू तो बस
भौंचक मुंह ही ताकते रह गए थे उस युवा प्रशासनिक अधिकारी का। उन्होंने जोरदार
शब्दों में बब्बे को हड़काते हुए कहाय ‘‘क्यों भैंस के आगे बीन बजाने पर तुले हो? सवाल गेहूं का है, गुलाब का नहीं। बेहतर होगा तुम अपना मुंह बन्द ही रखो, वरना मुंह का निवाला छिनते देर न लगेगी।’’ यह सब उनके मन में चल रहा था और प्रत्यक्षतः वह
नजर नीची किये चुपचाप बैठे हुए थे। कुछ क्षण सोचकर उन्होंने कहा- ‘‘कविता से पेट थोड़े न भरता है सर! पेट के लिए तो
नौकरी करनी ही है। दिस वाज ए शीयर चांस सर! ऐसी प्रतियोगिता थोड़े न रोज रोज होती
है।’’
‘‘ठीक है, जाइए... अपना काम
निबटाइए... और ध्यान रहे कि किसी भी तरह की लापरवाही मैं बर्दाश्त करने वाला नहीं।’’
‘‘सर... सर...!
‘‘सर... सर... सर...!!
बाहर निकल राहत की सांस ली प्रदीप बाबू ने। बहुत अच्छे से निबटाया उन्होंने सब
कुछ। बब्बे को क्या अकल? केवल जोश और ज़ुनून से सारे काम नहीं बनते। अगर बब्बे की बातों में आ गए होते
तो आज यह भेड़िया उन्हें लहूलुहान किये बगैर छोड़ने वाला थोड़े न था।
‘‘चाय कैसी थी सर?’’
कुर्सी पर उनके बैठते ही एक सहायक पूछ बैठा। प्रदीप बाबू के अपनी शाखा में
पहुंचने से पहले वहां यह ख़बर आ चुकी थी कि निदेषक ने आज उन्हें बिठाकर चाय पिलायी
है।
‘‘तो आप लोगों को खबर लग ही गई!’’ जबरिया मुस्करा उठे प्रदीप बाबू। ज़्यादा कुछ नहीं बोले।
लंच के बाद सचिव महोदय के यहां से बुलावा आया। अब अपने धड़कते दिल के साथ वह
सचिव महोदय के कक्ष में थे। अन्दर दो अन्य अधिकारी भी थे। सचिव महोदय के समकक्ष
अन्य विभागों के सचिव।
‘‘इनको पहचानिए भाई आप लोग...?’’ - उन्हें बैठने का इशारा करते हुए सचिव महोदय ने पहेलीनुमा प्रश्न
किया। वह हंस रहे थे जो उनके अच्छे मूड में होने का परिचायक था।
किसी ने भी उन्हें पहचानने से इन्कार किया।
‘‘बताइए, आपलोग इन्हें नहीं
पहचान पाए! ...जबकि दो दिनों से इनकी तस्वीर लगातार अखबारों में छप रही है। आज तो
सी0एम0 ने भी पुरस्कार देने की घोषणा की है।’’ ‘‘अच्छा ... अच्छा ... पढ़ा है मैंने न्यूज... सम शुक्ला...
ब्राह्मिन... इजंट इट?’’
‘‘जी सर...!’’- कहते हुए हाथ जोड़कर खड़े हो गए प्रदीप बाबू।
उनकी विनम्रता उन तीनों अधिकारियों को अत्यधिक भायी। इसके बाद तो अगले दस मिनट
तक उन्हीं पर केन्द्रित चर्चा चलती रही। इसी बीच एक पेय पदार्थ भी पऱोसा गया।
प्रदीप बाबू जीवन में पहली दफ़ा इसका स्वाद ले रहे थे।
‘‘पता है आपको, यह उसी कम्पनी का
प्रोडक्ट है जिसने आपको पुरस्कृत किया है।’’
‘‘नहीं सर... नहीं पता!’’
सचिव बड़ी जोर से हंसने लगे। ‘‘आपलोगों को पता ही क्या रहता है... मेरा मतलब है आप कविता लिखने वालों को...? इस कम्पनी की डायरेक्ट इंट्री सी0एम0 हाउस तक है। पिछले तीन महीने से अपना कई प्रोडक्ट कम्पनी हमलोगों के फ़्रिज़
में रखवा जाती है। बिल्कुल मुफ्त। इससे कम्पनी का काफ़ी प्रचार हो रहा है। अब देखिए
कि सी0एम0 भी इसमें कैसे इन्वॉल्व हैं! उन्होंने सरकार की
ओर से भी पुरस्कार घोषित कर दिया। उनका क्या गया? कुछ नहीं! लेकिन कम्पनी का करोड़ों का प्रचार तो
मुफ्त में हो गया। अब राजकीय समारोहों में यह गीत बजेगा। जब जब यह गीत बजेगा, लोगों को कम्पनी का नाम भी याद आ जाएगा। हो सकता
है कि इसके पीछे भी कोई बड़ी डीलिंग हुई हो।’’
प्रदीप बाबू भकुआ बने बैठे रहे। अन्य दो अधिकारियों ने सचिव महोदय की प्रशंसा
में पुल बांध दिए - ‘‘आप भी न शर्मा सर...
एकदम से दूरदृष्टि रखते हैं... तभी न सी0एम0 आपको मेन स्ट्रीम
वाले विभाग में नहीं डालना चाहते!’’
शाम में विभाग के अराजपत्रित कर्मचारियों ने मिलकर प्रदीप बाबू का अभिनन्दन
समारोह रखा था। इसके पीछे अराजपत्रित संघ के एक नेता का हाथ था जो इसी बहाने तमाम
कर्मचारियों को गोलबंद कर, और मौके पर मौजूद अधिकारियों से इस खुशनुमा अवसर पर उनके हित में कुछ मांग
मनवाकर, अपनी नेतागिरी
चमकाना चाह रहा था।
अभिनन्दन समारोह में हॉल आधा भी नहीं भर सका था। अभी किसी वरीय अधिकारी की
विदाई या अभिनन्दन जैसा कुछ कार्यक्रम होता तो इसी हॉल में लोग खड़े हुए भी नजर
आते।
‘‘कविया का अभिनन्दन है, क्या करोगे जाकर।’’
इस तरह के जुमले विभाग के गलियारों में खूब उछले थे उस दिन। इसके अलावे एक
गोपनीय सत्य से भी कई लोग पूर्व में वाक़िफ हो चुके थे। वह सत्य तब खुलकर प्रकट हुआ
जब वादा करके भी समारोह में न सचिव आए ना ही निदेशक। दोनों ही किसी ज़रूरी मीटिंग
के नाम पर अपने अपने कक्ष से अनुपस्थित थे। काफी इन्तज़ार के बाद जब कार्यालय बन्द
होने का समय करीब आने लगा, एक डिप्टी सेक्रेट्री को घेर घारकर किसी तरह वहां लाया गया और उन्हीं की
अध्यक्षता में सभा शुरू हो पाई। मात्र तीन वक्ताओं ने प्रदीप बाबू को अन्तर्मुखी, ईमानदार और कार्यकुशल बताते हुए औपचारिक
वक्तव्यों की समाप्ति की। अघ्यक्षजी बमुश्किल चन्द पंक्तियां बोल पाए जिनमें कुछ
तो उनके मुंह में ही रह गई। जो पंक्तियां सुनी जा सकीं, उनमें परिहास करते हुए यह कहा गया था कि अबतक यह
विभाग काम धाम के मामले में हमेशा फिसड्डी रहा है लेकिन आज कविताई के मामले में
अव्वल आ गया। धन्य हैं प्रदीप बाबू। अब आप इनके नाम पर मुंह मीठा कीजिए।
अगले दिन के अख़बारों के बीच के पन्ने में फिर मौजूद थे प्रदीप बाबू। आज
विभागीय मंत्री की बधाई छपी थी। जब सी0एम0 ने दे दिया तो भला
वे कैसे चूकते! दो तीन साहित्यिक संगठनों ने भी उन्हें बधाई दी थी। उनमें से दो के
प्रतिनिधि शाम को प्रदीप बाबू के डेरे पर भी आ पहुंचे। वह लोग प्रदीप बाबू के
अभिनन्दन के साथ साथ कवि गोष्ठी भी करना चाहते थे। प्रदीप बाबू प्रस्ताव सुनकर
हिचक से गए। अब वह कैसे समझाते कि वह कोई उस तरह के कवि तो हैं नहीं जो...! लेकिन
बब्बे तो जैसे इस स्थिति के भरपूर दोहन का संकल्प लेकर ही बैठा हो। जब तक वह कुछ
सोचते विचारते कि बब्बे अचानक से टपक पड़ा और उसने आगामी शनिवार और रविवार की दोनों
छुट्टियों में कार्यक्रम फायनल कर लिया। कविता तो एक रात में दस भी लिखी जा सकती
है बशर्ते लिखने का दबाव हो। उसने प्रदीप बाबू को आश्वस्त किया तो उनसे भी इन्कार
करते न बन सका।
रविवार और सोमवार को नगर के अखबारों ने कवि सम्मेलन पर विशेष कवरेज निकाले।
प्रदीप बाबू की तस्वीरें दोनों दिन छपी थीं। सोमवार को जब वह दफ़्तर पहुंचे, माहौल बड़ा सहमा सहमा सा था। पता चला कि हमेशा
ग्यारह के बाद ही पहुंचने वाला डायरेक्टर आज ठीक नौ चालीस पर ही आ धमका है और सारी
शाखाओं में घूम रहा है।
प्रदीप बाबू की शाखा में वह नहीं आ पाए थे। आज सचिव भी समय से आ गए थे और
उन्होंने निदेशक को तलब कर लिया था।
‘‘दोनों के मुंह मिल गए हैं, पता नहीं किस पे गाज गिरेगी।’’
हर शाखा में यही फुसफुसाहट उभर रही थी। फिर यह भी समाचार आया कि निदेशक महोदय
अपने कक्ष में आ गए हैं और बारी बारी से सभी शाखाओं की समीक्षा चल रही है। सुनते
ही हंस पड़े प्रदीप बाबू- ‘‘जरूर रात में मेम साहब से रगड़ा हुआ होगा और उपासे रह गए होंगे साहब।’’
शाखा में हंसी की लहर उठी जरूर, लेकिन फ़ौरन दब गई। डायरेक्टर का मुच्छड़ चपरासी सामने आ खड़ा हुआ था और हाथ के
भद्दे इशारों के साथ साहेब के सामने पेश होने का फ़रमान सुना रहा था। प्रदीप बाबू
अचानक ही नर्वस हो उठे। उनके दोनों सहायकों की भी हालत पतली हो रही थी। तभी बब्बे
ने उन्हें ताकीद की- ‘‘आपने कोई गबन, घपला किया है जो डर
रहे हैं? आत्मविश्वास नहीं
खोना है और हर हालत में चेहरे पर मुस्कुराहट बनाए रखनी है। आखिरकार अब आप एक बड़े
कवि हैं। जीवन को एकरेखीय तरीके से देखना छोड़िए।’’
दस मिनट तक डायरेक्टर साहेब दोनों सहायकों का मान मर्दन करते रहे। अचानक ही
उन्होंने पलटकर प्रदीप बाबू पर प्रहार किया- ‘‘तुम खड़े खड़े बेहया की तरह क्यों मुस्कुरा रहे हो? तुम्हारी कोई जिम्मेवारी नहीं बनती है! तीन
घण्टे के अन्दर यह पूरी रिपोर्ट चाहिए मुझे, जान लो।’’
‘‘लेकिन सर...! ...अभी तो मात्र आठ जिलों से ही रिपोर्ट आ पाए हैं। बीस जिलों से
आया ही नहीं। ’’
‘‘नहीं आया तो क्या किया?ताकीद की?’’
‘‘वह तो हुजूर को करना था।’’
‘‘हुजूर तब न करेंगे, जब आप ड्राफ्ट तैयार करके देंगे।’’
‘‘चिट्ठी जा चुकी है सर... पंद्रह दिन पहले ही’’ - प्रदीप बाबू को डटता देख एक सहायक को भी थोड़ा बल
मिला। उसने फौरन शाखा से वह फाइल लाकर सामने पेश कर दी।’’
डायरेक्टर भी काफी ऊंची चीज था- ‘‘रिमाइंडर... वह कहां है?’’
‘‘जी वो... जी सर... वो...’’ सहायक थोड़ा गड़बड़ाया नहीं कि हत्थे से उखड़ पड़े डायरेक्टर- ‘‘तुम्हारा बाप लगाएगा?बेहूदा... नालायक... कामचोर कहींके। तुम तीनों
का यही हाल है। एक तो चलो कविता करने लगे हैं...! तुम दोनों... नचनिया गवनिया हो
क्या तुमलोग? जाओ और जैसे भी हो
तीन घण्टे में रिपोर्ट बनाकर लाओ नहीं तो आज से तीनों का वेतन बंद।’’
फिर उसने चेहरे पर एक बनावटी मुस्कान लाते हुए कहा- ‘‘प्रदीप बाबू को तो दिक्कत नहीं होगी फिलहाल...
मोटा माल कमाया है अभी...। ...लेकिन आप लोग भुगतिए अब...!’’
वहां से निकल तीनों वापस आकर अपनी कुर्सियों पर बैठ गए। रास्ते में किसी के
मुंह से एक बोल भी न फूटा। यह आबोलापन टीम वर्क के लिए खतरा है। प्रदीप बाबू इसे
समझ रहे थे। वह अपने सहायकों से बोल पड़े- ‘‘साहब का रवैया देख लिया न... हमारे और आपके बीच दरार पैदा करना चाहते हैं।’’
‘‘दरार तो जे है से कि हइये हैय’’- मंडल नामक सहायक ने कहा- ‘‘मगर प्रधान होने के नाते ई न बताइए कि जो होम
वर्क मिला है, सो कैसे निबटेगा?’’
‘‘आप तुरन्त आइ0टी0 सेल जाइए। रिपोर्ट का प्रपत्र सभी डिफॉल्टर
जिलों को मेल करवाते हुए एक घण्टे के भीतर रिपोर्ट सब्मिट करने को कहिए।’’
‘‘ठीक है, मगर आप लोग कोचि
करेंगे?’’
‘‘हमलोग तबतक फोन से संपर्क करते हैं जिलों से ताकि वह लोग मेल चेक करें और
रिपोर्ट भेजें। उसके बाद जो रिपोर्ट आ चुकी है तबतक सबको संकलित करेंगे।’’
‘‘ठीक है... ठीक है...’’ कहते हुए प्रपत्र की नकल लेकर मंडलजी रवाना हो गए।
मंडलजी के जाते ही शर्माजी ने फुसफुसाते हुए कहा- ‘‘सर...! आप इसके सामने साहेब को लेकर कुछ भी भला
बुरा ना कहा कहें। यह उनकी जाति का है और उनके लिए आंख और कान का काम भी करता है।’’
‘‘मतलब कि जासूसी?’’
‘‘जासूसी क्या करेगा ससुरो... मुखबिरी करता है...। ...और जितने भी साहेब लोग हैं
यहां, जान लीजिए कि कान के
एकदम कच्चे हैं। देखते नहीं हैं, आज तक इसका कुछ बुरा होते देखा है विभाग में?’’
‘‘जो कहो भाई!’’- प्रदीप बाबू ने हंसकर कहा- ‘’साथ में तो हमारे ही है न। इसकी गर्दन भी तो हमारे साथ ही फंसी है। सो अगर यह
बचेगा इस बार तो जान लो कि हमें भी कुछ न होगा।’’
शर्माजी देर तक मुंह ही तकते रह गए प्रदीप बाबू का। फिर आहिस्ते से बोल पड़े- ‘‘आपको पता है बड़ा बाबू, इधर आप थोड़े बदल से गए हैं! विपरीत स्थितियों को
भी आप मजे मे झेल लेते हैं। पहले आपकी बोलती बंद हो जाती थी और गड़बड़ा जाते थे आप।’’
‘‘तब की बात और थी शर्माजी! आज मेरे पास एक बड़ी शक्ति है... एक बहुत बड़ी पूंजी।
खैर... आप नहीं समझ पाइयेगा अभी।’’ - प्रदीप बाबू ने पूरे आत्मविश्वास से कहा और अपने काम में लग
गए।
उस रात आठ बज गए रिपोर्ट तैयार होने तक। डायरेक्टर भी जमे हुए थे। रात नौ बजे
घर पहुंचे प्रदीप बाबू।
इसके बाद से तो नित्य दिन ऐसा ही कोई न कोई झमेला। शाम के पांच बजते बजते तक
प्रदीप बाबू को बुलाकर कोई ऐसा काम सौंप देते डायरेक्टर जो उस शाम होना सम्भव न
होता। बेचारे आठ साढ़े आठ तक खटते रहते और फिर डांट डपट के साथ घर लौटते। अगले दिन
उसी काम को समाप्त करने तक एक दूसरा बड़ा काम। इसके साथ साथ जो रूटीन वर्क होना
रहता वह सब तो चलता ही था।
ऐसा लगातार हफ़्तों नहीं महीनों चला। दफ़्तर में वह लगभग नित्य ही प्रताड़ित
होते। कार्य में लापरवाही बरतने के तीन चार मामलों को निदेशक ने उपर बढ़ा दिया था।
सचिव से दो बार मिले भी वह। लेकिन कोई रियायत नहीं पा सके। साफ साफ कह दिया गया कि
जो नियंत्री पदाधिकारी हैं, उनका मंतव्य नहीं बदला जा सकता। आखिर वह भी उच्च प्रशासनिक सेवा से हैं। कुछ
दिन के लिये रोक लेता हूं तत्काल। जाकर समझौता कर लो वरना सजा तो कुछ होगी ही।
सुनकर सहम उठे प्रदीप बाबू। प्रणाम कर उल्टे पांव वापस लौट आए।
प्रदीप बाबू को अब अनिद्रा की शिकायत रहने लगी। सुबह उठने पर बदन आलस्य से भरा
होता और दिमाग चिड़चिड़ाया रहता। ऐसे ही शरीर का बोझ उठाए वह दफ्तर जाते और इतने
सारे काम का बोझ ढ़ोते। झिड़कियां और डांट डपट झेलते। जिन्दगी बर्बाद कर देने की
धमकी सुनते। ऐसे समय में वह बब्बे पर पूरी भड़ास निकालते- ‘‘तुमने कहां फंसा दिया बब्बे...! अब कोई उपाय
क्यों नहीं सुझाते? इतनी घुटन है
भीतर... इतना हाहाकार... भीतर से लगातार यही इच्छा हो रही है कि थोड़ी सी फुर्सत
मिले तो इन स्थितियों पर कुछ लिखूं। चूंकि नहीं कर पा रहा ऐसा इसलिए घुटन और भी बढ़
जाती है।’’ - कहकर थोड़ा थमे और मुस्कुराए प्रदीप बाबू। भीतरी पीड़ा को समेटने की कोशिश से
उभरी एक दिखावटी मुस्कान। पता है, इधर यह भी इच्छा जोऱ मारने लगी है कि काश एक संग्रह भी प्रकाशित हो पाता मेरा!
तुम भले मेरा मजाक उड़ाओ बब्बे, लेकिन मैं केवल डायरेक्टर और सचिव पर ही सीरीज में कविताएं लिख सकता हूं। कुछ
तो डायरियों में आधी अधूरी लिखी पड़ी भी है।’’
‘‘हूं उ उ...!’’ सुनकर बब्बे ने हर्ष मिश्रित ध्वनि निकालते हुए कहा- ‘‘यही तो मैं चाहता हूं... एडजेक्टली मैं इसे ही
होते देखना चाहता हूं...। और सच पूछिए तो यही एक उपाय है। जितनी भी ताकत हो झोंक
दीजिए यहां... निकल जाने दीजिए प्रेशर...। देखिएगा फिर कितना मजा आएगा! इन कविताओं
के छपते ही एक काउंटर अटैक के साथ उस खेल में आप सहभागी हो जाएंगें, अभी जो खेल डायरेक्टर के द्वारा एकतरफा खेला जा
रहा है।’’
‘‘हुंहुं... और तब जो कल होना है मेरे साथ, वह आज ही हो जाएगा, क्यों?अरे बाबू, क्यों मेरी नौकरी खाने पर तुले हो तुम? नौकरी चली गयी तो सड़क पर कटोरा लेकर भीख मांगना
होगा दोनो जने को।’’
‘‘मैने पहले ही कहा था, आप जैसे सरकारी बाबू से कोई उम्मीद नहीं है मुझे। एक सुविधा भोगी जीव हैं आप
और आपसे कविता नहीं सधने वाली। चुपचाप नौकरी साधिए आप!’’ - बब्बे अभी भी अपनी हथेली खुजला रहा था।
‘‘जो होने लायक हो मुझसे ऐसा कुछ क्यों नहीं बतलाते?’’
‘‘बताया तो था। भेजी भी थी अपनी अर्जी तबादले की। कहां हुआ कुछ?सी0एम0 तक को कॉपी भिजवायी
गई थी।’’
‘‘अच्छा याद दिलाया। एक बार मिल आता हूं सी0एम0 साहेब से। शायद काम बन जाए।’’
उस दिन काम में उनका जरा सा भी मन नहीं लग रहा था। संयोग से निदेशक मुख्यालय
से कहीं बाहर थे। उन्होंने तय कर लिया कि आधे दिन की छुट्टी लेकर आज ही आवास पर
जाएंगे सी0एम0 के। आगे हरि इच्छा।
सी0एम0 के बारे में सोचते ही उन्हें वह दृश्य याद आने
लगा जब मुख्यमंत्री ने उन्हें अपने हाथों शॉल ओढ़ाया था और चेक प्रदान किया था। दो
दो लाख के दो चेक। कितना भव्य कार्यक्रम था वह! कितनी तालियां बजी थी उनके लिए। उस
दिन अपने लिखे गीत को सुनकर उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था कि यह उन्हीं का लिखा
गीत है। जितनी अच्छी धुन, उतनी ही बेहतरीन गायकी। मुम्बई के नामचीन गायकों और एक श्रेष्ठ संगीतकार की
सेवा ली गई थी उनके गीत को इस अंज़ाम तक पहुंचाने के वास्ते। उस रात एक पांच सितारा
होटल में ‘डिनर’ भी रखा था कम्पनी ने। उन्हें सपरिवार शामिल होने
का आमंत्रण प्राप्त था। सी0एम0 भी आए थे उस डिनर
में। उन्होंने उनकी पत्नी का हाथ जोड़कर अभिवादन किया था। उफ...!
यह सब पुनः पुनः याद करते पनिया उठी थी प्रदीप बाबू की आंखें। सी0एम0 हाउस से उन्हें बैरंग वापस कर दिया गया था। संतरी से उन्होंने संवाद भिजवाया
था। बड़ी मुश्किल से जनसंपर्क अधिकारी से मुलाकात हो पायी। ढ़ाई घण्टे इन्तज़ार के
बाद। सी0एम0 के साथ अपनी तस्वीर की एक प्रति ले गए थे। वह
भी दिखाया।
‘‘सरकारी बाबुओं से नहीं मिलते हैं सी0एम0 साहब! थ्रू प्रॉपर
चैनल आइए।’’
सही में वह मात्र एक सरकारी बाबू ही बनकर रह गए हैं। अभी दो दिन पूर्व की घटना
है। एक विभागीय समारोह था। समारोह के शुरूआत में उनका लिखा गीत ही बजा। लेकिन किसी
ने उनकी नोटिश नहीं ली। वह उस समय हॉल में ही थे और माननीय मंत्री का लिखित भाषण
बांट रहे थे। यही काम उन्हें सौंपा गया था। बल्कि अब यह एक अतिरिक्त काम आ गया था
उनके जिम्मे। ज़रूरत पड़ने पर विभागीय मंत्री, सचिव एवं निदेशक के लिए उनका ‘सम्बोधन’ तैयार करना। यह एक
परेशान करने और खिझाने वाला उबाऊ काम होता उनके लिए। विभाग की सारी गतिविधि और
आंकड़े जुटाओ फिर उन्हें तरतीब के साथ पेल दो। एक ही तरह के मैटर से तीन तीन तरह के
भाषण। दुनिया का सबसे बोझिल काम। वह यह सब किसी तरह मन मानकर सम्पन्न कर देते।
इसके बावजूद उपर से उन्हें स्तरहीन और बकवास भाषण तैयार करने के लिए झिड़कियां ही
सुनने को मिलतीं। फिर वह पाते कि उन्हीं के लिखे में थोड़ा दायें बाएं कुछ जोड़
घटाकर उपरवाले क्रेडिट लूट ले जाते जबकि उनके हिस्से हमेशा निलंबन की लटकती तलवार
ही आती। अब तो स्थिति यह थी कि विभाग का जो भी महत्वपूर्ण संलेख तैयार होना होता, उसकी भाषागत शुद्धि की जिम्मेवारी प्रदीप बाबू
की होती। मैट्रिक पास माननीय मंत्री भाषा की शुद्धता को लेकर बेहद संवेदनशील थे और
किसी भी महत्वपूर्ण संलेख पर हस्ताक्षर करने से पूर्व यह मौखिक पृच्छा कर लेते थे
कि इसे उस ‘कविया’ को दिखाया गया है या नहीं!
इधर प्रदीप बाबू और भी बेचैनी में थे। उनकी
बेचैनी का सबसे बड़ा कारण था उनके खुद के भीतर के उनके अहसासात। इधर उन्हें लगातार
यह महसूस होने लगा था कि उन्हें जो हीरे की तरह का अनमोल जनम मिला है, वह मामूली कौड़ियों के बदले जाया हो रहा है।
पुस्तक मेला से ढ़ेर सारे प्रतिष्ठित कवियों का संग्रह खरीद लाए थे वह। अन्य कई कई
किताबें भी अपनी रूचि की। लेकिन वह बौराए से किनारे बैठे रह जाते थे। ज्ञान के
समन्दर में पैठने का अवसर ही नहीं था उनके पास। कभी जो थोड़ा वक़्त मिलता भी तो उस
पर दुनियावी चिन्ताएं ही हावी रहतीं।
आज तो और भी चिन्ता में थे। उनके सहायक मण्डलजी
ने आज ही सूचना दी थी उन्हें कि एक दो दिन में उनपर निर्णायक ऐक्शन होने वाला है।
सचिव ने कुछ पृच्छा कर तब उनकी जो फाइल लौटा दी थी, उसे पूरी तैयारी के साथ फिर से उपर भेजी जा रही
है। प्रदीप बाबू ने गोपनीय शाखा से पता लगाया तो बात सही निकली। कोई उपाय नहीं सूझ
रहा था उन्हें। कहीं से आस की कोई किरण नहीं दिख रही थी। लोग अब धीरे धीरे उन्हें
भूलने लगे थे। पूरे राज्य में उनके गीत का परचम लहरा रहा था। उस गीत के सहारे
सरकार जनता की भावनाओं को सहलाकर उन्हें अपने पक्ष में कर रही थी। लेकिन प्रदीप
बाबू स्वयं मझधार में ऊभ चूभ कर रहे थे।
उन्होंने बब्बे से राय ली। मंडलजी का सुझाया
रास्ता बताया। रास्ता यह था कि फल मिठाई वगैरह लेकर साहेब के डेरे पर वे जाएं और
सीधे उनका पैर पकड़ लें। तब कुछ न कुछ रास्ता खुद ही निकल जाएगा।
बब्बे ने भी कंधे उचकाते हुए कहा कि इसमे हर्ज
ही क्या है! थोड़ी ओवर ऐक्टिंग कर आइए जाकर।
मुलाकात होते ही प्रदीप बाबू ने सीधे चरण थाम
लिए।
‘‘अरे... अरे... क्या करते हो तुम?...इतने बड़े कवि होकर... ब्राह्मण होकर ... नर्क में डालोगे
क्या मुझे!’’
‘‘ब्राह्मण नहीं सेवक हूं हुजूर आपका...!’’ ...प्रदीप बाबू ने फफकते हुए और आंख से आंसू बहाते हुए कहा- ‘‘जहां तक कविता की बात है तो सारी कारस्तानी उस
पाजी बब्बे की है!’’
‘‘बब्बे कौन?’’
‘‘मेरा बेटा है हुजूर! रात दिन कविता नाटक में लगा रहता है। उसी ने लिखी थी वह
कविता और मेरे नाम से छपवा दी थी।’’
‘‘अच्छो... हो... हो... हो... तो यह बात है... हो... हो... हो... यही तो मैं
कहूं... हो... हो... हो...!’’ हंसी ऐसी थी निदेशक की कि रोके नहीं रूक रही थी। प्रदीप
बाबू अब अपनी आंख पोछते सामने की कुर्सी पर डट चुके थे।
‘‘बताइए भलो... आपकी कोई गलती नहीं... फिर भी इतने दिन से पिस रहे हैं आप!’’ - डायरेक्टर का स्वर एकदम सहज था।
‘‘सर... उबार लीजिए किसी तरह!’’ उन्हें नरम पड़ते देख प्रदीप बाबू ने चिरौरी की।
उबारना क्या, मैं तो कुछ बनाना
चाहता हूं आपको। आप मेहनती हैं। समझदार हैं। विनम्र हैं। सारी योग्यता है आपमें।
बस दिक्कत एक ही है कि आप ऑफिस का दस्तूर नहीं जानते। खाना जानते हैं, खिलाना नहीं जानते।’’
‘‘सर आप तो जानते हैं, मेरी शाखा में कोई आमदनी नहीं।’’
‘‘तो फिर जाइए न आमदनी वाली शाखा में, कौन रोकता है आपको?’’
‘‘सर... सर...!’’
‘‘क्या सर... सर... लगा रखे हो!’’- डायरेक्टर का तेवर अचानक फिर से बदल गया - ‘‘समझ में नहीं आता है, इतनी देर से समझा रहा हूं! चार लाख अकेले पचा
गए। पचास हजार भी खर्च करते नहीं बना तुमसे... चले हैं सर... सर... करने! बहुत
भारी बेईमान हैं आप।’’
‘‘बेईमान...?’’ चिहुंक उठे प्रदीप बाबू।
‘‘जाइए, कल पचास हजार पहुंचा
सकते हैं तो आइए वरना अंजाम भुगतने को तैयार रहिए।’’ घर पहुंचकर प्रदीप बाबू ने बब्बे से परामर्श
किया। बब्बे ने बताया कि बहुत ज़ल्द उनका तबादला होने वाला है। अख़बार तो यही संकेत
दे रहे हैं। बहुत से बहुत समय लगेगा तो पन्द्रह दिन।‘‘
‘‘दो दिन के अंदर मैं निलम्बित भी हो सकता हूं। विभागीय कार्यवाही के लिये भी
फाइल खोली जा चुकी है।’’
‘‘फिर भी मेरी तो राय है कि...य’’ - बब्बे ने कुछ कहना चाहा नहीं कि उसे घुड़क दिया प्रदीप बाबू
ने - ‘‘तुम अपनी राय दफ्तर
के कामों में मत ही दो तो भला। पचास हजार देकर भी जान बच जाती है तो जानो सस्ता
सौदा है। अरे पैसा तो माया है। हाथ का मैल है। सुना नहीं है- मनी इज लॉस्ट, नथिंग इज लॉस्ट।’’
अगले दिन प्रदीप बाबू ने पचास हजार रूपये सौंप दिए निदेशक को। ‘‘बताइए किस शाखा में जाना चाहेंगे आप...? स्थापना में कर दूं? आपकी फाइल मैं कल ही बंद कर दूंगा। अपनी फायनल
टिप्पणी लिखकर। कोई मामला अब नहीं रहेगा आप पर।’’
‘‘सर... मुझे तो पहले दस दिनों की छुट्टी दे दें। बहुत जरूरी काम है सर!’’ प्रदीप बाबू एकदम से गिड़गिड़ा उठे।
‘‘ठीक है, जाओ और मौज करो। एक
आवेदन भिजवा देना सेफ्टी के वास्ते।’’ पैसा पा लेने के बाद डायरेक्टर के तेवर ही बदल चुके थे।
प्रदीप बाबू साहेब का चरण स्पर्श कर फुर्ती से घर लौट आए। पचास हजार गंवाकर भी
उनके चेहरे पर परम संतुष्टि के भाव थे। मनपसंद खाना बनवाया और खूब खाया। फिर गहरी
नींद सो गए। इसके बाद उठे तो कागज कलम और किताबों में ऐसे डूबे कि कब सुबह हुई कब
शाम... कुछ याद नहीं! जैसे सावन के दिनों में लम्बी झड़ी लगती है बरसात की... कुछ
इसी तरह रूक रूक कर लिख और पढ़ रहे थे प्रदीप बाबू। अब उनके चेहरे पर भी वर्षाकाल
की वनस्पतियों की तरह की हरियाली दिखने लगी थी। देखते ही देखते दस दिन गुजर गए।
जिस दिन दफ्तर जाना था, उसी दिन सुबह अखबार में उन्होंने डायरेक्टर के तबादले का समाचार पढ़ा।
अब बब्बे उन्हें चिढ़ा रहा था। व्यंग्य से मुस्कुरा रहा था। फिर भी प्रसन्न थे
प्रदीप बाबू। अब उन्होंने जीने की राह तलाश ली थी। खुद के लिए एक रास्ता चुन लिया
था। उन्होंने आगे बढ़कर हाथ मिलाया बब्बे से। फिर उसे गले भी लगाया। अब उन दोनों के
बीच किसी तरह की दूरी नहीं रह गई थी। दोनों के बीच का वैचारिक फर्क पूरी तरह से
मिट चुका था।
आज दफ्तर निकलने से पहले प्रदीप बाबू बब्बे को ‘थैंक्स’ कहना भी नहीं भूले थे।
***
सम्पर्क: संतोष दीक्षित, दुली घाट, दीवान मोहल्ला पटना सिटी, पटना-800 008 मो.नं- 9334011214.
पेन्टिंग: सन्दली वर्मा.
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