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ध्रुव गुप्त की कहानी – कांड



ध्रुव गुप्त की कहानी –          




                                                           कांड



फोन पर कोई लड़की थी। एकदम नर्वस। आवाज कांप रही थी उसकी। उसने पूछा, 'सर, आप एस.पी साहब ही बोल रहे हैं न ?' 

'हां, मगर आप इतनी घबडाई हुई क्यों हैं ? आप किसी मुश्किल में हैं तो अपना लोकेशन बताइए। मैं तुरंत किसी को भेजता हूं ।' 

'नहीं, कोई सवाल नहीं, सर ! आप थोड़ी देर के लिए मेरी बातें सुन लीजिए। उसके बाद फैसला कीजिएगा कि आपको क्या करना है।' 

'ठीक है, आप बोलिए !' 

वह सिसकने लगी। कुछ देर बाद उसने कहा, 'मैं बहुत अभागी लड़की हूं, सर ! मेरे पिता नहीं हैं। मां प्राइवेट नर्स है। हम तीन भाई-बहन हैं - दो बहन और एक भाई। मैं सबसे बड़ी हूं। तीस साल उम्र है मेरी। बी.ए पास हूं। मेरे बाद पचीस साल का एक बेरोजगार भाई। उसके बाद बाईस साल की बहन। वह अभी पढ़ रही है। ब्याह किसी का नहीं हुआ है। मेरी शक्ल-सूरत बहुत मामूली है। जाने कितने लड़के मुझे देखने के बाद रिजेक्ट कर चुके हैं। मां ने मेरी शादी की उम्मीद छोड़ ही दी है। आप सुन रहे हैं, सर ?' 

'सुन रहा हूं। अब आप मुद्दे पर आ जाइए।' 

'प्लीज, सर ! मैं सिर्फ आधा घंटा समय लूंगी आपका। मैंने बड़ी उम्मीद से आपको फोन लगाया है।' 

'अच्छा, आप बोलिए !' 

'सर, मेरे भाई का एक दोस्त है, विनोद। पहले अपराधी था, अब मुहल्ले का वार्ड कमिश्नर है। बाप की जूतों की बड़ी दुकान है। वह मेरे भाई से मिलने कभी-कभी घर आता था। मैं उसके लिए चाय लेकर जाती तो वह मुझे अजीब नजरों से घूरता था। पांच महीनों पहले एक दिन वह दोपहर को मेरे घर आया। उस समय मेरे अलावा घर में कोई नहीं था। मैंने दरवाजा खोला ही था कि वह जबरन भीतर घुस आया। कहा कि बड़ी प्यास लगी है। मैंने उसे पानी पिलाया और बाद में आने को कहा। अचानक वह मुझसे प्यार-मुहब्बत की बातें करने लगा। कहा कि पिछले एक साल से वह मेरे लिए पागल है। मुझसे मिलने के लिए ही उसने मेरे भाई से दोस्ती बढ़ाई है। उसने कहा कि वह मेरे बगैर जी नहीं सकता और मुझसे शादी करना चाहता है। न जाने कैसे उसकी बातों से मैं कमजोर पड़ने लगी। मेरी उस कमजोरी का फायदा उठाकर वह मुझे मेरे कमरे में ले गया। जीवन भर साथ निभाने का वादा कर उसने मेरे साथ शारीरिक संबंध बनाया।' 

'आपकी सहमति से न ?' 

'मेरी सहमति नहीं थी, लेकिन मैंने विरोध नहीं किया। न जाने उस वक़्त मुझे क्या हो गया था। उसके बाद वह अक्सर मेरे पास आने लगा। आने के पहले देख लेता था कि घर में कोई नहीं है। तीन महीनों तक यह सिलसिला चला। आखिरी बार वह अपने एक दोस्त के साथ आया। राजू नाम था उसका। मैंने दोनों को चाय पिलाई। थोड़ी देर बाद राजू को आंगन में छोड़कर वह मुझे अंदर ले गया। मैंने उसे दोस्त की मौजूदगी में कोई गलत काम न करने का अनुरोध किया। उसने बताया कि राजू उसका जिगरी दोस्त है जो जी-जान से हमारी शादी कराने में लगा है। कोर्ट मैरिज के बाद हम दोनों कलकत्ते में उसी के मकान में कुछ महीने रहने वाले हैं। मेरे न चाहते हुए भी विनोद ने उस दिन मुझसे बुरा काम किया। मुझे लगा कि इस दौरान राजू खिड़की से लगातार अंदर झांक रहा था।' 

अब उस लड़की की बातों से मुझे गुस्सा आने लगा था। मैंने कहा, 'आपका चरित्र मेरी समझ से बाहर है। इन बातों से आप क्या साबित करना चाहती हैं ?' 

उसने मेरी बात अनसुनी करते हुए कहना जारी रखा, 'चार दिनों बाद राजू अकेला आया। कहा कि शादी के संबंध में कुछ जरूरी बातें करने आया है। मैंने उसे आंगन में बिठा दिया। उसने कहा कि अगले सप्ताह कोर्ट मैरिज के बाद वह हम दोनों को कलकत्ता पहुंचा देगा जहां उसका दो कमरों का घर है। दो अलग-अलग जाति का मामला है। शादी के बाद दोनों परिवारों में थोडा टेंशन रहेगा। कुछ महीनों के बाद जब सब सामान्य हो जाएगा, तो वह हमें वापस बुला लेगा। मैंने राजू को थैंक्स कहा तो हाथ पकड़कर उसने मुझे अपनी गोद में बिठा लिया। मेरी आरजू-मिन्नत का उसपर कोई असर नहीं हुआ। गोद में उठाए मुझे मेरे कमरे में ले गया और विनोद को कुछ नहीं बताने का वादा कर उसने मेरे साथ कुकर्म किया।' 

उसकी बातें अब मेरे बर्दाश्त के बाहर हो चुकी थी। मुझे वितृष्णा होने लगी। मैंने गुस्से में कहा, 'आप ये बातें मुझे क्यों बता रही हैं ?' 

उसकी बातें पहले की तरह जारी थीं, 'मैं राजू का विरोध नहीं कर सकी, सर ! मैं मानती हूं कि मेरी गलती है, मगर मैं विरोध करने लायक रह ही नहीं गई थी। मैं प्रेग्नेंट हो चुकी थी और राजू तब मुझे डूबते को तिनके के सहारे जैसा लगा। वह नहीं चाहता तो हमारी शादी नहीं हो सकती थी। मैं उसे नाराज नहीं कर सकी।' 

मैंने लगभग चिल्लाते हुए कहा, 'बहुत बकवास हो गया। आपकी बातें सुनकर मुझे शर्म आ रही है। अब बताइए, मुझसे क्या चाहती हैं आप ?' 

'सर, पिछले एक महीने से न विनोद मेरे पास आया है, न राजू। एक बार मैं बहाने से विनोद की दुकान पर गई तो उसने मुझे पहचानने से भी इनकार कर दिया। मैंने अपनी प्रेगनेंसी की बात बताई तो उसने मुझे ब्लैकमेलर कहा। मैं मदद के लिए राजू के पास गई, लेकिन उसने भी मुझे दुत्कार दिया। मेरी समझ में नहीं आता कि मैं क्या करूं।' 

'आप जैसी लड़कियों का यही अंजाम होना था। मुझे आपसे कोई हमदर्दी नहीं है। फिर भी बताइए, एक पुलिस अफसर के नाते मैं आपके लिए क्या कर सकता हूं ?' 

वह रोने लगी। देर तक रोती रही। मेरे बहुत समझाने के बाद चुप हुई। मुझसे कहा, 'मुझे क्या करना चाहिए, सर ? आत्महत्या के सिवा मेरे पास कोई रास्ता है ?' 

मैंने कहा, 'आप मेरे पास आइए ! उन दोनों के खिलाफ बलात्कार और धोखाधड़ी का केस दर्ज करवाईए ! दोनों को फौरन गिरफ्तार किया जाएगा।' 

'आप उन्हें गोली नहीं मार सकते ?' 

'नहीं।' 

'क्यों ?' 

'मैं हत्यारा नहीं हूं। कानून मुझे इसकी इजाजत नहीं देता।' 

'उन्हें क्या सजा देंगे आप ?' 

'यह मेरा काम नहीं। मैं उन्हें कोर्ट से सजा दिलवा सकता हूं।' 

'उन्हें सजा दिलाने में कितना वक्त लगेगा, सर ?' 

'कम से कम पांच साल।' 

'मैं इतना इंतजार नहीं कर सकती। मेरे पेट में बच्चा पल रहा है। दो महीनों बाद मैं किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रह जाउंगी।' 

'आपकी मां नर्स हैं। वह कोई रास्ता निकाल देंगी।' 

'मैं अपनी मां से बात नहीं कर सकती। मुझमें इतना साहस नहीं है, लेकिन आप चाहें तो उन्हें आज और अभी सजा दे सकते हैं ।' 

'कैसे ?' 

'आप एस.पी हैं। आपको बहुत पावर दिया है सरकार ने। बहुत सारे अपराधियों को मारा होगा आपने। मुझ बदनसीब के लिए आप इन दो अपराधियों को नहीं मार सकते, सर ?' 

'हम अपराधियों को भी तभी मार सकते हैं जब वे हमें मारने की कोशिश करें। अन्यथा हमपर हत्या का मुकदमा चल सकता है। हम पुलिसवालों पर भी वहीँ कानून लागू होते हैं जो आम नागरिकों पर होते हैं।' 

'बुरा न मानिए, सर ! आपकी अपनी बहन-बेटी के साथ बलात्कार हुआ होता तब भी आप अपराधियों को सजा दिलाने के लिए पांच साल कोर्ट के चक्कर लगाते ?' 

मैं उसके इस सवाल का जवाब तत्काल नहीं सोच पाया। 

'दूसरों को नसीहत देना आसान है न, सर ?' 

वह फिर रोने लगी। कुछ देर बाद उसने कहा, 'मुझे आज रात सोचने दीजिए। मैं कल आपसे बात करूंगी।' उसने फोन रख दिया। 

मैंने इनकमिंग कॉल का नंबर देखने के बाद तहकीकात कराया तो पता चला कि फोन एक सार्वजनिक बूथ से किया गया था। फ़ोन करने वाली एक जवान लड़की थी जिसे बूथ वाले ने नहीं पहचाना था। 

अगली सुबह उस लड़की ने फिर फ़ोन किया। मेरे फोन उठाते ही वह रोने लगी। उस वक़्त वह मुझे निहायत ही भावुक और बेवकूफ किस्म की लड़की लगी। उसके प्रति मेरा गुस्सा धीरे-धीरे कम हो रहा था। मुझे ख्याल आया कि वह एक आम लड़की नहीं, तीस साल की कुंवारी औरत थी। अपने घर और पड़ोस के लिए उपहास की वज़ह।अपनी अवांछित स्थिति बदलने की जल्दबाजी में शायद वह मूर्खता कर बैठी है। मुझे उसके साथ हमदर्दी से पेश आना चाहिए। 

मैंने कहा, 'देखिए, मैं समझ सकता हूं कि आपकी समस्या बहुत जटिल है। लेकिन आपको भी समझना चाहिए कि हर समस्या का एक हल भी होता है। आप मुझसे एक बार मिल लीजिए। आपकी समस्या का भी हल निकल आएगा।' 

वह बोली, 'इतना बड़ा कलंक लेकर मैं कैसे जीऊँगी, सर ! मैं अपनी मां और भाई-बहन को क्या मुंह दिखाउंगी ? मैंने फैसला कर लिया है। मैं मरना चाहती हूं।' 

मैंने उसे समझाने की कोशिश की, 'आप दुनिया की पहली और आखिरी लड़की नहीं हैं जिसके साथ किसी मर्द ने धोखा किया है। ऐसी घटनाएं हमारे आसपास रोज घटती हैं। आप पढ़ी-लिखी हैं। आपमें मुश्किलों से लड़ने का जज़्बा होना चाहिए। आपके आत्महत्या कर लेने से बलात्कारियों का हौसला बढ़ेगा। वे कल किसी दूसरी लड़की के साथ यही सलूक करेंगे। हो सकता है कि वह लड़की आपकी अपनी बहन हो। आपके आत्महत्या कर लेने से अन्याय की शिकार लड़कियों में गलत मेसेज जाएगा।' 

'ऐसी बातें सुनने में अच्छी लगती हैं। मैं अकेले यह लड़ाई कैसे लड़ सकती हूं ?' 

'आप अकेली कहां हैं ? मैं हूं न आपके साथ।' 

'आप कबतक रहेंगे इस जिले में ?' 

'देश में ऐसे कई महिला संगठन हैं जो आप जैसी लड़कियों की लड़ाई लड़ते हैं। आप कहेंगी तो मैं ऐसे किसी संगठन से मिलवा दूंगा आपको।' 

उधर कुछ देर चुप्पी रही। फिर उसने कहा, 'आप खुद उन्हें सजा नहीं दे सकते। आपकी मजबूरी है। आप कुछ देर के लिए एक पिस्तौल मुझे दे सकते हैं ?' 

'पिस्तौल लेकर आप क्या करेंगी ?' 

'दोनों को गोली मारकर आपके सामने सरेंडर कर दूंगी।' 

'मैं आपको हत्या की इजाजत नहीं दे सकता।' 

वह अचानक तैश में आ गई। बोली, 'आपकी इजाजत के बगैर भी लोग रोज हत्याएं कर रहे हैं। पैरवी और पैसो के बल पर छूट भी जाते हैं। आप नहीं देंगे तो मैं कहीं और से पिस्तौल का इंतजाम कर लूंगी।' 

'तब हम आपके साथ मुजरिमों वाला सलूक करने को बाध्य होंगे।' 

'मुझे परवाह नहीं है।' 

फिर कुछ ठहर कर उसने कहा, ' मैं आपसे मिलने नहीं आ सकती। मैं आज दो बजे फोन कर बताऊँगी कि आपको कहां आना है। सर, आप फोन के पास जरूर रहिएगा। आप नहीं मिले तो मैं आत्महत्या कर लूंगी।' 

इसके पहले कि मैं कुछ कहता, उसने फोन रख दिया। 


मुझे उस लड़की में दिलचस्पी होने लगी थी। अपने बीस बरसों के कैर्रियर में मैंने एक से एक उलझे हुए आपराधिक मामले सुलझाए थे, मगर भावनात्मक जटिलताओं से भरा ऐसा मामला कभी सामने नहीं आया था। मैं एक ऐसी लड़की के रूबरू था जो जिंदगी में तमाम दिलचस्पी खोने के बाद एक सम्मानजनक मौत की तलाश में थी। इस मामले को मैंने चुनौती की तरह लेने का फैसला किया। दिन के सभी कार्यक्रम रद्द कर दिए। थानेदार को एक बजे ही आवास पर बुला लिया। सभी टेलीफोन बूथों को कहलवा दिया कि अगर कोई जवान लड़की मुझे कॉल करे तो इसकी सूचना तुरंत थाने को दी जाय। ठीक दो बजे फोन बजा। उसी लड़की का फोन था। 

उसने कहा, 'मेरी बात ध्यान से सुनिए, सर ! आप दस मिनट में चौक बाजार पहुंच जाइए। चौक पर फैंसी शू हाउस नाम की जूतों की दुकान है। मैं वहीँ मिलूंगी आपसे। जिंदा या मुर्दा। मैंने अपने साथ हुई घटनाओं को कागज पर लिखकर अपने कपड़ों के भीतर डाल दिया है। मेरे मरने के बाद आप कांड दर्ज कर लेंगे। आप आ रहे हैं न, सर ?' फोन पर उसकी आवाज कांप रही थी। 

'मैं आ रहा हूं, लेकिन मेरे आने तक आप कोई उल्टा-सीधा काम नहीं करेंगी। ख़ुदकुशी तो बिल्कुल नहीं।' 

'जल्दी आइए, सर ! आपको एक मरती हुई लड़की की कसम है।' 

मैंने थानेदार को फोन के बारे में बताते हुए उसे तुरंत फैंसी शू हाउस पहुंचने को कहा। मुझे खुद भी वहां जाना जरूरी लगा। उलझा हुआ मामला था। मैं थोड़ी देर में तैयार होकर निकला। मैं आधे रास्ते में ही था कि मोबाइल पर थानेदार ने बताया, 'मैं शू हाउस से बोल रहा हूं, सर ! सूचना एकदम सही थी। लड़की ने दुकान मालिक के बेटे विनोद की गोली मारकर हत्या कर दी है और उसे मारने के बाद खुद भी जहर खा लिया है। हम लड़की को लेकर अस्पताल जा रहे हैं।' 

मैं स्तब्ध रह गया। मुश्किल से कह पाया, 'मैं आ रहा हूं।' 

मैं सीधे अस्पताल के लिया रवाना हुआ। मैं ठगा और पराजित-सा महसूस कर रहा था। मैं ज्यादा से ज्यादा उसकी ख़ुदकुशी के बारे में सोच रहा था। वह किसी की हत्या भी कर सकती है, मैं अनुमान भी नहीं कर सका था। 

अस्पताल पहुंचा तो इमरजेंसी वार्ड में एक टेबुल पर पड़ी थी वह। डॉक्टर उसकी चिकित्सा में लगे थे। एक नर्स पानी चढ़ा रही थी। उसे थोड़ा-बहुत होश बाकी था। चेहरे पर पीड़ा के निशान थे। मुझे देखकर लोगों ने रास्ता दे दिया। मैं पहली बार उसे देख रहा था। सामान्य शक्ल-सूरत की सांवली-सी लड़की थी। एकदम दुबली-पतली। छोटा कद। छोटी-छोटी आंखें। लड़कों जैसे छोटे बाल। बालों में सफेदी झलकने लगी थी। उसने मुझे गौर से देखा। शायद पहचानने की कोशिश कर रही थी। मैंने उसे अपना परिचय दिया तो उसने मुस्कुराने की असफल कोशिश की। मैंने धीरे से कहा, 'मुझे दुख है कि तुमने मुझपर भरोसा नहीं किया।' 

उसके चेहरे की पीड़ा गहरी होने लगी थी। उसकी हालत देखकर मेरे भीतर करूणा उमड़ आई। मैंने उसके माथे पर हाथ रख दिया। उसने कृतज्ञता से मुझे देखा और अपनी सलवार की ओर इशारा किया। मैंने उसे आश्वस्त किया कि मैं उसका इशारा समझ गया हूं। उसने आंखें मूंद ली। 

डॉक्टर ने बताया कि उसका पल्स डूब रहा है। उसकी मां और बहन वहां पहुंची तो रोने-धोने का सिलसिला शुरू हो गया। मैं जाकर सिविल सर्जन के ऑफिस में बैठा ही था कि लड़की के मरने की खबर आ गई। मैंने वहां मौजूद महिला सब-इंस्पेक्टर को इशारों में लड़की की सलवार की तलाशी लेने को कहा। 

आधा घंटा बाद सब-इंस्पेक्टर लौटकर आई। उसके हाथ में दो लिफाफे थे। उसने कहा, 'सर, सलवार के भीतर ये दो लिफाफे मोड़ कर रखे हुए थे। एक पर लिखा है केस दर्ज करने के लिए और दूसरे पर एस.पी साहब के लिए व्यक्तिगत।' मैंने दोनों लिफाफे ले लिए। एक में उसके साथ घटी घटनाओं का विस्तार से ज़िक्र था। बिल्कुल वैसा ही जैसा उसने मुझे बताया था। वह लिफ़ाफा मैंने थानेदार को दे दिया। व्यक्तिगत पत्र मैंने अपने पास रख लिया। 

घर लौटने के बाद फ्रेश होकर मैंने लिफाफा खोला। अंदर आधा पेज का पत्र था। बहुत छोटे और बेतरतीब अक्षरों में उसने लिखा था - 'सर, संयोग से मुझे अपने घर में ही पिस्तौल मिल गई। विनोद ने मेरे भाई के कमरे में इसे छिपाकर रखा था। इसे देखने के बाद मेरी समझ में आ गया कि मुझे क्या करना है। अपने साथ हुए अन्याय के प्रतिकार का यही तरीका मुझे सम्मानजनक लगता है। उनकी सजा के लिए पांच साल इंतज़ार करने का धीरज मुझमें नहीं है। पिस्तौल लेकर मैं विनोद की दुकान पर जा रही हूं। उसे मार सकी तो आपका आधा काम मैं कर दूंगी। तब राजू को सजा दिलाने की जिम्मेदारी आपकी होगी। नहीं मार सकी तो दोनों आपके हवाले। जबतक उन्हें सजा नहीं मिलेगी, मेरी आत्मा को चैन नहीं आएगा। मैं अपने साथ जहर लेकर जा रही हूं। उसे मारने के बाद खा लूंगी। मैंने पिछले दिनों आपका बहुत वक़्त बरबाद किया है। मुझे अपनी छोटी बहन समझकर माफ़ कर देंगे।' 

पत्र पढ़ने के बाद मैं बुरी तरह पराजित महसूस कर रहा था। मगर न जाने क्यों मुझे अपनी पराजय पर अफ़सोस नहीं था। उस लड़की से बातें मैं जितनी बड़ी कर रहा था, सच यह है कि मुझे खुद यकीन नहीं था कि बरसों के अदालती जंग के बाद भी उसके अपराधियों को सज़ा मिल पाएगी। मैं नहीं सोच रहा था कि कानूनन उसने सही किया या गलत। मुझे फिक्र दूसरी बात के लिए थी। वह अपना काम अधूरा छोड़ गई थी। अपने दूसरे मुजरिम को वह जिस आदमी के हवाले कर गई थी, उसे खुद अपने आप पर यकीन नहीं था। 

मुझे उस लड़की के लिए अफ़सोस हुआ। 

                               *** 


सम्पर्क: 8, मित्र विहार कॉलोनी, चतुर्भुज काम्प्लेक्स के पीछे.पश्चिमी बोरिंग कनाल रोड,पटना 800001. मोबाइल 8210037611.



पेन्टिंग: सन्दली वर्मा.



टिप्पणियाँ

  1. dhruv sir ki likhi har ek kahani may ek sandesh zarur rehta hai...ab samay ki maang yehi hai ki turant case darz ho aur turant faisla ho

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  2. बेहद मर्मस्पर्शी ! हार्दिक बधाई ध्रुव सर 💐

    -विनीता किरण

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  3. बहुत ही मार्मिक कहानी।
    बधाई

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  4. बहुत ही मार्मिक कहानी।
    बधाई

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  5. Bahut badhiya sir lekin kitne log khud badla lene ki himmat rakhate hai ye ladki jitni kamjor thi utni hi bahadur bhi

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  6. वाह...मार्मिक और अपने अन्तर्द्वन्द्व की कथा!
    शुभकामनाएं��

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  7. सर असमंजस की स्थिति में हर इंसान विकट समस्याओं से घिरा होता है।क्या सही है या क्या गलत , बस मलाल रह गया होगा आपको एक SP के नाते कुछ कर पाते। बेहद मर्मस्पर्शी 😢

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