कुमार मुकुल की कविताएँ
वहाँ मेले में
वहाँ मेले में रोशनी थी बहुत
पर इससे
मेले के बाहर का अँधेरा
और गहराता सा डरा रहा था
एक जगह लाउडस्पीकर चीख रहा था
... लड़की – लड़की – लड़की
बस अभी कुछ देर में जादूगर
इस लड़की को नाग में बदल देगा
... लड़की – लड़की – लड़की
वहाँ मंच पर दो लड़कियाँ
चाइनों की तरह
मुस्कुरा रही थीं
और कर भी क्या सकती थीं वो
फिर गाना बजने लगा...
सात समंदर पार मैं तेरे पीछे...
अब लड़कियाँ नाचने लगी थीं
फिर मोटी लड़की ने कुछ इस अदा से
अपनी जुल्फें झटकारी
कि सामने नीचे की गर्द उड़ चली
... यह देख मेरे साथ बैठी बच्ची
ने मुस्कुराते हुए मेरी ओर देखा...
उसकी आँखों में एक सरल रहस्य
जगमगा रहा था I
***
मेरे इतने पास एक स्त्री
मेरे इतने पास से
गुजरती है एक स्त्री
उसका आँचल छूता है मेरे कान की लवें
उसे क्या पता
उसके पाँवों की धमक
बैठती जाती है
खालीपने में मेरे भीतर
वह जा रही अपनी गति में, लय में
नये जीवन की ओर
उधर
जिधर बच्चे हैं
इंतज़ार में उसके
उनके लिए थाली में कुछ लिए
फल या खजूर या कुछ और
उसकी क्षणिक, आभासी उपस्थिति को
महसूसता हूँ मैं
एक गंध
जो उठ रही है उससे
जैसे गर्म पत्थर भीगता हो पहली बारिस में
एक लय पसारना चाहती है निकलकर उससे
बच्चों की क्षुधा को तृप्त करती
यह मुझे भी भासती है
यह सब
सोचता होता हूँ मैं
कि लौटती है वह
उसकी निगाह पड़ती है मुझपर
अपनी लय, गंध, धमक को
समेट लिया है उसने
अब वह गुजर रही है फिर
मेरे पास से
एक स्त्री
जो
नहीं है कहीं...I
***
कि एक पत्ती लौ की
भीतर
पीड़ा की फुनगी सा
रहता हरा कुछ
सीले भावों का झोंका भी
भर जाता मोच
उसकी रगों में
कि तीरी जा रही हों नसें
आँखों की
शिखाकंप सा
सुरसुरा स्पर्श
देता फड़फड़ा जड़ें
कि उमगने लगा हो कंपन
रोमछिद्रों से
कि एक तेज़ पत्ती लौ की
तेजस नीरव सी I
***
ओ सौन्दर्य
ओ सौन्दर्य
भागो मत यौवन की राह
कैशोर्य की शिराओं में खुद दौड़ेगा काल
तुम्हारे गालों पर भी
उगेंगी रेखाएँ तन्मयता की
ओ सौन्दर्य
शक्तिशाली हो आज भी
मेरी आत्मा को निचोड़कर
उसमें नहाते हो उब-डूब
लो मेरी तृष्णाएँ लो
उतरो मेरी शिराओं में भीI
***
आगरा सिकंदरा की गली
में एक शाम
शीशे संगमरमर स्टील और कंकरीट के भवनों से
आ रही है
तरह तरह के कुत्तों के भौंकने की आवाजें
बाकी सन्नाटा है
शीशे और सरिए की दीवारों के पीछे
काले सफ़ेद खरगोशकद से लेकर आदमकद तक
कुत्ते हैं
अधिकतर बेडौल
बीच के तल्लों पर किसी सरिए या सीखचे से
लटका है
एक राक्षसनुमा मुखौटा
बुरी नजर से बचाने को
नीचे तीन गदहे
भवनों की आलीशानियत से बेपरवाह
नजरें झुकाए मुँह मार रहे इधर उधर
बीच सड़क पर पहिए से कुचल गयी
गिलहरी पड़ी है आँखें निकाले
आगरा सिकंदरा की एक गली में
ढल रही है शाम
भवनों पर लटके मुखौटों को मुँह चिढ़ाते
बंदरों की जमात ही है
जो कुत्तों की चुनौती का मौन प्रतिवाद
करती
छलाँगे लगाती
चली जा रही है
अपने ठिकाने कोI
***
सम्पर्क: कुमार मुकुल, मो. 9968374246.
पेन्टिंग: सन्दली वर्मा.
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें