विशाखा मुलमुले की कविताएँ
कल्पना न भोर न दोपहर मध्य का
पहर घाम से सराबोर लावण्या के
गवाक्ष पर आ बैठा कपोत स्त्री के अनुरागी मन में
आरम्भ हुई कपोलकल्पना विचार के तार उलझे -
सुलझे इतने क्षण में कपोत ले आया चोंच में
तिनके धुँधले काँच पर धुँधला -
सा बना अक्स तिनका याकि सन्देश धुँधलके में स्त्री का मन प्यार की तरह कपोत के पंख
से भी उठी हवा नहीं होती स्वस्थ , सुनती आई है वह यह
सदा अस्वस्थ हुआ उसका मन असमंजस में है स्त्री :
काँच का पर्दा हटाये कि नहीं ! *** प्रेमियों के होने से झील थी शांत स्तब्ध नहीं थी वह नदी कि होती
उसमें आतुरता सागर से जा मिलने की नौका में बैठे प्रेमी
युगल ने अंकित किये झील के ललाट
पर प्रीत के चिन्ह दी उसे चंचलता भीमकाय झूला भी लगा रहा
था फेरी बच्चों के जीवन में भर
रहा था भय मिश्रित उल्लास पैर से ठेलते हुए जमीन प्रेमियों ने आकाश के सिर
माथे पहुँच दी पेंग भरते क्षणों को
पल भर की स्तब्धता प्रकृति को औचक दृष्टि से
निहारते गुजर रहे थे पर्यटक निर्जीव यंत्र में कैद कर
रहे थे सजीव यादें प्रेमियों ने जड़वत
वृक्षों की शाखाओं के मिलन की तरह
डाली गलबहियां तब चहकी चिरैया टूटी
नीरवता नदी , पहाड़ , पुल पार करती रेल पार कर रही थी गांव , शहर , सभ्यताएं धड़धड़ाते हुए तय कर रही थी प्रारंभ से अंत फिर अंत से प्रारम्भ का अनवरत
अनथक सफर प्रेमियों ने धड़क से
मिलाई धड़क भूत और भविष्य को ताक पर रख स्वीकार किया वर्तमान में
होना इस तरह मिली भ्रमण को
जीवंतता *** आधी हकीकत आधा फसाना कितना मुश्किल कर देती हो घर से काम करने की
सहूलियत तुम हवाओं - सी डोलती हो
इर्द गिर्द तो नजरें स्क्रीन में
जमाना मुश्किल कभी नाक लगा लेती है रसोई
का चक्कर कभी कान घुँघरू के पीछे
घर भर कभी पैर चल - चल के ले
जाते हैं तुम्हारे सामने और हाथ यक-ब- यक झूल जाते
गले का हार बनकर *** इन दिनों तुम इतनी करीब हो कि तुम्हारी साँसों के
समंदर में उतार दूँ कश्ती पर थमता हूँ , ठहरता हूँ सीने पर कान का शंख बना समेटता हूँ दोतरफा उफान ** हथेलियों के मध्य तुम्हारा मुखड़ा याकि
पृथ्वी जब - जब इन कत्थई आँखों
से झांकता हूँ बिल्लौरी आँखों में पाता हूँ जीवन के अनगिन
रंग ** तुम जब मेरे बाँह के
हिडोले में टिकाती हो सर अपना लेती हो निश्चिंतता भरी
दो गहरी सांसे तो लगता है इंद्र के धनुष पर सुस्ता
रही है एक चमकीली नन्हीं - सी
बून्द ** हमारे एकांत में तुम टांक
देती हो अपने माथे की टिकुली मेरे
माथे पर कहते हुए लो ! सम्भालो
अपनी पृथ्वी और देखते ही देखते मेरा माथा ब्रम्हाण्ड -
सा विस्तार पाता है अपने को समेटते जब जाती
हो मुझे छोड़कर मैं ब्लैकहोल में सिमटता
जाता हूँ ** सम्पर्क: विशाखा मुलमुले,
पुणे, ई-मेल: vishakhamulmuley@gmail.com मो. 9511908855 पेन्टिंग: सन्दली वर्मा. |
बहुत अच्छी ताजा हवा सी बहती,सहज मन की गहराइयों में उतरती प्यारी कविताएं हैं।
जवाब देंहटाएंविशाखा शानदार कवि हैं।
जवाब देंहटाएंसुंदर कविताएँ