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रंगरेज बातें करो--इत्तफाकन कवि- आलोकधन्वा--कृष्ण समिद्ध की पटकथा


  रंगरेज बातें करो--इत्तफाकन कवि- आलोकधन्वा

            कृष्ण समिद्ध की पटकथा 


 

 

पटकथा लेखक: कृष्ण समिद्ध


 

 

 

 

[अंदर. पटना कॉलेज सभागार. दिन.]

(रुद्र पर गोष्ठी का अवसर था)-

 

नंदकिशोर नवल: ये आलोकधन्वा हैं, इनका एक काव्य संग्रह प्रकाशित है और मेरे ख्याल से अंतिम है।

आलोकधन्वा:  किसी जीवित कवि के बारे में आप ऐसा कैसे कह सकते हैं?

नंदकिशोर नवल: अगर आप फिर से कविता लिखते हैं ...तो सबसे ज्यादा खुशी मुझे होगी।.....(पर मुझे ऐसा लगता नहीं है।)

कर्मेंदु शिशिर: तुमने लिखने के लिए सब कुछ छोड़ा और अब लिखना भी छोड़ चुके हो।...

[बाहर. बेली रोड. शाम के तुरंत बाद की रात.]

आलोकधन्वा: रिक्शे वाले...घर ले चलोगे।

रिक्शावाला: हाँ..ले चलूँगाI

आलोकधन्वा: मैं हिंदी का बहुत बड़ा और क्रांतिकारी कवि हूँ। भाई, धचका...गड्ढा से  बचा कर चलना  बहुत बीमार रहता हूँ...

एक धचका में रिक्शा पड़ता है।

[न अंदर- न बाहर, गाँव के घर के आँगन में. शाम के ठीक बाद का समय.]

माँ एक अपना प्रिय भोजपुरी गीत गा रही है। खटिया पर सोये-सोये दोनों माँ बेटा आकाश को देख रहे हैं।

उन स्त्रियों का वैभव मेरे साथ रहा
जिन्होंने मुझे चौक पार करना सिखाया

माँ जब भी नयी साड़ी पहनती
गुनगुनाती रहती
हम माँ को तंग करते
उसे दुल्हन कहते
माँ तंग नहीं होती
बल्कि नया गुड़ देती
गुड़ में मूँगफली के दाने भी होते
जब माँ फ़ुरसत में होती
तो हमें उन दिनों की बातें सुनाती
जब वह ख़ुद बच्ची थी
हमें मुश्किल से यक़ीन होता
कि माँ भी कभी बच्ची थी
दियाबाती के समय माँ गाती
शाम में रोशनी करते हुए गाना
उसे हर बार अच्छा लगता
माँ थी अनपढ़
लेकिन उसके पास गीतों की कमी नहीं थी
कई बार नये गीत भी सुनाती
रही होगी एक अनाम ग्राम-कवि

आलोकधन्वा: माँ, तुम इतने गीत कैसे जानती हो...

माँ: मैं इन्हें जानती कहाँ हूँ....ये बस आ जाते हैं...

आलोकधन्वा: तुम्हारे पास कैसे आ जाते हैं....तुम तो अनपढ़ हो...

(बालक आलोकधन्वा की जगह वयस्क आलोकधन्वा होता है)

आलोकधन्वा: मेरे पास अब मेरे गीत नहीं आते....बहुत दिनों से कुछ नहीं लिखा...

माँ: तुम लिखते क्यों हो, लिखो मत.... अगर  तुम्हारे हिस्से के गीत बाकी होगें तो तुम्हारे पास आयगें।

आलोकधन्वा: माँ, मुझे डर लग रहा है.....मेरी कविता मुझसे रुठ गयी है...

माँ: डरते क्यों हो...एक बार की बात है....हम गुलाम थे...तुम्हारे पिता जी आजादी के भूमिगत दस्ते थे....जिस दस्ते में सहजानंद सरस्वती थे......एक रात अंगेरज के सिपाही आ गये  थे..पर हम डरे नहीं....

(एक सिपाही बंदूक लिए आता है)

....लगता है रसोई से कोई बुला रहा है...आती हूँ....

     आलोकधन्वा: माँ...छोड़ कर मत जाओ...

माँ: आती हूँ..बस....

    सिपाही: मेरी बंदूक देखोगे.... मैंने इससे  कितने कवि मारे हैं....

....

सरकार ने नहीं –इस देश की सबसे

सस्ती सिगरेट ने मेरा साथ दिया

फिर एक धचका में रिक्शा पड़ता है।

आलोकधन्वा: रिक्शे वाले...ये किस रास्ते पर ले जा रहे हो मुझे...

रिक्शावाला : ये सारे रास्ते घर ही जाते हैं....

फिर एक धचका में रिक्शा पड़ता है।

 

[अंदर. दिन. कमरा.]

प्रेम भारद्वाज: किसी भी मनुष्य को तीन चीजें परंपरागत बनाती है... विधिवत शिक्षा, नौकरी औऱ विवाह, आप इन तीन चीजों से वंचित रहे हैं। आपका विवाह होना भी न होने के बराबर ही है....

आलोकधन्वा:

उसे भूलने की लड़ाई
लड़ता रहता हूँ
यह लड़ाई भी
दूसरी कठिन लड़ाइयों जैसी है
दुर्गम पथ जाते हैं उस ओर
उसके साथ गुजारे
दिनों के भीतर से

(कुर्सी के पीछे से वो आती है। बाल सहलाते कुछ काम करने चली जाती है।)

उठती आती है जो प्रतिध्वनि
साथ-साथ जाएगी आजीवन
इस रास्ते पर कोई
बाहरी मदद पहुँच नहीं सकती
उसकी आकस्मिक वापसी की छायाएँ
लंबी होती जाती हैं
चाँद-तारों के नीचे
अभिशप्त और निर्जन हों जैसे
एक भुलाई जा रही स्त्री के प्यार
के सारे प्रसंग
उसके वे सभी रंग
जिनमें वह बेसुध
होती थी मेरे साथ
लगातार बिखरते रहते हैं
जैसे पहली बार
आज भी उसी तरह
मैं नहीं उन लोगों में
जो भुला पाते हैं प्यार की गई स्त्री को
और चैन से रहते हैं

उन दिनों मैं
एक अख़बार में कॉलम लिखता था
देर रात गए लिखता रहता था
मेज पर
वह कबकी सो चुकी होती
अगर वह अभी अचानक जग जाती
मुझे लिखने नहीं देती
सेहत की बात करते हुए
मुझे खींच लेती बिस्तर में
रोशनी गुल करते हुए
आधी नींद में वह बोलती रहती कुछ
कोई आधा वाक्य
कोई आधा शब्द
उसकी आवाज़ धीमी होती जाती
और हम सो जाते

सुबह जब मैं जगता
तो पाता कि
वह मुझे निहार रही है
मैं कहता
तुम मुझे इस तरह क्या देखती हो
इतनी सुबह
देखा तो है रोज़
वह कहती
तुम मुझसे ज़्यादा सुंदर हो
मैं कहता
यह भी कोई बात हुई
भोर से नम
मेरे छोटे घर में
वह काम करती हुई
किसी ओट में जाती
कभी सामने पड़ जाती

वह जितने दिन मेरे साथ रही
उससे ज़्यादा दिन हो गए
उसे गए!

आलोकधन्वा: इससे  ज्यादा मुझे कुछ नहीं कहना....

प्रेम भारद्वाज: आपकी रचना प्रक्रिया क्या है....

आलोकधन्वा: मैं अपनी कविता पर कभी नहीं बोलता....क्योंकि मैं इतफाकन कवि हूँ। मैंने इतना कम लिखा है....कि जो भी कविता का मुख्य संसार है...मैं उसमें बाहरी व्यक्ति हूँ...कभी कभी जाता हूँ..अपनी कविता लेकर....

फिर एक धचका में रिक्शा पड़ता है।

आलोकधन्वा: रिक्शे वाले...ये किस रास्ते पर ले जा रहे हो मुझे...

रिक्शावाला: ये सारे रास्ते घर ही जाते हैं....

आलोकधन्वा: तुम झूठ बोलते हो...

फिर एक धचका में रिक्शा पड़ता है।

 

[अंदर. जनसत्ता आफिस. रात.]

मंगलेश डबराल: तुम्हारा संग्रह आना चाहिए... तुम्हारा संग्रह  आना चाहिए...सब यही कह रहे हैं....औऱ महीनों से तुम तय नहीं कर पा रहे हो कि कौन-कौन सी कविता..

आलोकधन्वा: यह मेरे बस की बात नहीं....यह सही नहीं लग रहा है...

मंगलेश डबराल: क्या सही नहीं लग रहा है..

आलोकधन्वा: चुनना और छाँटना...

मंगलेश डबराल: एक काम करो तुम....यह तुम मुझ पर छोड़ दो.... समर्पण लिख कर लाये हो...

(आलोक पेज देता है ।)

माता पिता..गाँव के दोस्त.... समर्पण में इतने सारे लोगों के नाम लिखा कि पूरा पृष्ठ भर जाए... यह नहीं चलेगा..

आलोकधन्वा: पर मेरी कविता में इन सबका हिस्सा है...

मंगलेश डबराल: पर ऐसे नहीं चलेगा, छोटा करो

आलोकधन्वा: कैसे छोटा करुँ, अपने जीवन को कैसा छोटा करुँ....

फिर एक धचका में रिक्शा पड़ता है।

आलोकधन्वा: रिक्शे वाले...यह  रास्ता गलत है...

रिक्शावाला: कोई रास्ता गलत नहीं होता है...आपको एक कविता सुनाता हूँ....

किसने बचाया मेरी आत्मा को

दो कौड़ी की मोमबत्तियों की रोशनी ने

दो चार उबले हुए आलू ने बचाया..

फिर एक धचका में रिक्शा पड़ता है।

 

आलोकधन्वा: डाक्टर साबह...मैं बहुत बड़ा और क्रान्तिकारी कवि हूँ हिंदी का, देखिए, मेरी वाणी को कुछ नहीं होना चाहिए।

डाक्टर: कम बोलिए, सब ठीक होगा...

आलोकधन्वा: मेरी आवाज तो ठीक हो जाएगी न? कवियों के साथ अक्सर ऐसा होता है कि उनकी आवाज चली जाती है।

रिक्शा का पहिया गढ्ढे में पड़ता है।

अज्ञात: ये आलोक धन्वा हमेशा अपनी बीमारी की क्यों बात करते हैं....

मंगलेश डबराल: यह उसका डिफेंश मैक्निजम है....वह किसी भी परिचित को अपने निजी जीवन में झाँकने के अवसर नहीं देना चाहते।.... इसलिए अज्ञेय कम बोलते थे। रघुवीर सहाय भी कम बोलते थे। ....आलोक भी श्रोता को इधर उधर की बातों में उलझाए रहते है ताकि उसका निजीपन बचा रहे।

रिक्शा का पहिया गढ्ढे में पड़ता है.......

[अंदर .कमरा -चेन्नई. रात.]

आलोक बिस्तर से ऊठ कर लिखना शुरु करते हैं.....

चेन्नई में कोयल बोल रही है
जबकि
मई का महीना आया हुआ है
समुद्र के किनारे बसे इस शहर में

कोयल बोल रही है अपनी बोली
क्या हिंदी
[अंदर .कार. दिन.]

आलोकधन्वा:

और क्या तमिल
उतने ही मीठे बोल
जैसे अवध की अमराई में!

कोयल उस ऋतु को बचा
रही है
जिसे हम कम जानते हैं उससे!

नंदकिशोर नवल: ..... इतनी अच्छी कविता के लिए बधाई! मै आपका हाथ चूमना चाहता हूँ।  .................पहले मेरा काव्य बोध पिछड़ा हुआ था, जिस कारण मैं आपकी कविताओं की तारीफ नहीं कर पाता था....मैं गलत था...इन कविताओं को देखकर मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि आपकी चुप्पी दरअसल अपनी कविता को विकास के एक नये स्तर तक पहुँचाने के लिए थी.....मुझे उस दिन की प्रतीक्षा है जब आपका भरा पूरा दूसरा कविता संग्रह आयेगा।

[न अंदर न बाहर, गाँव के घर के आँगन में. शाम के ठीक बाद का समय.]

आलोकधन्वा: माँ, आज मैं बहुत खुश हूँ..तुम कोई गीत सुनाओ न...

माँ: अब मौन का संगीत रहने दे....

               ***

संपर्क: कृष्ण समिद्ध, मो. 9934687527.

पेन्टिंग: सन्दली वर्मा  

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 


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