अनामिका अनु की कविताएँ
क्वारेनटीन
में हूँ
मैं
लिख रही हूँ तुम्हारे ही लिए
कमरा
एसी है
सागवान
की लकड़ी की अल्मारी में किताबें है
लैपटॉप
है
और
तुम्हारा ध्यान!
न्यूज़
में बता रहे हैं
तुम्हें
स्टेशन पर से मार डंडे भगा देते हैं?
तुम
कहाँ जाते हो तब?
स्टेशन
की दूसरी तरफ़,
नाले
के पास
रात
भर मच्छर काटेंगे!
भोर
से कुछ नहीं खाया पुलिस के डंडे के सिवा?
पाँच
सौ रुपये थे कोई सोते में जेब से निकाल ले गया
इतनी
गंदगी और मच्छर में तुम सो कैसे गये?
भैंस
हो?
बस
आयी थी,
बैठ
जाते
छत
का पाँच सौ,
भीतर
बैठने का एक हज़ार माँग रहे थें?
खड़े
रह गये!
दूसरा
दिन है
आज
खाना बँटा था
तब
तुम चीख़ चीख़ कर क्यों रोने लगे थे?
पत्रकार
पूछ रहे थें
तुम 'घर घर' कर रो रहे थे।
चालीस
किलोमीटर चले,
पैंतीस
और चलना है
माथे
पर बिटिया बैठी है, बुख़ार है
बस
एक सौ दो?
मैं लिखने में लगी हूँ तुम्हारे वास्ते
ज़रा
एसी ऑन कर लूँ
मेरे
पास दस हज़ार किताबें हैं,
करोना
से संबंधित
देश-विदेश में प्रकाशित
सब लेख मैं पढ़ चुकी हूँ
मैं
तुम्हारी तस्वीर लगाकर तथ्यपरक, बेहतर और प्रभावशाली
भाषा
में लेख लिखूँगी
कविताएँ
भी
कई
कहानियाँ
रुको
मैंने
आज चिकन बिरियानी बनाई है
रायता
रह गया है
बना
कर,
खा
कर आती हूँ
फिर
लिखूँगी
तुम्हारी
भूख,
तुम्हारी
पीड़ा,
तुम्हारे
तंग हाथ
और
हाँ घास खाते बच्चों की कहानी
मेरे
शब्दकोश बड़े समृद्ध हैं
मैं
बहुत पढ़ी लिखी हूँ
मैंने
कई किताबें पढ़ी हैं
मैं
तुम्हारे लिए लिखूँगी
काश! कि तुममें से कोई
लिखता एक कविता
और
ढा देता एसी में पेट भर खा कर लिखी गयी
मेरी
कविताओं के बुर्ज ख़लीफ़ा को
जो
दुबई माल के बग़ल में ढीठ खड़ी है।
मैंने
कहा था न मैं बहुत निर्मम हूँ
उससे
भी वीभत्स है मेरा ज्ञान!
***
लिंचिंग
भीड़ से भिन्न था
तो क्या बुरा था
कबीर भी थे
अम्बेडकर भी थे
रवीन्द्र नाथ टैगोर भी थे
गांधी की भीड़ कभी पैदा होती है क्या?
पत्ते खाकर
आदमी का रक्त बहा दिया
दोष सब्जियों का नहीं
सोच का है
इस बात पर कि वह
खाता है वह सब
जो भीड़ नहीं खाती
खा लेते कुछ भी
पर इंसान का ग्रास...आदमखोर
इन प्रेतों की बढ़ती झुंड आपके
पास आएगी।
आज इस वज़ह से
कल उस वज़ह से
निशाना सिर्फ इंसान होंगे
जो जन्म से मिला
कुछ भी नहीं तुम्हारा
फिर इन चीजों पर
इतना बवाल!
इतना उबाल!
और फिर ऐसा फसाद ?
आज अल्पसंख्यक सोच
को कुचला है,
कल अल्पसंख्यक जाति,परसो धर्म,
फिर रंग,कद,काठी,लिंग वालों को,
फिर उन गांव, शहर,देश के लोगों को जिनकी संख्या
भीड़ में कम होगी।
किसी एक समय में
किसी एक जगह पर
हर कोई उस भीड़ में होगा अल्पसंख्यक
और भीड़ की लपलपाती हाथें तलाशेंगी
सबका गला, सबकी रीढ़ और सबकी पसलियां।
पहले से ही वीभत्स है
बहुसंख्यकों का खूनी इतिहास।
अल्पसंख्यकता सापेक्षिक है
याद रहा नहीं किसी को।
असभ्यों की भीड़ से एक को चुनकर
सभ्यों की जमात में खड़ा कर दो
और पूछो तुम्हारा स्टेटस क्या है?
***
झाँकना
काश
कि वह झाँकता
इस
तरह मेरे भीतर
कि
खुल जाती उम्र की वह स्वेटर
जो
वक्त के कांटे पर बुनी गयी थी
बिना
मेरी इजाज़त के।
**
प्रतीक्षा बाती
मैं
दहक रही हूँ
माथे
की कैद में फड़फड़ाते शोकगीत
बारिश
की ठंड रात
में
बोलते झींगुर और भींगते झूले
के
आस पास
एक
उदासी बैठी है
उसने
अभी-अभी बुझायी है
बाती
प्रतीक्षा की
**
खंजन
चिड़िया
चौमुख
दिये के पास रखा है
वह
दूधपीठी का भगोना
साँझ
सुगबुगायी है
ये
खंजन चिड़िया कहाँ से आयी है?
चोंच
रस में डुबोया तीन बार
उड़
गयी पोखर के उस पार!
क्या
चखा खंजन ने?
ईख, धान, दूध,पानी का स्वाद
क्या
महसूस किया उसने?
खेत, गोशाला, कुँआ या रसोई की
गंध।
**
सम्पर्क: अनामिका
अनु, अनामिका विला, मकान संख्या-31, श्रीनगर, कावू लेन, वल्लाकडावु, त्रिवेन्द्रम,
केरल, पिन- 695008, मो. 8075845170, ई-मेल: anamikabiology248@gmail.com
पेन्टिंग: सन्दली वर्मा.
बहुत सारी कविताएं खास करके क्वारंटाइन में हूं यह कविता ने मुझे सोचने को मजबूर किया सच बात है हम खाते अघाते लोग भूख पर क्या लिख पाएंगे भूख के बाद गरीब की पुकार नहीं तृप्ति और अपच की डकार ही निकलती है जिन्हें इस भूख गरीब पर लिखना है वह कविता कैसे लिखेंगे उनकी सारी उम्र रोटी को लिखने में लग जाती है बहुत ही अच्छी कविताएं अनामिका जी को इतनी प्यारी कविता लिखने के लिए बहुत-बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंअनामिका को पहली बार पढा। प्रभावी अभिव्यक्ति।
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