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अस्स्मुरारी नंदन मिश्र की तीन कविताएँ

अस्स्मुरारी नंदन मिश्र की तीन कविताएँ  

 

मेरे गाँव का पहाड़

पहाड़ों की‌ इतनी बड़ी दुनिमेरे गाँव का पहाड़

पहाड़ों की‌ इतनी बड़ी दुनिया में

इसको कौन गिनेगा

हो पहाड़ों की‌ कोई सभा

वहाँ कुर्सी तो क्या

सबसे पीछे खड़े रहने की जगह भी

शायद ही मिले

और यदि कह ही दिया जाए

अपने बारे में बताने को

तो क्या बताएगा

एकाएक जिसे चढ़ा दिया हो

किसी बड़ी सभा के मंच पर

उस बच्चे-सा खड़ा हो‌ जाएगा

अचकचाया और सकुचाया-सा

 

क्या बताए

कि एक नदी का बचपन तक नहीं देखा

कि आसमान के बादल लांघ जाते रहे खेल-खेल में

कि न समाधि के लिए एकांत रहा

न आरोहियों के लिए चुनौती

 

वह तो छाती तानकर यह भी नहीं कह सकता

कि आक्रांता लौट जाते रहे टकराकर

उसे तो हवा भी गुदगुदाकर निकल जाती रही

यहाँ तक कि होलिका की लुकाठी लिये बच्चे

दौड़ कर चढ़ जाते रहे चोटी तक

 

वह किसी के लिए दुर्गम नहीं रहा

किसी‌ के लिए अलंघ्य नहीं

वह तो हमारे गाँव की तरह ही छोटा रहा

हमारी तरह रहा नगण्य

 

जब जोर ही दिया जाए

बोलो... बोलो...

तो शायद यही कहे -

मैं तो चराता रहा बकरियाँ

खाता रहा वन-बैर

ज़मीन में खुभ गये लट्टू-सा रहा

मुझे मत बनाओ पहाड़

मरने की कौन कहे

मुझसे गिरकर कोई घायल भी नहीं हुआ

आज तक...

  ***

 

 

 

 

गरीब की दुआ

 

जी सरकार!

दुआ है आपकी

आपकीकृपासे सब राजी-खुशी है

 

हम ही हुए थे राजी

इधर आने को

और अब अपनी खुशी से लौट रहे

मालिक‌ की जय हो

न आते समय किसी ने रोका

और न ही जाते समय किसी को आपत्ति है

 

जी हुज़ूर माफ़ी!

है, आपत्ति है

लेकिन वे भी बहुत अच्छे आदमी हैं हुज़ूर

वे मेरे जाने से खफ़ा नहीं है

सरकार की बात नहीं मानने से खफ़ा हैं

ग़लती मेरी ही है हुज़ूर

पूरी तरह मेरी

 

लेकिन आपकी नज़र है हुकुम!

सब कुछ ठीक से हो रहा

सड़के वैसी ही हैं, जैसे आते समय थीं

दूरी अभी‌ भी सही-सही बता रहे मील‌ के पत्थर

धूप भी जेठ की है

और हवा भी

सब कुछ तो है मौसम के अनुसार ही

एक हम ही लौट रहे बेमौसम

माफ़ी हुज़ूर, माफी!

 

कुछ ग़लती हमारी चप्पलों की है मालिक

घिस गयी असमय

इसमें भला आप क्या ही कर सकते हैं

कुछ ग़लती हमारे तलवों की है

जो खून गिरा

कर रहे साफ़सड़कोंको गंदा

कुछ हमारे बच्चों की

जो रोने लग रहे बार-बार

हमारी औरतों ने अपने कोख गिरा दिये मालिक

जहाँ-तहाँ

उन्हें क्षमा करें 

आप तो बड़े-बड़े पोस्टरों में खड़े हो

हमारी देखभाल कर रहे थे माईबाप!

 

हो सके सरकार!

तो हमारे उन साथियों को भी माफ़ करें

जो मर गये

न जाने काहेतो

आपका बड़ा नाम है साहिब

तनिक भी दुख नहीं हुआ

तड़पने भी नहीं दिया मौत ने

तुरंत-फुरंत उठा ले गयी

इतनी आरामदेह मौत कौन नहीं चाहता है

एक गरीब की दुआ है

आपको भी ऐसी ही मौत मिले...

          ***

अशब्द अधरों का सुना भाष

वर्षों के अंतराल को

पाटती है बातचीत

 

अदृश्य-सा महीन एक तार है

बाँधता है

हवा की हल्की छेड़-से भी

सोत एक झनकार का बह निकलता

जाने कौन-सा संगीत है

कि जिसका व्याकरण देश और काल से अतीत है

 

भाषा मुग्ध हो निहारती है अलग खड़ी

अभी अर्थ को चाह नहीं किसी लिबास की

शक्तियाँ शब्द की सीखती हैं लीनता से

बल और आघात अभी दूर है... दूर है...

तान...

बस तान है

जो पकड़ लाता अपने अनुतान को...

 

बातचीत

एक बस कानों का विषय नहीं

आँखों से झरती है पराग-सी

पहुँचती है आँखों तक

गालों पर बिछलती है 

लरजती प्रत्यंग पर

 

दो नन्हें होंठों के काँपने मात्र में 

विश्व की रचित सभी काव्य-पंक्तियाँ

गूँजने लगती है

सार्वभौम-मंत्र-सी...

 

अनहद-सा नाद एक

जीवन-संवाद एक

देखते ही शिशु को

प्रवाहित-संचारित है...

   ***या में

इसको कौन गिनेगा

हो पहाड़ों की‌ कोई सभा

वहाँ कुर्सी तो क्या

सबसे पीछे खड़े रहने की जगह भी

शायद ही मिले

और यदि कह ही दिया जाए

अपने बारे में बताने को

तो क्या बताएगा

एकाएक जिसे चढ़ा दिया हो

किसी बड़ी सभा के मंच पर

उस बच्चे-सा खड़ा हो‌ जाएगा

अचकचाया और सकुचाया-सा

 

क्या बताए

कि एक नदी का बचपन तक नहीं देखा

कि आसमान के बादल लांघ जाते रहे खेल-खेल में

कि न समाधि के लिए एकांत रहा

न आरोहियों के लिए चुनौती

 

वह तो छाती तानकर यह भी नहीं कह सकता

कि आक्रांता लौट जाते रहे टकराकर

उसे तो हवा भी गुदगुदाकर निकल जाती रही

यहाँ तक कि होलिका की लुकाठी लिये बच्चे

दौड़ कर चढ़ जाते रहे चोटी तक

 

वह किसी के लिए दुर्गम नहीं रहा

किसी‌ के लिए अलंघ्य नहीं

वह तो हमारे गाँव की तरह ही छोटा रहा

हमारी तरह रहा नगण्य

 

जब जोर ही दिया जाए

बोलो... बोलो...

तो शायद यही कहे -

मैं तो चराता रहा बकरियाँ

खाता रहा वन-बैर

ज़मीन में खुभ गये लट्टू-सा रहा

मुझे मत बनाओ पहाड़

मरने की कौन कहे

मुझसे गिरकर कोई घायल भी नहीं हुआ

आज तक...

  ***

 

 

 

 

गरीब की दुआ

 

जी सरकार!

दुआ है आपकी

आपकीकृपासे सब राजी-खुशी है

 

हम ही हुए थे राजी

इधर आने को

और अब अपनी खुशी से लौट रहे

मालिक‌ की जय हो

न आते समय किसी ने रोका

और न ही जाते समय किसी को आपत्ति है

 

जी हुज़ूर माफ़ी!

है, आपत्ति है

लेकिन वे भी बहुत अच्छे आदमी हैं हुज़ूर

वे मेरे जाने से खफ़ा नहीं है

सरकार की बात नहीं मानने से खफ़ा हैं

ग़लती मेरी ही है हुज़ूर

पूरी तरह मेरी

 

लेकिन आपकी नज़र है हुकुम!

सब कुछ ठीक से हो रहा

सड़के वैसी ही हैं, जैसे आते समय थीं

दूरी अभी‌ भी सही-सही बता रहे मील‌ के पत्थर

धूप भी जेठ की है

और हवा भी

सब कुछ तो है मौसम के अनुसार ही

एक हम ही लौट रहे बेमौसम

माफ़ी हुज़ूर, माफी!

 

कुछ ग़लती हमारी चप्पलों की है मालिक

घिस गयी असमय

इसमें भला आप क्या ही कर सकते हैं

कुछ ग़लती हमारे तलवों की है

जो खून गिरा

कर रहे साफ़सड़कोंको गंदा

कुछ हमारे बच्चों की

जो रोने लग रहे बार-बार

हमारी औरतों ने अपने कोख गिरा दिये मालिक

जहाँ-तहाँ

उन्हें क्षमा करें 

आप तो बड़े-बड़े पोस्टरों में खड़े हो

हमारी देखभाल कर रहे थे माईबाप!

 

हो सके सरकार!

तो हमारे उन साथियों को भी माफ़ करें

जो मर गये

न जाने काहेतो

आपका बड़ा नाम है साहिब

तनिक भी दुख नहीं हुआ

तड़पने भी नहीं दिया मौत ने

तुरंत-फुरंत उठा ले गयी

इतनी आरामदेह मौत कौन नहीं चाहता है

एक गरीब की दुआ है

आपको भी ऐसी ही मौत मिले...

          ***

अशब्द अधरों का सुना भाष

वर्षों के अंतराल को

पाटती है बातचीत

 

अदृश्य-सा महीन एक तार है

बाँधता है

हवा की हल्की छेड़-से भी

सोत एक झनकार का बह निकलता

जाने कौन-सा संगीत है

कि जिसका व्याकरण देश और काल से अतीत है

 

भाषा मुग्ध हो निहारती है अलग खड़ी

अभी अर्थ को चाह नहीं किसी लिबास की

शक्तियाँ शब्द की सीखती हैं लीनता से

बल और आघात अभी दूर है... दूर है...

तान...

बस तान है

जो पकड़ लाता अपने अनुतान को...

 

बातचीत

एक बस कानों का विषय नहीं

आँखों से झरती है पराग-सी

पहुँचती है आँखों तक

गालों पर बिछलती है 

लरजती प्रत्यंग पर

 

दो नन्हें होंठों के काँपने मात्र में 

विश्व की रचित सभी काव्य-पंक्तियाँ

गूँजने लगती है

सार्वभौम-मंत्र-सी...

 

अनहद-सा नाद एक

जीवन-संवाद एक

देखते ही शिशु को

प्रवाह

 

 

 

 

 


टिप्पणियाँ

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  3. कवि की स्मृतियों में आदिम राग वैसे ही लौटते और चढ़ते रहे हैं जैसे बच्चे होलिका की लुकाठी लेकर चढ़ जाते रहे हैं पहाड़ पर । पहाड़ की नम्रता देखिए कि वह गांव की तरह अपने छुटपन को समेटे अलंघ्य है । दुर्गम नहीं है । वह भी नगण्य है तो गांव की तरह सरल और अपने सादेपन से। यह गांवों की वह व्याख्या है जो अपने पहाड़ की तरह नम्र है , सरल है , स्वीकार भाव है , स्नेह के सामर्थ्य से सम्पन्न है जो अपनी तलहटी में गिरने नहीं दिया । जन साधारण की व्याख्या हिंदी कविता में अस्मुरारी नंदन मिश्र के यहां झंडाबरदार न होकर सरल और सहज रूप में देखा गया है ।

    'गरीब की दुआ' अद्भुत और मारक व्यंजना से लैस कविता है । अस्मुरारी नंदन मिश्र की कविताई को कसौटी में रख देखे ,जाने वाली कविता है । बगैर कोई उथल-पुथल और हलचल के जितने साफ़गोई में लाकडाऊन की भयावहता को इस कविता में उन्होंने दर्ज किया है ; शायद कम ही कवियों ने किया । मुझे याद आता है विरेन्दर भाटिया , विनय कुमार और रजत कृष्ण की कविता ने इसी मानक सादगी वह सरलता से उन्हें भी ध्यातव्य बनाए । अद्भुत विनम्रता और सादगी से अस्मुरारी ने इस कविता में न सिर्फ जो कहना था कहा , बल्कि अनकहे इशारों में अनेक बातों को भी कह दिया

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  4. अच्चा ब्लॉग है कुंदन सर. अच्छी सामग्रियां आ रहीं हैं इस पर. शुभकामनायें !

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  5. अच्छी प्रासंगिक कविताएं।
    आपकी इस पहल के लिए आपको बधाई, शुभकामनाएं।

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