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सन्तोष चतुर्वेदी की कविताएँ

सन्तोष चतुर्वेदी की कविताएँ

 

 

   गेंदे के फूल

 

ठण्ड की लय थोड़ी मद्धिम पड़ी है

सूरज के ताप की धुन

परवान चढ़ने लगी है धीरे धीरे

 

जीवन के एकरस सन्नाटे को तोड़ते

गेंदे के फूल खिल उठे हैं

अपनी भीनी भीनी सी महक लिए

 

हरे भरे पौधों की हरियाली के वृन्त पर

सज रहे हैं

एक धुन सरीखी बज रहे हैं

लाल, पीले, केसरिया आभा वाले फूल

 

बेहिचक कहा जा सकता है

यह गेंदे के फूल का मौसम है

 

कुछ बच्चों ने अपने बैडमिंटन की चिड़िया बना लिया है इन्हें

बैडमिंटन की ठोकर खा खा कर 

रेशा रेशा  छितरा जा रहे इस तरह

जैसे देवताओं ने खुश हो 

आसमान से बरसाई हो फूलों की पंखुड़ियां

इस तरह बच्चे फूलों को बना दे रहे हैं

खेल के सामान की तरह

कि यह दुनिया खेल खेल में कितना सफर तय कर आयी है

 

ये गेंदे के फूल हैं

कुछ वक़्त के लिए ही फूलते हैं

फूलना ही जैसे जीवन लक्ष्य है इनका 

फूल कर खुद को कुछ नया करते हैं

खिल कर खुद को कुछ पुराना करते हैं

यही तो जीवन है

यही तो दुनिया

 

गेंदे के फूल है

तमाम फूलों की तरह 

इनमें कभी फल नहीं आते

फिर भी कोई शिकन नहीं 

इनके चेहरे पर

उदास सी दुनिया में रंग बिखेरते हैं

दुःख भरी दुनिया में सुगन्ध फैलाते हैं

सफेद पड़ गए मन में रंग भरते हैं

शिथिल हो चुकी चाहतों में 

उमंग भरते हैं

और इतना कुछ जब हो आपके पास

तो जीवन में भला और क्या चाहिए

               ***

 

 

     अंक

 

अपने आप में अनूठे हैं

चेहरे पर एक ही निश्चय

मन में एक ही जुनून

कि कहीं भी हों

सिर्फ़ अंक जैसे ही दिखना है

 

यह उनकी ज़िद है कि

दुनिया भर में एक ही अंदाज़ में

बेतकल्लुफ देखे जा सकते हैं

 

एक ही नस्ल, एक ही धर्म 

एक ही जाति, एक ही कर्म

कहीं कोई अलगाव नहीं

कहीं कोई भेदभाव नहीं

 

लाख, करोड़ में हों या अरब खरब में

या हों सिर्फ इकाई या दहाई में

वे सिर्फ़ और सिर्फ़ अंक हैं

भाषा में भी अंक की 

अपनी पहचान बनाए बचाए हुए

 

सच कहूँ तो 

राजा या रंक नहीं

महज़ अंक होना चाहता हूँ

आज की इस दुनिया में

 

2

 

कई बार वे असंख्य लगते हैं

जब कभी रात आसमान की तरफ़ देखता हूँ

अनगिन सितारे टिटिमाते 

अँधेरे में सुराख करते नज़र आते हैं

जब किसी पेड़ की तरफ देखता हूँ

तो बेहिसाब पत्तियाँ धूप से लड़ती

हरियाली बिखेरती दिख जाती हैं

और जब कभी अपनी ही देह की तरफ़ झाँकता हूँ

तमाम रोम रंध्र खड़े मिल जाते हैं

देह को देह बनाते हुए

एक एक कर ये असंख्य बनते हैं

एक एक कर ये अनन्त बनते हैं

और इस दुनिया को वह चेहरा सिरजते हैं

जो उसे वाकई एक दुनिया बनाती है।

 

3

 

जन्मजात एकाधिकार वाली कोई बात नहीं

किसी भी अंक के आगे या पीछे 

कोई भी अंक हो सकता है

मसलन नौ के आगे एक भी

जो कहीं एक के आगे नौ की शक्ल में भी विराजमान हो सकता है

सबकी अपनी अपनी अहमियत

सबका अपना अपना खुद का चेहरा

कोई किसी से कम नहीं

जो होते हैं दिखते हैं वही

 

कुल मिला कर इकाई के अंक और शून्य मिल कर ही

अपने दम खम पर

अपने भरोसे पर

पूरी की पूरी गिनती बना डालते हैं

पूरा का पूरा पहाड़ा पढ़ा डालते हैं

 

यहाँ तक कि इस दुनिया में

शून्य भी निखर आता है

किसी अंक का सान्निध्य पा कर

 

शब्दों के नियम कानून

शब्दों को मुबारक

यह अंकों की दुनिया है

            ***

 

 

       दर्जी

 

हमें पता नहीं होता

लेकिन आहिस्तगी के साथ वह 

हर कपड़े में एक आकार की तरह शामिल होता है

आकार एक संगीत का 

संगीत एक सिलाई का

 

कोरे से कपड़े यहाँ मुकम्मल आकार पाते हैं

नाप जोख जहाँ जितना होना चाहिए

जैसे संगीत में जितना सुर होना चाहिए

जैसे कविता में जितना छन्द होना चाहिए

ठीक उतना ही

सुई बिल्कुल सही समय पर सही दिशा में राग अलापती है

और धागे जो रेखा चित्र खींचते हैं

कपड़े पर उतरते ही

जैसे बोलने लगते हैं

 

हर उत्सव हर तीज त्यौहार 

हर पर-परोजन में

उसकी व्यस्तता देखते ही बनती

हमारी होली के रंग और चटखार हो जाते

दीपावली के दीप मन मस्तिष्क में उजाला भर जाते

सच कहूँ तो हमारे इंसान बनने

हमारे सलीकेदार बनने में

तुम्हारी एक अदृश्य भूमिका होती

 

सिले सिलाए कपड़ों के फैशन के दौर में भी

तुम हर सिलाई हर बटन हर काज में

शामिल हो कविता की तरह

तुम्हारी उस कविता का एहसानमंद हूँ

जिससे सीखता हूँ कुछ न कुछ आज भी।

           ***

 

संपर्क: संतोष चतुर्वेदी, मोबाइल : 9450614857, ई मेल : santoshpoet@gmail.com

पेन्टिंग: सन्दली वर्मा. 


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