पंकज मित्र की कहानी
चमनी गंझू की मुस्की
जब से इमाम हाउस से बाहर आई है चमनी गंझू, आई क्या है फेंक दी गई है,
उसके होंठों पर जो नन्हीं सी मुस्कान चिपकी है सो चिपकी ही हुई है।
मुस्कान दरअसल इतनी बड़ी है नहीं कि उसे मुस्कान कहा जा सके और हँसी तो बिलकुल भी
नहीं। सही शब्द तो कारू गंझू ने दिया - ‘कोन मुस्की’ हौ रे बाप! हावा-बतास लग गेलो का? हावा-बतास लगने की
बात कारू ने शायद इसलिए कही क्योंकि मोहल्ले में इमाम हाउस भूतबँगला के रूप में
मशहूर था-रहस्य भरी ऊँची-ऊँची झाड़ियाँ, संदिग्ध से दिखते भेद
भरे लम्बे घने पेड़ों के बीच एक पुराना बँगला-पहले जंगल रहा होगा इधर लेकिन लोग
कहाँ मानते हैं! जंगलों के बहुत अन्दर तक मकानों के निर्माण अविराम चलते रहने से
और पृथ्वी के किसी भी कोने में जंगल, रेगिस्तान, पहाड़, नदी-नाला, गड़हा, ढोड़हा-कहीं पर भी अपने नाम एक टुकड़ा आरक्षित करवा लेने की चाहत के कारण
इमाम हाउस के चारों ओर भी एक मोहल्ला-सा उग आया था। लेकिन इमाम हाउस के रहस्यों को
भेद सकने की ताकत अभी इस, मोहल्ले में पैदा नहीं हुई थी। लोग
बस जंगलिया (छोटा जंगल) के बीच से कभी हरे रंग की पुरानी बीटल गाड़ी तो कभी हरे ही
रंग की शिकारी जीप निकलते-घुसते देखते थे। उसमें बैठे होते गोरे ललछौह लोग-इमाम
परिवार के सदस्य और कभी-कभी कुछ विदेशी भी। जीप के पीछे शिकार जाल वाली ट्राॅली जिस पर लटककर बैठा रहता था इस लोक का प्राणी
कारू गंझू। हाँ, कभी-कभी कुछ काली औरतें भी जीप में बैठकर
अन्दर जाती दिखती थीं-घर के कामों के लिए सुदूर गाँवों से लाई हुई। लेकिन किसी
मोहल्ले वाले ने कभी किसी ऐसी औरत को बाहर आते नहीं देखा था। एक अनुमान के अनुसार उन्हें
रात के अँधेरे में वापस भेज दिया जाता होगा क्योंकि रात-बिरात गाड़ियों की
घुर्रघुर्र आवक-जावक लगी रहती थी और-‘चयाऊँ! की आवाज के साथ
लोहे का पुराना जंगआलूदा गेट खुलता था। शुरू-शुरू में चैंकता था मोहल्ला फिर
धीरे-धीरे अभ्यस्त होता गया। चमनी गंझू ही शायद वह अकेली औरत थी जो दिन के उजाले
में उस रहस्यलोग से बाहर आई थी या फेंक दी गई थी पता नहीं, लेकिन
वह नन्हीं सी मुस्कान, जिसे कारू ने मुस्की कहा था बदस्तूर
चिपकी हुई थी अब तक। न कुछ बोलती न चालती। कारू ने झोंटा पकड़कर आने से पहले प्रेम
से हिलाया-झुलाया भी लेकिन चमनी तो सिर्फ टुक-टुक देखे और बस वही मुस्की...।
रहस्यमयी ऊँची झाड़ियों तथा भेदभरे घने पेड़ों से घिरे उस कई एकड़ के
बँगले में कितने लोग रहते थे, ठीक से बताना मुश्किल था। स्थायी-अस्थायी, देशी-विदेशी
तरह-तरह की उपस्थितियों से यह बँगला किंवदन्तियाँ उत्पादित करता रहता था। उस घर
में रहने वाले काम क्या करते थे, इसके बारे में भी
जनश्रुतियों के ही स्रोत उपलब्ध थे। कौन किसका क्या लगता है उस घर में इसमें भी
भारी कंफ्यूजन था, मसलन-सबसे उम्रदराज दिखनेवाले इमाम जो थे
उनके बारे में सबको लगता था कि वही सबके बाप हैं। पर दरअसल वह बेटू थे और
अपेक्षाकृत युवा दिखनेवाले इमाम बापू थे। हरदम चुस्त-दुरुस्त, बालों में करीने से लगा खिजाब। जब तक शिकार पर रोक नहीं लगी थी इलाके के
मशहूर शिकारी के रूप में ख्याति थी उनकी। विदेशी शिकारियों के मार्गदर्शक। नफीस
अंग्रेजी काम आती थी हमेशा। वैसे भी बापू इमाम की पैदाइश भी शायद विदेशी माँ से थी
जो इन लोगों को छोड़कर हमेशा के लिए स्विट्जरलैंड या जाने कहाँ चली गई थी। शादियों,
बीवियों वगैरह की संख्या के बारे में इमाम हाउस के बारे में निश्चित
रूप से कुछ बता पाना सम्भव भी नहीं था - सब सुनी-सुनाई बातें थीं। मोहल्ला और शहर
में पूरे पेज थ्री की हैसियतवाला मामला था। पुराने लोग बताते हैं कि बापू इमाम ने
विदेशियों के जरिए शिकार से अकूत दौलत कमाई थी और गुस्सैल इतने कि बेटू इमाम को
पूरी तरह बेदखल कर दिया था किसी झगड़े के दौरान जो कि इमाम हाउस की दिनचर्या में
शामिल था। बड़े शिकारी थे तो किसी की हिलती हुई चीज पर नजर टिक जाती थी इनकी और घात
लगाकर दबोच ही लेते थे। शिकार किसी भी तरह काहो, शिकार से
कोई परहेज ही नहीं थाउन्हें। खासतौर पर जंगली देसी शिकार हो तो...कारू गंझू ने
वैसे साफ तौर पर कुछ देखा तो नहीं लेकिन उसे लगताहै कि चमनी जरूर हिलती-डुलती रही
होगी बापू इमाम की नजरों के आगे। आखिर कारू को भी तो सालों का अनुभव था जीप के
पीछे बैठकर बापू इमाम के साथ जंगलों की खाक छानने का। बहुत पक्का निशाना था बापू
इमाम का-जंगली सूअर, बारहसिंघा, चीतल,
शुरू-शुरू में बाघ भी, लकड़बग्घे तो कई-कई बार।
लकड़बग्घों के आतंक से मुक्ति दिलाने के लिए सरकार की तरफ से भी बुलाहट होती थी
बापू इनाम के जवानी के दिनों में। जंगलात महकमे के हाकिमों का तो काम ही नहीं चलता
था उनके बिना। पुराने अंग्रेज हाकिम लोग जवान बापू इमाम को कहते थे- ‘मि. इमाम द जंगल सीम्स टु हैव गॉन इन्टू योर ब्लड!’ बापू
इमाम हँसकर कहते थे,-‘नो सर! आय वुड लव द जंगल टू बी अंडर
माय थाईज एंड स्कॉच इन माय ब्लड।’
-यू डर्टी माइंड,-हँसकर उड़ा देते
थे साहब लोग। अकूत दौलत और असीम क्रोध की दन्तकथाएँ प्रचलित थीं। एक बार एक नए आए
बैंक मैनेजर ने उनका एक चेक लौटा दिया यह कहकर कि सिग्नेचर नहीं मिल रहा, फिर से करवा के लाइए। तुरन्त अपनी जीप में दो-तीन बड़े-बड़े सूटकेस लादकर
बापू इमाम पहुँच गए बैंक और अपना एकाउंट बन्द करने और सारा पैसा निकालने को कहने
लगे। कहते हैं कि यह इतनी बड़ी रकम थी कि अव्वल तो बैंक में तत्काल उपलब्ध नहीं थी
और बैंक मैनेजर पैर पकड़कर माफी माँगने लगा कि उसकी तो नौकरी ही खतरे में पड़ जाएकी
कि इतना बड़ा कस्टमर बैंक से नाराज कैसे हो गया। बड़ी मुश्किल से माने बापू इमाम। और
बापू इमाम के ठीक उलट थे बेटू इमाम। कारू गंझू बताता है कि जब पहली बार शिकार पर
साथ ले गए थे बेटू को और एक बारहसिंघे की गर्दन के पार कर गई थी गोली। फिर बेटू की
राइफल हाथ में थमाकर मरे हुए बारहसिंघे पर एक पैर रखवाकर फोटो खींचनी चाही थी बापू
इमाम ने तो बारहसिंघे की गर्दन से भलभल बहते खून को देखकर ढेर सारा कै कर दिया था
बेटू ने-‘यू बास्टर्ड’- कहकर एक
झन्नाटेदार झापड़ पड़ा था बेटे को और इसी झापड़ ने बेटू इमाम की सोच की पूरी दिशा ही
बदल डाली थी। एकान्त में घंटों बैठकर सोचते रहते, अँधेरे में
निहारते रहते, फिर रात-रात भर जागकर पेंटिंग्स बनने लगे।
पेंटिंग्स सम्बन्धी किताबें पढ़ने लगे-विंची से लेकर वॉन गॉग, रेम्ब्राँ, डाली, पिकासो सब के
बारे में किताबें जुगाड़ीं। ग्रेट मास्टर्स की पेंटिंग्स की खूबियाँज तलाशते-कभी
ब्रश उठा लेते तो जंगलों के दृश्य रच डालते। कभी कलम उठा लेते तो कोई आर्टिकल लिख
मारते किसी आर्ट जर्नल के लिए। बापू और बेटू में दो ही स्थानों पर समानताएँ
थीं-पहली दोनों की अंग्रेजी अच्छी थी, यहाँ तक कि गाली-गलौज
का आदान-प्रदान भी अंग्रेजी में ही हुआ करता था और दूसरी, शाम
के बाद दोनों को स्काॅच की बड़ी तगड़ी प्यास लगती थी जो बापू इमाम को तो आसानी से
उपलब्ध हो जाती लेकिन बेटू को काफी तिकड़म भिड़ानी पड़ती थी। आमतौर पर बापू के सेलर
ही-कारू गंझू को कुछ पैसा देकर कभी यूँ ही पटा-फुसलाकर और बाद में तो चमनी ही...
बेचैन रहते थे बेटू इमाम। कोई खास दिशा नहीं मिल रही थी, पहचान भी नहीं। पेंटिंग्स
में भी मास्टर्स की नकल से कोई फायदा था नहीं। हजारों लोग तो लगे थे इसमें। हरी
बीटल को जंगलों में किनारे लगाकर आसपास के गाँवों में घूमा करते बेजारी में-तेजी
से सफेद होते बाल, अधेड़ावस्था की ढलान पर ढुलकती उम्र के
बावजूद चेहरा बिलकुल बच्चों-सा। पतले लाल होंठ, महीन जनाना
आवाज, खादी का कुर्ता-पाजामा और पैरों में कैनवस के जूते।
शुरू में गाँववाले उसे पादरी समझ लेते और पास आ जाते-शायद कुछ टॉफी, बिस्किट वगैरह बाँटें, कुछ भाषण-वाषण दें। लेकिन जब
बहुत देर तक बेटू इमाम किसी पर ध्यान न देकर अपने में खोए रहे -जंगल, पहाड़, आकाष की तरफ देखते रहे तो लोग भी ‘पगला हौ कोनो‘ कहकर हट गए। चमनी गंझू को जब चुँआ
(नाले जैसा गड्ढा) से पीने का पानी ले जाते देखकर महीन जनाना आवाज में कहा- ‘थोड़ा पानी मिलेगा।‘ हँसने लगी चमनी खिलखिलाकर। पानी
तो पिला दिया और पूरे जोड़ापाथर गाँव में प्रचार कर आई- ‘पगलवा
के आवाज तो एकदमें मौगी जैसन हौ।‘ कुछ बच्चे सुनने भी आए कि
क्या सचमुच ऐसा था पर निराश होकर लौट गए क्योंकि बेटू इमाम लम्बे समय तक पहाड़ी की
ओर ताकते रहे, कहा एक शब्द नहीं। कैनवस निकालकर पहाड़ी की
तस्वीर बनाने लगे पूरी तन्मयता से झाँकती आवाज आई थी-फोटू तो बढ़ियाँ बनावहीं।
पहड़वा में भी फोटू बनल हौ। एक बार लकड़ी-झूरी चुने गेलियो न तो देख लियो (वाह फोटो
तो अच्छी बनाते हो।उस पहाड़ में भी फोटो बना है, एक बार जलावन
चुनने गई थी तो देखा था)।
बेटू इमाम
बआवाजे बुलंद चौंके-अैंय! पहाड़ में चित्र! उत्तेजना से लाल हो आया था चेहरा। महीन
जनाना आवाज काॅपी- ‘कहाँ चलो तो।‘ किसी
खजाने के हाथ लग जाने की सम्भावना से दिल हुमक रहा था।
-अभी हमरा
भात रींधना हौं,- चमकी ने बहाना बनाया- ‘कचिया (पैसा) देभी तो....
बेटू इमाम
ने पलट डाली कुत्र्ते की जेबें। सौ के आसपास रूपए निकले। सब चमनी के हाथों में- ‘चल अब.....
-ठहर ने।
चोरबती (टार्च) नॉय होै? हुआँ तो दिन में भी अंधार रहो हे।
देखबे कैसे फोटु?
बेटू इमाम
का हताश चेहरा देखकर- ‘ अच्छा चल मोमबत्तिया ले लें।‘
कैंटीली
झाड़ियों को पार करते बड़ी मुश्किलों से ऊपर पहुँचकर फिर जो मोमबत्तियों की नीमरोशनी
में गुफा में छिपे खजाने को देखा तो आँखें फटी रह गई। अस्फुट स्वर में बोले-वाउ!
चैलकोलिथिक रॉक आर्ट! अनगढ़ हाथों से बने गुफा की दीवारों पर भित्तिचित्रों का
खजाना-पेड़-पौधों, जानवर, जानवरों के
शिकार के आदिम चित्र-रंग कहीं-कहीं फीके मटमैले जरूर हो गए थे।
-चल अब यहीं
रहबे का? ‘-चमनी उकताकर जा रही थी लेकिन बेटू तो बहुत दूर
देख रहे थे- ‘व्हाट ए फार्चून! ‘आदिम
गुफा चित्रों के खोजकर्ता बेटू इमाम-प्रेस, मीडिया, डिस्कवरी चैनल, नैशनल ज्योग्राफिक-दूसरे ही दिन कई
सर्चलाइटें, कैमरे वगैरह लेकर आए। विभिन्न कोणों से तस्वीरें
लेते रहे। इन मामलों में देर करना बिलकुल ठीक नहीं। झटपट प्रेस कॉनफ्रेन्स कर डाली
जिसमें विस्तार से दुर्गम अभिमान और दुर्लभ खोज की व्याख्या की । एक बड़ा-सा
आर्टिकल चित्रों के साथ पुरातात्विक धरोहरों के एक नामी जर्नल को मेल कर डाला।
इंटैक के दल को न्योता भी भेज दिया। दो-तीन महीने तक तो इतने व्यस्त हो गए कि बेटू
कि कभी किसी दल के साथ, कभी टी.वी. चैनलवालों के साथ,
कभी किसी डाक्यूमेंट्री वाले के साथ, तो कभी
वल्र्ड हेरिटेज की टीम के साथ। बेटू इमाम ही आधिकारिक स्रोत थे तमाम जानकारियों
के। कभी-कभी चमनी के लिए कृतज्ञता जैसी लिसलिसी चीज का अनुभव भी करते थे लेकिन
फुर्सत.... तमाम तरह की संस्थाएँ-चित्रकला वाली, एन.जी.ओ.
वाली, पर्यावरण वाली खड़ी होने लगीं उनके आसपास-सबको वक्त
देना पड़ता था।
बापू इमाम
के एकान्त में खलल पड़ने लगा था। इमाम हाउस कभी भी इतने प्रकाश में नहीं रहा था।
रहस्यभरी झाड़ियों के बीच भेदभरे एकान्त का आदी था वह। किंवदन्तियाँ थी जो बहकर
बाहर आती थीं और रहस्य था जो रिसता था। पर बेटू थे कि तरह-तरह के रहस्यों के
उद्घाटन में ही लग गये थे। कई जगह भित्तिचित्र मिले, कहीं
रंगीन मृद्भांड, कहीं पुरातात्त्विक अवशेष। छोटे से कस्बे के
ऐसे बड़े नाम बन चुके थे बेटू जिन्हें अन्तर्राष्ट्रीय कला जगत् में ज्यादा जाना
जाता था। स्थानीय लागों की खास रूचि नहीं थी कि बापू इमाम के शिकारी जीप में बैठकर
रातोरात आदिवासी लड़कियाँ कहाँ से आती हैं और कहाँ चली जाती हैं। कारू गंझू का कहना
है कि उन्हें घेरेलू कामों के लिए दिल्ली, मुम्बई, दुबई, न्यूयार्क भेजा जाता है। नौकरी दिलवाने की
एजेंसी चलाते थे बापू इमाम आजकल। हरी बीटल जब एक दिन चलकर पहुँची चमनी के गाँव,
शायद कृतज्ञता का लिसलिसापन खींच लाया था बेटू को। सोहराय (दिवाली)
करीब थी। घरों की दीवारों की रंगाई-पुताई चल रही थीं। गेरू से पोतकर रंग-बिरंगे
चित्र बनाए जा रहे थे। कहीं काला रंग लगाकर ऊपर से गेरू पोतकर कंघी से खुरचकर
तरह-तरह की आकृतियाँ-साँप, मोर, हिरण,
बैल, शिव। चकित ठकित रह गए थे बेटू। एक-एक
मोटिफ, एक-एक आकृति देखकर-कितनी मेल खाती उन गुफा चित्रों से
महीन जनाना आवाज में पूछा चमनी से- ‘और क्या बनाती हो?
कब-कब बनाती हो?‘
-इहे सोहराय
परब में, धनकटनी के बाद आर शादी-बियाह के समय, कोहबर में तरह-तरह के डिजैन बनो हो।
-खोबर आर्ट!
सोहराय आर्ट!-चमनी ने जैसे फिर एक खजाना दिखा दिया था। कृतज्ञ भाव से चमनी को
देखा। चमनी जोर-जोर से हँस रही थी।
-खोबर
नै-कोहबर! शादी के बाद होवो न कोहबर।
-तुम्हारा
शादी हुआ चमनी ?
-होलो,
फिर छुटा-छुटी हो गेलो, भाग गेलो करमजरूआ
कमावै-दिल्ली, बम्बे, कहाँ। ओहीं रख
लेलथु केकरो। (हुआ था। फिर अलग हो गए। कमाने भाग गया वह दिल्ली, मुम्बई। वहीं रख लिया किसी को)
-कैसे चलता
है तुम्हारा?
-कहाँ चलतो?
बड़ी मुश्किल हौ।
कैमरा
निकालकर दनादन तस्वीरें ले रहे थे बेटू सोहराय के चित्रों के साथ चमनी की भी। पूरी
दीवार पर बने चित्र के साथ खिलखिलाती साँवली चमनी गंझू। दो सौ रूपये निकालकर दिए।
-रख लो,
तुम्हारा फोटू का है।
-अभी
सुनेहियों नरेगा-उरेगा का होतो तो काम मिलतो हमिन के।
-मारो गोली
नरेगा-फरेगा को। हमरे साथ चल काम देबो।
-कौन काम?‘
-शंका थी चमनी को।
-वही फोटो
बनाने का वही दिवार वाला फोटो उतार दे कागज पर बस। लेकिन हमारे वहाँ रहके करेगी।
हर फोटो का दो सौ रूपया। बोल?
चमनी ख़ुश।
काम-धाम कुछ नहीं, कोहबर सोहराय वाला फोटेा बनाओं और दो सौ
रूपया।-बप्पा!पगलवा तो बड़ी काम के आदमी हौ।‘
-आर भी जान
हथु सब। (और भी जानती है सब)
-ले लो
दो-तीन जन को। बात करके रखिहौ सबसे। हम कल फेर एबो-उन्हीं की जबान में बात करने की
कोशिश करके दाना डाल दिया था बेटू इमाम ने। आस्ट्रेलियन हाईकमीशन बहुत दिनों से ‘इंडीजेनस, इंडीजेनस’, कर रहा
था। तस्वीरें भेज देगा, पसन्द आ गई तो...एक राइटअप के साथ
तस्वीरें मेल कर दीं-अॅसपीशस सिम्बल्स ऑफ़ फर्टिलिटी एंड फीकंडिटी-ट्राइबल
एक्सप्रेशंस-चमनी की बनाई सोहराय की तस्वीरें खासतौर पर पसन्द आ गई थीं उन्हें। और
तस्वीरें भेजने को कहा तभी ग्रांट अप्रूव हो पाएगा।
कई औरतों को हरी बीटल से उतरते देखकर चैंके थे बापू इमाम-कहीं पुत्र
ही तो प्रतियोगी नहीं बन रहा। लेकिन जब एक किनारे बैठकर कैनवस पर भेलवा के काला
रंग, गेरू, खड़िया पोतकर सुखाते, कंघी से आकृतियाँ उकेरते हाथ,
कभी उँगलियों से, कभी दूसरे रंगों का
इस्तेमाल-हर कटाव-घुमाव से उकेरती आकृतियाँ-पेड़ के अन्दर शिव, लिपटे साँप, नाचते मोर, चिंघाड़ते
हाथी-तरह-तरह के मोटिफों में कल्पनाशीलता। हर तस्वीर के पूरा होते ही बेटू इमाम लग
जाते, कलात्मक फ्रेमिंग के बारे में बढ़ई को समझाते, छोटे-बड़े कैनवस, तस्वीरें मेल करते, कूरियर करते-आस्ट्रेलियन हाईकमीशन अपने यहाँ के कुछ आर्ट डीलरों से भी बात
कर रहा था।
दूसरी औरतें दो-तीन दिन में वापस चली गईं अपनी मजदूरी लेकर लेकिन चमनी
को रोक रखा था बेटू ने। वैसे भी हर दिन दो सौ रुपए की कमाई कम नहीं थी। खुश रहती
तो अनवरत बोलती रहती थी चमनी। कभी-कभी परेशान भी हो जाते बेटू। लेकिन भारत उत्सव
जो आस्ट्रेलिया में होना था उसमें ट्राइबल एक्सप्रेशंस की गैलरी में चमनी के
सोहराय पेंटिंग्स की प्रदर्शनी की बात चल रही थी।
-हवाई जहाज में उड़ाके ले जैबो तोरा,-बेटू आजकल ज्यादा उसी की जबान में बात करने की कोशिश करते।
-धत, हम नै जैबो बप्पा। मोर
गेलियों गिर के तो?
-हम रहबो ने,-अपने बच्चे जैसे
चेहरे पर लम्बी मुस्कान लाकर बोले थे बेटू-‘चल अब खाना बना,
बड़ी भूख लागल हो।’-आवाज में लाड़ भरा था।
इधर कुछ दिनों से उन्हें चमनी में एक कलाकार के अलावा भी बहुत-कुछ नजर
आने लगा था। खासकर जब से ट्राइबल आर्ट जर्नल में चमनी की चमकदार तस्वीर छपी
थी-सोहराय उकेरी दीवार के सामने लजाई-सी चमनी। देर रात तक जगनेवाले बेटू को
तीन-चार बार काली चाय की तलब होती थी-चमनी लेकर हाजिर। एक दिन बहुत पीने का इसरार
किया तो-‘दुर! हम ना पीबो इ करिया
तितकुट (कड़वी) चाय। एकरा से तो बढ़ियाँ हो उ वाला दारूआ (शराब) जे तोर बाप पियो हो।’
-ओ! चैंके थे बेटू-तो शिकारी ने चमनी पर भी चारा डालना
शुरू कर दिया है स्कॉच के जरिए। तभी शाम
होते ही चमनी के पास... ‘ओन्ने भी खाना बना देहियो न,
ओकरे मजूरी में।’-चमनी खिलखिलाती स्कॉच का अद्धा निकालती थी। खुद भी पीती, बेटू को भी पिलाती साकी बनकर। शुरू-शुरू में बेखयाली में ध्यान नहीं दिया
था बेटू ने।
-कोय जरूरत ना हो ओन्ने जाए के। उ बुढ़वा बड़ा पापी हो।
-जनाना आवाज में किकियाकर डाँटा था बेटू ने। थोड़ी देर को तो सहम गई चमनी लेकिन फिर
गरजकर बोली-‘सुन तोर जोरू नाय हियौ हम। चल हमरा पहुँचा दे
तुरन्त। ऐसन कमाय पर मूत देबौ।’
बेटू इमाम का चेहरा फक! क्या बोल रही है?
भारत उत्सव में कुछ ही दिन बाकी रह गए हैं। पासपोर्ट-वीजा सब बन चुका
है। आस्ट्रेलिया की ट्राइबल आर्ट गैलरी में गूँज रहा है चमनी गंझू का नाम। आर्ट
डीलर से भी बातचीत करीब-करीब फाइनल स्टेज में है। सौ से ऊपर आर्डर की सम्भावना
हैझारों डाॅलर का सवाल है। भलर-भलर रोने लगे बेटू इमाम। चमनी ने देखा तो-
-दूर पगला! मौगियन तरी कानही (औरत की तरह रोते हो) चल,
उठ-उठ।
-रुको!-उठकर कुर्ते में मुँह पोंछा और दूसरे गेट से
घूमकर सीधे बापू इमाम के सामने पहुँचे।
-डोंट यू डेयर मेस अप विद माय आर्टिस्ट्स। यू ब्लडी
वूमनाइजर।
राइफल की नाल साफ करते बापू इमाम ने लाल आँखों से घूरा बेटू को।
-आयम लीस्ट बादर्ड एबाउट योर फकिंग आर्ट एवं आर्टिस्ट्स,
एंड इफ यू डेयर कम दिस साइड अगेन आई विल शूट यू। यू इम्पोटेंट
रास्कल!
यह प्रेमपूर्ण वार्तालाप आगे भी जारी रहता अगर तनी हुई राइफल की नाल
के सामने चमनी नहीं आ जाती और बेटू इमाम के झाग उगलते मुँह को साफ कर उसे इस
अंडरग्राउंड कमरे में नहीं आती जिसे बेटू ने ही अपने ‘बैक टू नेचर’ के फितूर में बनवाया था। पूरी तरह से हवा और रोशनी के लिए प्रकृति पर
निर्भर-मिट्टी की दीवारें, ठंडा एकान्त। चमनी ने उसमें भी
कोहबर चित्रों से दीवारों को सजाया था। कभी-कभी किसी विदेशी जोड़े को बेटू इसे
किराए पर देते थे जिन्हें ‘हनीमून विथ नेचर’ का फितूर रहता। बड़ी देर तब चमनी की गोद में मुँह छिपाकर पड़े रहे थे बेटू।
हिलक-हिलककर पूछते बार-बार - ‘हमरा से शादी करभी।’ उत्तर में बार-बार चमनी उनके लाल होंठों को अपने काले होंठों से बन्द कर
देती थी। ठडे एकान्त के असर से हो या प्रकृति के करीब होने से, दोनों धीरे-धीरे प्राकृतिक अवस्था में आ चुके थे और तभी धड़ाम!! बेटू उन
तमाम रतजगों को जी भर कोसने लगे जिनकी वजह से पेट का ऐसा हाल हो गया था। चमनी ने
अपने ऊपर से उन्हें फेंकते हुए कहा था-‘धुत! चोदे के न चादे
के, खाली उपर चढ़ के पादे के।
भारत उत्सव से लौटकर आने के बाद ही वह नन्ही-सी मुस्कान या कारू गंझू
के अनुसार ‘मुस्की’
स्थायी रूप से चिपकी हुई पाई गई थी चमनी के चेहरे पर। बेटू इमाम के
पहले से किए जा रहे ग्राउंडवर्क का ही नतीजा था कि आस्ट्रेलियन मीडिया ने चमनी
गंझू को हाथोहाथ लिया था। चकाचैंध से चमत्कृत थी चमनी-जगर-मगर देश, चकाचक लोग, झकाझक झमकती फ्लैश लाइटें, चारों तरफ से तने कैमरे, माइक का जखीरा। बेटू ने
ढाढस बँधाया घबराई चमनी को-कुछ बोलना नहीं है, बस मुस्कराते
रहो। हर प्रेस ब्रीफिंग में बेटू इमाम सब समझाते-कोहबर सोहराय आर्ट के बारे में।
इसके सम्बन्ध पाषाणकालीन कला से, सिन्धुघाटीसभ्यता से और फिर
बेजोड़ कलाकार चमनी गंझू के बारे में। ‘अनबिलिवेबल’, ‘करिश्माटिक’, ‘द न्यू फेस ऑफ़ ट्राइबल आर्ट ऑफ़ इंडिया’ - मीडिया गरज रहा
था, चमनी की चमकीली तस्वीरें उछाल रहा था, तो तेज से तेजतर चैनलों के समय में यहाँ कितनी देर लगती! एयरपोर्ट पर ही
फ्लैश लाइटें चमकने लगीं। वहाँ भी वही मंत्र-बस मुस्कराते रहौ। चमनी मुस्की चिपकाए
रही, चिपकाए रही। कई दिनों से करते-करते आदत सी बन गई-कैमरा
देखते ही मुस्की चालू और फिर तो सोते-सोते भी मुस्कराती रहती। अनवरत बोलने,
खिलखिलानेवाली चमनी की जगह चुप-चुप सी मुस्काती चमनी। तभी कारू ने
कहा था-‘कौन मुस्की हो रे बाप! हवा-बतास लग गेलो का?
हवा-बतास लगे हुए दिन थे, उड़ने लगे। कभी दिल्ली में बेटू इमाम का लेक्चर है
ट्राइबल आर्ट पर, तो कभी भारत भवन में-कभी यहाँ, कभी वहाँ। हर जगह साथ मुस्काती चमनी गंझू। कभी डिस्कवरी चैनल वाले
डाॅक्यूमेंट्री के लिए आ रहे हैं कभी हिस्ट्री चैनल वाले। लोकल वालों को तो बेटू
पास फटकने भी नहीं दे रहे- कोहबर पेंटिंग्स के साथ मुस्काती, कभी ‘बैक टू नेचर’ कमरे की
दीवार के सामने, कैनवस पर गेरू पोतते हाथों के साथ मुस्काती
तो कभी बेटू के कन्धे पर हाथ रखकर मुस्काती। इतने व्यस्त हो गए थे बेटू और इतनी
अभ्यस्त हो गई थी चमनी कि अब तो आवाज लगाने की भी जरूरत नहीं होती-आर्ट डीलरों से
निगोसिएशन, कभी आर्ट गैलरी वालों से, कोहबर
सोहराय आर्ट का एक जखीरा प ड़ा था-उसकी साज सम्भाल, उनकी
फ्रेमिंग, पैकेजिंग, राइटअप, ट्रांसपोर्टेशन-बेटू के हजार कामों के बीच आकर खड़ी हो जाती मुस्काती चमनी।
उन्हें थोड़ी-थोड़ी कोफ्त होने लगी थी-हद तो तब हो गई जब मिसेस चेलसी आई उनके ‘बैक टू नेचर’ वाले कमरे में रहने-एक मशहूर आर्ट
डीलिंग फर्म की कर्ता-धर्ता। हाल ही में ब्रेकअप हो गया था तीसरे पति से तो मानसिक
शान्ति के तलाश में थी। बेटू ने उन्हें आॅफर दिया था-‘यू विल
फील स्पीरिचुअल प्लेजर एंड पीस हीयर।’ शाम को उम्दा स्काॅच
पीती हुई जब मिसेस चेलसी भावुक हो गई और बेटू इमाम उन्हें रोने के लिए अपना कन्धा
दे ही रहे थे कि मुस्काती हुई चमनी हाजिर-
-व्हाट इज दिस नॉनसेंस!-महीन जनाना आवाज में जोर से
चीखे थे बेटू।
मुस्काती खड़ी रही चमनी। बापू इमाम का क्रोध भर गया था बेटू के अन्दर।
-गेट आउट! जाओ भागो! अनकल्चर्ड होर!
मतलब तो नहीं समझी चमनी पर मुस्काती हुई रहस्य भरी झाड़ियों एवं भेद
भरे पेड़ों के बीच से चलते हुई चली आई इमाम हाउस के ‘चयाउँ’ की आवाज के साथ खुलनेवाले
गेट से बाहर। बेटू इमाम को कहाँ फुर्सत थी-मिसेज चेलसी का ऑर्डर था तकरीबन सौ कोहबर
पेंटिंग्स का-उन सबकी प्रॉपर फ्रेमिंग, पैकेजिंग, ट्रांसपोर्टेशन-हर पेंटिंग के साथ राइटअप भी-मतलब हजार काम होते हैं-वो सब
देखे कि फिक्र करे चमनी गंझू की मुस्की की...
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सम्पर्क: पंकज मित्र, आकाशवाणी, राँची,
झारखण्ड, मो. 9470956032.
पेंटिंग: सन्दली वर्मा.
पंकज मित्र की कहानियों का कथानक, उसका निर्वाह और फिर मारक भाषा एक ऐसा तिलिस्म रचती है कि आदमी न हँस पाता है और न रो पाता है। भाषा का चुटीलापन कभी-कभी गुदगुदाता है, लेकिन यथार्थ की विद्रूपता वेधती रहती है।
जवाब देंहटाएंप्रस्तुत कहानी में जंगली-जीवन का दोहन जिस स्तर पर दिखाया गया है और जिस निर्मोही ढंग से वह विचलित करती है। चाहे वह बापू इमाम हो, या बेटू इमाम दोनों ने उस आदिवासी समाज का शिकार किया है, लूटा है और फिर चूसकर फेंक दिया है। इसमें एक की शिकारी-मानसिकता और दूसरे की कला-वृत्ति का भी भेद मिट जाता है।
यह कहानी पहले भी पढ़ी थी, लेकिन फिर-फिर पढ़ना लेखन को समझना है। सीखना है।