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एहसान क़ासमी की कहानी --- शिल्पी

एहसान क़ासमी की कहानी --- शिल्पी


 

                            शिल्पी

 



स्कूल कार्यकारिणी के सेक्रेट्री श्री देवाशीष राय ने अपने भाषण का आरंभ कुछ इस अंदाज़ से किया --- "आदरणीय श्री प्रफुल्ल कुमार सेन, एम. एल. ए. जो सौभाग्य से इस स्कूल के अध्यक्ष और मुख्य संरक्षक भी हैं, श्री चौधरी ख़ैरूद्दीन साहब उपाध्यक्ष, श्री सुजीत मंडल प्रधान अध्यापक और इस विशेष बैठक में भाग लेने वाले सदस्यगण! आज की यह विशेष बैठक एक ख़ास समस्या का निदान प्राप्त करने के लिए बुलाई गई है। परन्तु इस से पूर्व मैं कुछ बातें स्कूल से सम्बन्धित आप सब के सम्मुख प्रस्तुत करना चाहता हूँ। इस साल हमारे स्कूल का रजत ज्यन्ती वर्ष है, विगत पचीस वर्षों में हम ने तरक़्क़ी के नए-नए आयामों का स्पर्श किया है। कठोर अनुशासन, कड़ी मिहनत और आप सब के बलिदान के फलस्वरूप एक साधारण से क़सबा में स्थापित हमारा यह 'सेवाग्राम हाई स्कूल' शिक्षा, संस्कार और रिज़ल्ट के दृष्टिकोण से सम्पूर्ण सब - डिविज़न की नाक बन चुका है। पहले हमारे क़सबा से बच्चे शिक्षा प्राप्त करने के लिए शहर जाया करते थे, लेकिन अब परिस्थिति यह है कि शहर के छात्र हमारे स्कूल में नामांकण प्राप्त करने को लालायित रहते हैं। अब हमारे स्कूल की चर्चा ज़िला भर में होने जा रही है क्योंकि ज़िला जूनियर फ़ुटबॉल टीम के लिए हमारे स्कूल से तीन खिलाड़ियों का चयन किया गया है। यह हमारे लिए प्रतिष्ठा और गर्व की बात है। हमारे उर्जावान अध्यक्ष के प्रयासों से स्कूल को एक नए भवन का उपहार भी बहुत जल्द मिलने जा रहा है। यह भी हमारे लिए अत्यन्त प्रसन्नता की बात है। 

अब आता हूँ असल समस्या की ओर। जैसा कि आप सब भलीभाँति इस बात से अवगत हैं कि दुर्गापूजा का समय निकट आ गया है। स्कूल में प्रत्येक वर्ष दुर्गापूजा का आयोजन अत्यंत धूमधाम के साथ किया जाता रहा है। विगत कई वर्षों से पूरे सबडिविज़न में पूजा का प्रथम पुरस्कार हमारा स्कूल ही प्राप्त करता आ रहा है। परन्तु इस जीत का सेहरा यदि किसी के सर जाता है सही अर्थों में तो वह है शिल्पकार पंचरतन पाल। यह व्यक्ति उच्च कोटि का शिल्पकार है। 

वास्तविकता तो यह है कि इसके टक्कर का कोई दूसरा कलाकार दूर दूर तक नज़र नहीं आता। परन्तु समस्या यह है कि विगत कई मास से पंचरतन दा अस्वस्थ हैं। घर से बाहर निकलते नहीं, किसी से मिलते जुलते भी नहीं। इस परिस्थिति में माँ की प्रतिमा कैसे बनेगी और कौन बनाएगा यह सुनिश्चित करना अनिवार्य हो गया है। अतः आप सभी से निवेदन है कि इस समस्या के निदान के लिए अपने विचार प्रस्तुत करने की कृपा करें।" 

बहुत सोच विचार के पश्चात श्री भानू घोष ने यह सुझाव दिया कि इस कार्य के लिए एक चार सदस्यीय कमिटी का गठन किया जाए जिसमें सेक्रेट्री महोदय के अतिरिक्त आर्ट टीचर श्री सुब्रोतो नियोगी और विशेष रूप से उपाध्यक्ष चौधरी ख़ैरूद्दीन साहब को शामिल किया जाए। ये चारों सर्वप्रथम शिल्पी पंचरतन पाल के घर जाकर उनसे सम्पर्क स्थापित कर उन्हें प्रतिमा निर्माण के लिए तैयार करें। असफलता की स्थिति में उन्हें यह निर्णय लेने का अधिकार होगा कि किसी अन्य शिल्पकार से सम्पर्क स्थापित कर मूर्ति निर्माण करवायें। उन्होंने यह आशा भी व्क्त की कि पंचरतन दा सब की बात काट सकते हैं परन्तु यदि चौधरी ख़ैरूद्दीन साहब स्वयं उनके घर चले जाएँ तो शायद वह इनकार न कर सकें। यह सुझाव सारे सदस्यों को पसन्द आया और तुरन्त कमिटी का गठन कर दिया गया । 

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शिल्पी पंचरतन पाल का घर क्या था, बस एक जीर्णशीर्ण झोंपड़ी। इस झोंपड़ी के सामने कुछ दूरी पर उस से भी अधिक ख़स्ताहाल एक और छोटी सी झोंपड़ी जो एक ओर को बिल्कुल झुक गई थी और जिसे गिरने से बचाने को बाँस के बल्ले बाहर से आड़े कर लगाए गये थे। यह शायद चूल्हाघर था। दोनों झोंपड़ियों के बीच की ख़ाली जगह कच्चा आँगन जिसे जूट की संठियों से बनी टट्टियों से घेरा गया था। टट्टियाँ सड़ गल कर जगह-जगह से टूट फूट गई थीं जिनसे कुत्ते बिल्लियाँ आसानी से आ जा सकते थे। घर के पीछे बाँस का झाड़ जिसकी सूखी पत्तियाँ इधर उधर बिखर कर एक अजीब से सोगपूर्ण वातावरण का निर्माण कर रही थीं।पूरा वातावरण एक गहरी उदासी में डूबा सा प्रतीत होता था। चारों सदस्य झोंपड़ी के सामने खड़े एक दूसरे का मुँह तक रहे थे। अंततः सेक्रेट्री महोदय ने आवाज़ लगाई-- पंचरतन दा! ----- मगर बोसीदा झोंपड़ी के बन्द दरवाजे के पीछे पूर्ण निस्तब्धता रही। कुछ क्षणों पश्चात् सेक्रेट्री महोदय ने दरवाज़े की ज़ंजीर बजाते हुए पुनः आवाज़ लगाई _____ रतन दा! ----- रतन दा!! ---- देखिए, आप से कौन लोग मिलने आए हैं? ___ कुछ पलों बाद दरवाजा थीरे से खुला और शिल्पकार बाहर आया। मगर यह वह शिल्पकार तो न था जिसे इस से पहले इन लोगों ने हमेशा देखा था। यह तो कोई वर्षों पुराना मुर्दा था जो अभी-अभी अपनी क़ब्र से बाहर निकला था। झुर्रियों भरा चेहरा, धँसी हुई चमकविहीन आँखें, आँखों के नीचे उभरी हुई हड्डियाँ, लम्बी पतली और आगे को झुकी हुई नाक, पीला पड़ा चेहरा जैसे शरीर में ख़ून की एक बूँद तक बाक़ी न बची हो। पेट पीठ से सटा हुआ। एक मैली धोती कस कर बंधी हुई। पेट पर चेहरे से अधिक झुर्रियाँ पड़ी हुईं। दोनों हाथ प्रणाम की मुद्रा में जोड़े, प्रश्नसूचक दृष्टि सब पर टिकी हुई। 

प्रधान अध्यापक महोदय ने आगे बढ़ कर दोनों हाथ थाम लिए -- दादा ---- कैसे हैं आप? एक फीकी सी मुस्कराहट -- कैसा हूँ? --- माँ का आशीर्वाद, जीवित हूँ ----- मृत्यु की राह देख रहा हूँ। आर्ट मास्टर सुब्रतो ने कहा -- दादा ! हम आपके पास बहुत आशा लेकर आए हैं -- परन्तु मै तो बहुत बीमार और कमजोर हूँ -- कहते - कहते रतन दा धीरे-धीरे ज़मीन पर बैठ गए जैसे घुटनों में दम ही न रहा हो। चौधरी साहब ने बढ़ कर उनके काँधों पर हाथ रखा तो रतन दा उनका दाहिना हाथ पकड़ कर बेतहाशा हिचकियों से रोने लगे जैसे नागर नदी का बाँध टूट गया हो। देर तक रोते रहे। धीरे-धीरे हिचकियाँ सिसकियों में परिणत हुईं। उनका कमज़ोर शरीर देर तक यूँ काँपता रहा जैसे बाँस का ज़र्द सूखा पत्ता। काफ़ी देर बाद कुछ सामान्य हुए। चौधरी साहब का हाथ पकड़ कर खड़े हुए, फिर जैसे स्वंय बड़बड़ाने से लगे ---- 

माँ का भक्त हूँ। शायद ये मेरे जीवन के अंतिम क्षण हैं। शायद यह माँ की अन्तिम प्रतिमा है। शायद यही माँ की इच्छा है ------- मैं बनाऊँगा माँ की प्रतिमा, आप लोग निराश मत होइये। जीवन में जो कुछ कला मैं ने सीखा इस अन्तिम प्रतिमा को समर्पित कर दूँगा, कुछ बचा कर नहीं रखूँगा। कोई पाराश्रमिक भी नहीं लूँगा।" ---- सेक्रेट्री महोदय की आँखों से आँसू बहने लगे, बोले ---- "दादा !आप धन्य् हैं ।" रतन दा ने कहा ----" लेकिन मेरी कुछ शर्तें हैं। आप बाँस , पुआल , सुतली इत्यादि की व्यवस्था करें। तीन दिनों बाद मुझे एक ट्रैक्टर दें। मैं लहूजग्राम से मिट्टी लाऊँगा अपनी पसंद की। कामगार रखूँगा अपनी पसंद का। दुर्गास्थान के सामने खुले भाग को अच्छे से घेर कर पर्दे की व्यवस्था कर दें । किसी को भी अनावश्यक प्रवेश करने की छूट न होगी।" --- 

सेक्रेट्री महोदय ने मुस्करा कर कहा--" आपकी सभी शर्तें हमें मंज़ूर हैं मगर इस वर्ष भी पूरे सबडिवीज़न में स्कूल को प्रथम पुरस्कार ही प्राप्त होना चाहिये।" रतन दा के चेहरे पर एक शांत और गम्भीर मुस्कुराहट सी फैल गई, बोले ___ "आप निश्चिन्त रहें सेक्रेट्री महोदय ---- ऐसी मूर्ति बनाऊँगा कि सबडिविज़न और ज़िला क्या --- राज्य भर में इसकी चर्चा होगी।" 

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लम्बी प्रतीक्षा के बाद आख़िर सप्तमी की सुबह आ ही गई। षष्ठी की रात शिल्पी ने माँ की आँखें बनाईं। पण्डित ने प्राण प्रतिष्ठा की। प्रतिमा एक बड़े से चादर जैसे कपड़े से ढकी थी। दुर्गास्थान स्कूल के मैदान किनारे बना एक बड़ा सा हॉल था जिसकी छत और तीन ओर की दीवारें पक्की थीं, सिर्फ़ सामने का भाग खुला था। हॉल के ऊँचे चबूतरे पर चढ़ने के लिए सामने पक्की सीढ़ियाँ बनी थीं। हॉल के सामने बड़ा सा पंडाल लगा था। पंडाल का मुख्य द्वार बहुत शानदार जैसे किसी राजा का राजमहल हो। यह बर्द्वान से विशेष रूप से बुलाए गए कारीगरों का कमाल था। पंडाल के भीतर सैकड़ों कुर्सियाँ तरतीब से लगाई गई थीं। बीच से छः फ़ुट चौड़ा रास्ता था जिस पर सुर्ख़ क़ालीन बिछी थी। हॉल को बिजली से जलने वाले तरह-तरह के रंगीन बल्बों और सजावट-सामग्री से बेहतरीन ढंग से सुसज्जित किया गया था। मैदान के बाएँ ओर हलवाईयों, चाट - पकौड़ा, गुपचुप, चाय सिंघाड़ा और खिलौनों की दुकानें थीं। अलता, सिन्दूर, टिक्ली बेचने वालों ने ज़मीन पर प्लास्टिक बिछा कर अपनी दुकान लगा ली थी। ग़ुब्बारे बेचने वाले घूम-घूम कर ग़ुब्बारे बेच रहे थे। हवाई लड्डू वाले ने अपनी साईकिल के कैरियर पर मशीन फ़िट कर रखी थी। ढाक-ढोल बज रहे थे। धूपदान में सुलगते धूप, धुमना और गुगल से उठते धुएँ की सुगन्ध पूरे पंडाल में फैली थी। पण्डित जी लगातार दुर्गापाठ कर रहे थे।पूजा और मेले का पूरा वातावरण बन चुका था। लोगों का आगमन शुरू हो चुका था। देर थी तो सिर्फ़ इस बात की कि निर्धारित समय पर स्थानीय एम. एल. ए. महोदय जो इस स्कूल के अध्यक्ष और मुख्य संरक्षक भी हैं, पधारें और सारे लोगों के दर्शन के लिए प्रतिमा का अनावरण करें। 

एम. एल. ए. साहब का क़ाफ़िला निर्धारित समय पर पहुँचते-पहुँचते ऐसी भारी भीड़ लग गई कि पूरा पंडाल महिलाओं और बच्चों से ही भर गया। पुरूष सैंकड़ों की संख्या में पंडाल से बाहर ही खड़े रहे। सेक्रेट्री और प्रथानअध्यापक महोदय की संगत में एम. एल. ए. महोदय सुर्ख़ क़ालीन पर चलते हुए सीढ़ियों तक पहुँचे, जूते उतारे फिर पूजा हॉल में प्रवेश किया। ढाक-ढोल ज़ोर-ज़ोर से बजने लगे, कासा(झाल) बजाने वाले झूम-झूम कर कासा बजाने लगे, घंटा बजाने वाले पर भी कमाल का जोश चढ़ गया, शंख पूरी शक्ति से फूँके जाने लगे, पण्डित जी ज़ोर शोर से श्लोक पाठ करने लगे, महिलाओं ने कोरस में ज़ोर-ज़ोर से उलू ध्वनि निकालना शुरू किया और भक्त एक आवाज़ में जोय माँ दुर्गे ---- जोय माँ दुर्गे का नाद करने लगे। प्रतिमा पर पड़े चादरनुमा कपड़े का एक कोना एम. एल. ए. महोदय ने पकड़ा। सेक्रेट्री और प्रधानअध्यापक महोदय मदद को आगे आए। पर्दा हटते ही आँखें चकाचौंध हो गईं। वाह! क्या कमाल की प्रतिमा बनाई थी शिल्पी ने। अपना सारा ज्ञान, सारा हुनर और कलाकारी ख़र्च कर डाली थी उसने इस प्रतिमा पर। माँ सिंह वाहिनी अपनी सवारी सिंह पर सवार थीं। सिंह अत्यधिक क्रोध की अवस्था में था। उसके शरीर का अंग-अंग तना हुआ और मुख कुछ ऊपर की ओर उठा हुआ था। गर्दन के लम्बे बाल नीचे झूल रहे थे और मुँह कुछ यूँ खुला हुआ था जैसे एक भयानक दहाड़ से समस्त वातावरण को थर्रा देना चाहता हो। महिषासुर की सवारी महिष ज़ख़्मी अवस्था में नीचे पड़ा था और उसकी गर्दन से रक्त की धारा बह रही थी। माँ ने गहरे पीले चमकदार रंग की साड़ी पहन रखी थी जिस पर सलमा सितारे जगमगा रहे थे। पाँव में पाज़ेब, कमर में कटिबन्द, दसों हाथों में चमकते कंगन और चूड़ियाँ, ऊँगलियों में दमकते नगों वाली अंगूठियाँ और छल्ले, गले में चिक, हार, सीता हार और मोतियों की माला, कानों में बड़े-बड़े झुमके, नाक में नथ और सर पर चमचमाता मुकुट -------- परन्तु मात्र आभूषण ही न थे, बुराई और ज़ुल्म के विरुद्ध लड़ने के लिए हाथों में तमाम प्रकार के अस्त्र-शस्त्र भी थे। शंख, गदा, त्रिशूल, कृपाण, चक्र, पोद्दो ( कमल ), बल्लम, तीर, धनुष, तलवार --- 

---- माँ की आँखें बड़ी-बड़ी थीं। उनके होटों पर एक शांत मुस्कान थी। 

लेकिन माँ का चेहरा ?? ----- यह ----- यह माँ का चेहरा तो न था। यह ----- यह तो करूणामई थी ---- शिल्पकार की एकमात्र औलाद और पत्नी के गुज़र जाने के बाद उसके बुढ़ापे का अन्तिम सहारा। हाँ! वही करूणामई जिसे बहुत मिन्नत-समाजत और पैरवी कर के शिल्पकार ने सेवाग्राम हाई स्कूल में अस्थाई तौर पर शिक्षिका के पद पर बहाल करवाया था। हाँ! वही करूणामई जो आज से आठ मास पूर्व स्कूल जाते हुए रास्ते से ग़ायब हो गई थी और आठ दिनों बाद जिसकी क्षतविक्षत लाश एक खेत में पड़ी मिली थी जिसे किसी दरिन्दे ने बुरी तरह भंभोड़ डाला था। पुलिस आज तक इस केस की तहक़ीक़ात ही कर रही थी और कस्बा का कोई व्यक्ति किसी भी तरह का बयान देने से असमर्थ था जैसे किसी व्यक्ति को इस सम्बन्ध में किसी प्रकार की जानकारी ही न हो या फिर सब के होंठ सिल गये हों। वह माँ थी ------ वह करूणामई थी और उसका बल्लम महिषासुर के सीने के आर पार था। 

लेकिन वह महिषासुर भी तो न था। सारे लोगों ने स्पष्ट रूप से पहचान लिया वह ------ वह तो श्री प्रफुल्ल कुमार सेन एम. एल. ए., सेवाग्राम हाई स्कूल के अध्यक्ष और मुख्य संरक्षक थे। सेक्रेट्री और प्रधानअध्यापक महोदय यूँ खड़े थे जैसे पत्थर के मुजस्समे बन गए हों। एम. एल. ए. महोदय माँ की प्रतिमा के सामने हाथ जोड़े, सर झुकाए निश्चल खड़े थे। मजमा पर एक भारी सन्नाटा छाया था। वहाँ मौजूद हर निगाह बस एक ही शख़्स को ढूँढ रही थी ------- वह फिर कभी किसी को नज़र न आया !!! 

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सम्पर्क: एहसान क़ासमी, नूरी नगर, खजांची हाट, पूर्णिया. मो. 9304397482

पेन्टिंग: सन्दली वर्मा. 



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