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दो कथाकारों- पंकज मित्र और रामदेव सिंह द्वारा तीसरे कथाकार संतोष दीक्षित के उपन्यास ‘घर बदर’ की समीक्षा

दो कथाकारों- पंकज मित्र और रामदेव सिंह द्वारा तीसरे कथाकार संतोष दीक्षित के उपन्यास ‘घर बदर’ की समीक्षा 

                          

                      I

 यह किताब रेलवे की हर लाइब्रेरी में होनी चाहिए

('घर बदर' : अब कोई वापसी भी नहीं!)              – रामदेव सिंह

 

वर्षों पहले अग्रज कथाकार संजीव भाई ने मुझे रेलवे के गार्ड पर कहानी लिखने का टास्क दिया था . इस अल्टीमेटम के साथ कि गर मैंने नहीं लिखा तो वे लिख देंगे. मैंने उनसे वादा किया था कि मैं जरूर लिखूंगा. लिखना शुरू भी किया था लेकिन मेरी दर्जनों अधलिखी कहानियों की तरह यह कहानी भी अधूरी ही रह गयी.

इधर जब चर्चित कथाकार संतोष दीक्षित का सद्यः प्रकाशित उपन्यास ' घर बदर ' पढ़ा तो संजीव भाई का वह टास्क याद आ गया क्योंकि इस उपन्यास का नायक कुंदन दूबे उर्फ़ कुंदू रेलवे का ही एक गार्ड है. वर्षों से अभिशप्त पड़े रेलवे के एक महत्वपूर्ण चरित्र का उद्धार संतोष जी की कलम से होना ही होना था.

हालांकि 'घर बदर ' को सिर्फ रेलवे के एक गार्ड की कहानी मानना, इसे सीमित करके देखना होगा. इस उपन्यास का फलक बहुत बड़ा है.

अब , चूंकि मैंने रेलवे में लम्बा समय गुजारा है और असंख्य गार्ड, ड्राइवर और दूसरे कर्मियों की जिन्दगी को करीब से देखा है इसलिए स्वभाविक है कि इस कुंदू बाबू का अक्श कई कुंदू बाबूओं में दिख जाय.

उपन्यास की यात्रा में मैं जैसे- जैसे आगे बढ़ रहा था, लेखक की परकाया- प्रवेश की कला पर मुदित हो रहा था. एक बार तो बीच रास्ते में रुककर ही लेखक को बधाई भी दी.

रेलगाड़ी जिन मानवीय पहियों के सहारे पटरी पर अहर्निश दौड़ती है, उनमें लोको पायलट, गार्ड, टीटीई और स्टेशन मास्टर रेल यात्रियों के लिए सबसे ज्यादा परिचित चेहरे हैं. प्रायः लोगों को इनकी निजी जिंदगी के प्रति जिज्ञासा होती है. यह उपन्यास एक गार्ड की जिन्दगी में गहरे उतरती है. तभी तो पता चलता है कि किस तरह वह रेलवे सिस्टम और अपने परिवार के बीच पेंडुलम की तरह ' दोलायमान' रहता है? रिटायर होने तक भले उसके पास ठीक- ठाक पैसे होते हैं सम्मानजनक पेंशन होता है लेकिन उनके अकाउंट में कई बीमारियां भी होती है. तीस- पैंतीस वर्ष तक एक खास तरह की 'एकरसता' बाद में 'उदासीनता' में बदल जाती है.

कुंदू बाबू ऐसे परिवार से आते हैं जो भले आर्थिक रुप से सम्पन्न नहीं रहा है लेकिन मर्यादाओं में जीने वाला परिवार है . जिन्हें आचार संहिताओं की डायरी विरासत में मिलती है. परिस्थितियां भले थोड़ी विचलित भी करती हैं लेकिन वह जल्द ही ट्रैक पर आ भी जाते हैं.कुंदू बाबू ने जन्म से ही या तो किराये का घर देखा है या रेलवे का क्वार्टर. एक आम निम्न मध्यवर्गीय परिवार की नैतिक जिम्मेदारियों को पूरा करते रिटायरमेंट तक ' अपना मकान' वाला बन भी जाता है तो उसमें रहना नसीब नहीं होता. बीमारियां कुंदू के जीवन पर पूर्ण विराम लगा देती है. कुंदू बाबू का अपने सपने के उस घर में वापसी भी नहीं होती.एक घर बसने के पहले ही बिखर जाता है और कई घरों को जन्म देता है.

पारिवारिक विखंडन इस कालखंड की सबसे बड़ी विडम्बना है. जहाँ लोग अपनी जैविक स्मृतियों से भी मुक्त होना चाहते हैं. यही हमारी आर्थिक और भौतिक प्रगति का फलितार्थ है.

यह उपन्यास भारतीय समाज के सबसे बड़े संक्रमण वाले कालखंड को समेटता है जिसमें लेखक कुंदू की परिवारिक कथा के बहाने तमाम सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और राजनीतिक संस्थाओं के रेशे- रेशे को उघाड़ता है.

आज के इस दौर में जब पहले से तय विमर्शों पर कहानियाँ और उपन्यास लिखे जा रहे हैं, यह उपन्यास अकेले कई विमर्शों को जन्म देता है जो स्वत:स्फूर्त ढंग से उपन्यास में आये हैं.

इस उपन्यास को पढ़ते हुए मुझे आज से 50-60 वर्ष पूर्व छपी उषा प्रियंवदा की कहानी ' वापसी' और लगभग 10-11 वर्ष पूर्व प्रकाशित काशीनाथ सिंह का उपन्यास ' रेहन पर रग्घू' की याद आती रही.

उषा प्रियंवदा की कहानी भी रेलवे से रिटायर गजाधर बाबू की है जो पैंतीस साल नौकरी पूरी करने के बाद अपने घर आते हैं जहाँ उनका परिवार है लेकिन परिवार की उपेक्षा से उन्हें भावनात्मक कष्ट होता है और वे वापस शहर चले जाते हैं जहाँ किसी तेल और दाल मिल में नौकरी पाने की संभावना है.

' रेहन पर रग्घू' का कैनवास ज्यादा बड़ा है . उसी के समकक्ष है ' घर बदर ' . कुछ मायनों में ज्यादा सधा हुआ. दोनों लेखकों की किस्सागोई का अपना- अपना अंदाज है. दोनों भारतीय समाज के रुपांतरण की ही कथा कहते हैं. संतोष जी थोड़ा आगे निकल जाते हैं. पिछले दो- तीन दशकों में परिवारों में स्त्रियों की मुखरता बढ़ी है उनकी भूमिका निर्णायक हुई है. संतोष दीक्षित ने इस परिवर्तन को बहुत अच्छी तरह रेखांकित किया है.

सन्तोष दीक्षित की किस्सागोई का कमाल है कि उनका यह उपन्यास कहीं भी ' बेपटरी ' नहीं होता. वे सधे हुए किस्सागो की तरह पाठकों को इधरउधर झांकने नहीं देते. मैंने तो इसे दो दिनों में पढ लिया. यह किताब उस भाषा ( हिन्दी) के पाठकों के लिए है जिसमें पठनीयता का संकट दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है.

                           ***

 

                    II                            

साधारण के स्वप्न, संघर्ष और स्वप्नभंग की त्रासद कथा

(संतोष दीक्षित के नए उपन्यास "घर बदर" पर पाठकीय प्रतिक्रिया)

                                             -पंकज मित्र

एक निम्न मध्यम वर्गीय आदमी का सपना होता है एक घर का। यह सपना वैसा नहीं है कि" इक घर बनाऊँगा तेरे घर के सामने "। यह घर कहीं भी बन सकता है खासतौर पर जब यह सपना कई पीढ़ियों से देखा जा रहा हो। घर बदर आदमी कुंदन दुबे के लिए यह सपना पूरी शिद्दत से देखना स्वाभाविक ही है क्योंकि उनकी नौकरी ऐसी है जिसमें घर चक्के पर धरा होता है यानी रेलवे के गार्ड की नौकरी। नौकरी से पहले जिस किराये के घर में कुंदन रहे वह घर उनकी माँ और बहनों के घर के रूप में जाना जाता था और बाद में उनकी पत्नी के घर के रूप में। दरअसल कई बहनों और दबंग माँ के घर के लड़के को जितना नरम होना चाहिए उतना है कुंदन उर्फ कुंदू। भले ही मुहल्ले वाले इसे दुबे जी की बाड़ी कहने लगे हों लेकिन घर पर नाम पट्टिका तो विष्णुप्रिया सदन का ही लगा है। निम्न मध्यम वर्गीय आदमी कुंदू का सपना फैलकर पूरे वर्ग का सपना बन जाता है और इस निर्माण के बहाने एक लंबे कालखंड की संपूर्ण समाजार्थिक व्यवस्था की समीक्षा भी करता है यह उपन्यास। खूबसूरत बात जो इस उपन्यास के गुणसूत्रों में धँसी हुई है कि बात इतने मद्धम स्वर में कही गई है, बिना किसी सैद्धांतिक स्थापनाओं के कि लगता ही नहीं कि कोई महत्वपूर्ण बात हो। एक चरित्र, एक परिवार की कथा कब सभ्यता समीक्षा बन जाती है यह अहसास ही नहीं होता। समय की आहटों, फुसफुसाहटों को जिस गझिन संवेदना के साथ दर्ज करता चलता है उपन्यासकार कि समय को मोज़ैक की तरह अभिव्यक्ति देता है। छोटे छोटे टुकड़ों में बातें लेकिन एक बड़े डिजाइन का हिस्सा हो जैसे। कुंदू के पूरे जीवन को आप देखेंगे तो नीरस कर्तव्यनिष्ठा से भरा जैसे एक आम निम्न मध्यम वर्गीय आदमी का जीवन होता है परिवार के लिए समर्पित - रोजगार की चिंता, बहनों की शादी, पारिवारिक घात प्रतिघातों को झेलता संघर्ष करता आदमी, साथ ही परिवार के आदर्श को भी बजाय रखने का उत्तरदायित्व - तेजी से बदलते समय से जद्दोजहद - सबकी बात उपन्यासकार अंडरटोन में करता है, न क्रांति कर देने का अतिरिक्त उत्साह है न ही यथास्थिति को बनाए रखने की चाहत। स्त्री चरित्रों की मजबूत उपस्थिति इस उपन्यास के चक्कों में तेल डालती चलती है और कुंदू के जीवन चक्र को भी चलायमान रखती हैं। चरित्रों की बारीक बुनावट पाठक को हैरान करती हैं कि साधारण से असाधारण बात पैदा करने का हुनर है इनमें। समय के बदलाव के साथ बदलने वाले जीवन की महीन समझ को सामने लाता है उपन्यासकार और वह भी साधारण जीवन स्थितियों के चित्रों के जरिए।

घर तो बनता है लेकिन बहुत सारे घर टूटते हैं - कुंदू के मन में और बाहर भी। घरबदर ही रहता है वह जैसे होरी का सपना ही रह जाता है गोदान। एक रूपक की तरह भी पढ़ा जा सकता है कि एक घर की तामीर की इच्छा है जैसे एक देश बनाने की चाहत लेकिन बाद की पीढ़ी के प्रतिनिधि चरित्र हैं कुंदन दुबे के तीनों बेटे - एक कैरियरिस्ट है तो दूसरा परिवार की थोड़ी चिंता भी करनेवाला, तीसरा एक धर्मध्वजाधारी लुम्पेन के तौर पर आया है। तीनों प्रकार आप अभी के समाज में आइडेंटिफाय कर सकते हैं। पर सब का लक्ष्य है मकान को बेचकर अपनी योजनाएं पूरी करना और यही सच है आज का।

ऊपर से नीरस सी दिखने वाली इस कहानी में रंग भरती है - उत्सुकता बनाये रखने वाली किस्सागोई, व्यंगात्मक टोन की एक बारीक अंतर्धारा और सबसे बढ़कर एक अद्भुत निस्संगता जो किसी बड़ी रचना का गुण होता है, उसका पूरे उपन्यास में निर्वाह। उपन्यास में लंबे समय तक स्मृति में रह जानेवाली योग्यता है। सेतु प्रकाशन ने इसे छापा है।

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संपर्क:

संतोष दीक्षित: संतोष दीक्षित, दुली घाट,  दीवान मोहल्ला, पटना सिटी, पटना-800 008 मो. नं- 9334011214

रामदेव सिंह: रामदेव सिंह, ग्राम एवं पोस्ट- इसरायण कलां, प्रखण्ड- कुमारखण्ड, ज़िला- मधेपुरा. मो.न. 91O24248OO.

पंकज मित्र: पंकज मित्र, आकाशवाणी, राँची, झारखण्ड, मो. 9470956032.

पेन्टिंग: सन्दली वर्मा.  

 


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