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जोशना बनर्जी आडवाणी की तीन कविताएँ

जोशना बनर्जी आडवाणी की तीन कविताएँ

 

मैं सम्राज्ञी थी  

 

जहाँ तुम्हारी ध्वनि थी

वहाँ दूसरी कोई ध्वनि नही थी

नही थी पत्तो की खड़खड़

धरती की कोई कम्पन नही थी

किसी तन्त्र मे कोई दोलन कोई

अनुनाद कोई हलचल नही थी

 

जहाँ तुम्हारी लेखनी थी

वहाँ कोई भी किताब नही थी

नही थी कोई शब्दो की वर्तनी

कवियो की कोई भी सूची नही थी

किसी भाषा का कोई भी शब्दकोष

कोई पाठन कोई भी कविता नही थी

 

जहाँ तुम्हारा मौन था

वहाँ कोई भी उच्चारण नही था

व्यंजनो का कोई वर्गीकरण नही था

स्वरग्रन्थि का कोई मूल्य नही था

नही था कोई वर्ण परिचय कोई

सर्वनाम कोई विशेषण नही था

 

बस इतना भर ही मेरा साम्राज्य था

बस इतनी भर ही मेरी सीमा थी

इसी ध्वनि, लेखनी और मौन की

मैं सम्राज्ञी थी

***

 

 

आदिवासी प्रेमी युगल ....

 

वो झारखंड जिले के संथल से

बत्तीस किलोमीटर दूर ऊसर भूमि

पर वास करती है

आँखो मे वहनि सा तेज

सूरत से शतावरी

मंदाकिनी से होंठ

काकपाली सी आवाज़

जंगली पुष्पो के आभूषण पहन

शिलिमुख बन धँस जाती है

नवयुवको के छाती मे

 

और वो .... श्याम वर्ण ओढ़े

जब अपने समुदाय संग

तटिनि पार करता है तो

सुरम्य लगता है

शोभन वाटिका रचने की चाह मे

देवो ने आदिवासियो का खेड़ा रचा

आदिवासी मानवो की श्रेणी के

सबसे शिथिल एंव वसुतुल्य

काननवासी हैं

 

इसी दल मे जन्मे दो देहो ने

प्रेम के लावण्य से और चक्षु के

कुरूशिये से फुलकारी बुनी है

उनके पास कोई तकनीकी यंत्र

नही जिसमे वो दिन रात प्रेम पुष्कर

मे नहान करे वरन् उनकी धरणी ही

एकमात्र सूत है जो दोनो को

समेटता है समीप

 

दलछाल की चटनी बना

वो अपने प्रेयस को खिलाती है

सबसे छिपकर

और वो उसे भेंट करता है

जंगली बैंगनी पुष्प

जिसे पाकर वो इन्द्राणी सा

इठलाती है

रात्रि जलसे मे वे दोनो जब

नृत्य करते है तो चंद्रमा भी

सोलह कलाओ से

परिपूर्ण हो दमकता है

 

कामदेव के गन्ने के धनुष से

आहत है दोनो

प्रेम के सातो आसमानो के

सबसे ऊपरी तह के बादल पर

विराजित हो विचरण करते है

वो अपनी प्रेयसी के लिये

बाँस, टहनी और फूलो से

फूलमहल गणना चाहता है

मोक्षदायिनी देवी की प्रार्थना मे

रख आया है मन की बात

 

और वो खुद को विसर्जित कर

देना चाहती है उसके प्रेम पोखर मे

उसके अंतिम स्मृति मे

केवल उसके प्रेयस का वास है

हाँ उसका प्रेयस

पीले तपन मे

सुरमयी सौम्य ब्यार के समान

छुपी ओट से टकटक करती

परिकल्पना के समान

 

उन जंगली गुफाओं मे

अंधेरो की आँखे मध्यम

उजाला कर शरण देते है

प्रेमी युगल को

उनके पैरो तले लाल मिट्टी

उरवर्क बनकर बेले खिंच देती है

जहाँ वे दोनो

वही प्रणय की शहनाई

 

वे कभी एक होंगे या नही

ये देवो का निषकर्ष

वर्तमान ही उनकी मज़बूत शाखें

जिनपर झूल उनके पेटो मे

गिलहरियाँ और तितलियाँ

फर-झड़ करते हैं

एक दूसरे के जालीदार ओट हैं

वे आदिवासी प्रेमी युगल ....

***

 

चल मेरे घोड़े टिक टिक टिक"

कैंसर से जूझता आदमी

कर बैठता है अपनी पत्नी से सच्चा प्रेम

 

पिता की अर्थी के इर्द गिर्द

बेटा गिनता है रिश्तेदारों की संख्या

 

माँ बाप को लड़ते देख सात साल

के बच्चे बहस कर बैठते हैं शिक्षकों से

 

तेज़ाब से झुलसी औरत

दुलत्ती पे रखती है ईश्वर को

 

छोड़े हुये दिलफेंक लड़के

फिर से फ्लर्ट करने की योजना बनाते हैं

 

छोड़ी गई बेवकूफ लड़कियाँ

कला की शरण मे चली जाती हैं

 

प्रेम की रिक्तता भरने के नाम

पर तकनीकी कौशल करता है सीनाजोरी

 

प्रेम पत्र अब कभी लिखे नही जायेंगे

सोशल मीडिया दिग्गजों के पीठ पर बैठकर

कहता है, "चल मेरे घोड़े टिक टिक टिक"

            ***

सम्पर्क: jyotsnaadwani33@gmail.com

पेन्टिंग: सन्दली वर्मा.  


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