सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

साहिर लुधियानवी की दो नज़्में मेरी पसंद की – संजय कुमार कुन्दन

साहिर लुधियानवी की दो नज़्में मेरी पसंद की संजय कुमार कुन्दन

मेरे कॉलिज के ज़माने की दोस्त है साहिर की शायरी. एक ज़माना था जब  मुझे साहिर लुधियानवी की नज्में और ग़ज़लें मुँहज़बानी याद थीं. वक़्त बीतने के साथ आज साहिर के कलाम मेरे ज़हन के पसमंज़र में एकदम ज़िंदा-जावेद हैं लेकिन ज़ुबान तक लाने के लिए बीच बीच में मुझे उसकी किताबों का सहारा लेना पड़ जाता है. यह नहीं के महज़ उसकी ग़ज़लो और नज़्मों की रूमानियत मुझे अपनी ओर खींचती है या के उसके कलाम का एहतजाज़ी तेवर. उसने जिस नैचुरल अन्दाज़ में अपने  एहसासात को पेश किया है वह एक मुकम्मिल शायरी बन गई है बिना किसी ज़ोर-ज़बरदस्ती के- “दुनिया ने तजरबात-ओ-हवादिस की शक्ल में/ जो कुछ मुझे दिया है वो लौटा रहा हूँ मैं.”

और कोई भी हस्सास आदमी इस रिटर्न गिफ्ट को बड़ा सहेज कर रखेगा. आज ‘होता है शबो-रोज़...’ में उसकी दो नज़्मों को एह्तारामन पेश कर रहा हूँ बिना उसके कलाम के तजज़िया के क्योंकि मुझमें वो अदबी सलाहियत नहीं के मैं साहिर के कलाम का तजज़िया कर सकूँ.

मादाम

आप बे-वज्ह परेशान सी क्यूँ हैं मादाम

लोग कहते हैं तो फिर ठीक ही कहते होंगे

मेरे अहबाब ने तहज़ीब सीखी होगी

मेरे माहौल में इंसान रहते होंगे


नूर--सरमाया से है रू--तमद्दुन की जिला

हम जहाँ हैं वहाँ तहज़ीब नहीं पल सकती

मुफ़्लिसी हिस्स--लताफ़त को मिटा देती है

भूक आदाब के साँचों में नहीं ढल सकती


लोग कहते हैं तो लोगों पे तअ'ज्जुब कैसा

सच तो कहते हैं कि नादारों की इज़्ज़त कैसी

लोग कहते हैं मगर आप अभी तक चुप हैं

आप भी कहिए ग़रीबों में शराफ़त कैसी


नेक मादाम बहुत जल्द वो दौर आएगा

जब हमें ज़ीस्त के अदवार परखने होंगे

अपनी ज़िल्लत की क़सम आप की अज़्मत की क़सम

हम को ताज़ीम के मेआ' परखने होंगे


हम ने हर दौर में तज़लील सही है लेकिन

हम ने हर दौर के चेहरे को ज़िया बख़्शी है

हम ने हर दौर में मेहनत के सितम झेले हैं

हम ने हर दौर के हाथों को हिना बख़्शी है


लेकिन इन तल्ख़ मबाहिस से भला क्या हासिल

लोग कहते हैं तो फिर ठीक ही कहते होंगे

मेरे अहबाब ने तहज़ीब सीखी होगी

मैं जहाँ हूँ वहाँ इंसान रहते होंगे


वज्ह--बे-रंगी--गुलज़ार कहूँ या कहूँ

कौन है कितना गुनहगार कहूँ या कहूँ

          ***

तहज़ीब- सभ्य आचरण, नूर--सरमाया- संपत्ति का प्रकाश, रू--तमद्दुन की जिला- संस्कृति के चेहरे की चमक, हिस्स--लताफ़त- मृदुलता का भाव, आदाब- शिष्टाचार, ज़ीस्त के अदवार- जीवन के दौर, अज़्मत- महानता, ताज़ीम के मेआ'- सम्मान का मापदण्ड, तज़लील- अपमान, ज़िया- चमक, तल्ख़ मबाहिस- कटु विमर्श.

फ़नकार

मैं ने जो गीत तिरे प्यार की ख़ातिर लिक्खे

आज उन गीतों को बाज़ार में ले आया हूँ

आज दूकान पे नीलाम उठेगा उन का  

तू ने जिन गीतों पे रखी थी मोहब्बत की असास

आज चाँदी के तराज़ू में तुलेगी हर चीज़

मेरे अफ़्कार मिरी शाइरी मेरा एहसास

 

जो तिरी ज़ात से मंसूब थे उन गीतों को

मुफ़लिसी जिंस बनाने पे उतर आई है

भूक तेरे रुख़--रंगीं के फ़सानों के एवज़

चंद अशिया--ज़रूरत की तमन्नाई है

 

देख इस अरसा--गह--मेहनत--सरमाया में

मेरे नग़्मे भी मिरे पास नहीं रह सकते

तेरे जल्वे किसी ज़रदार की मीरास सही

तेरे ख़ाके भी मिरे पास नहीं रह सकते

 

आज उन गीतों को बाज़ार में ले आया हूँ

मैं ने जो गीत तिरे प्यार की ख़ातिर लिक्खे

***

असास- नींव, अफ़्कार- चिन्तन,  

 

पेन्टिंग: सन्दली वर्मा. 


 

 


टिप्पणियाँ

  1. परिचयात्मक टिपण्णी बेहतरीन. नज्में तो साहिर साहिब की हैं ही लाजवाब! और संदली वर्मा की चित्रकारी हेतु कृपया मेरी बधाई उस तक अवश्य पहुंचाई जाय. सचमुच पेंटिंग की रंगयोजना और आकृति दोनों प्रभावकारी है.

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

दिवाकर कुमार दिवाकर की कविताएँ

  दिवाकर कुमार दिवाकर सभी ज्वालामुखी फूटते नहीं हैं अपनी बड़ी वाली अंगुली से इशारा करते हुए एक बच्चे ने कहा- ( जो शायद अब गाइड बन गया था)   बाबूजी , वो पहाड़ देख रहे हैं न पहाड़ , वो पहाड़ नही है बस पहाड़ सा लगता है वो ज्वालामुखी है , ज्वालामुखी ज्वालामुखी तो समझते हैं न आप ? ज्वालामुखी , कि जिसके अंदर   बहुत गर्मी होती है एकदम मम्मी के चूल्हे की तरह   और इसके अंदर कुछ होता है लाल-लाल पिघलता हुआ कुछ पता है , ज्वालामुखी फूटता है तो क्या होता है ? राख! सब कुछ खत्म बच्चे ने फिर अंगुली से   इशारा करते हुए कहा- ' लेकिन वो वाला ज्वालामुखी नहीं फूटा उसमे अभी भी गर्माहट है और उसकी पिघलती हुई चीज़ ठंडी हो रही है , धीरे-धीरे '   अब बच्चे ने पैसे के लिए   अपना हाथ बढ़ाते हुए कहा- ' सभी नहीं फूटते हैं न कोई-कोई ज्वालामुखी ठंडा हो जाता है अंदर ही अंदर , धीरे-धीरे '   मैंने पैसे निकालने के लिए   अपनी अंगुलियाँ शर्ट की पॉकेट में डाला ' पॉकेट ' जो दिल के एकदम करीब थी मुझे एहसास हुआ कि- ...

आलम ख़ुर्शीद की ग़ज़लें

आलम ख़ुर्शीद               ग़ज़लें                 1 याद करते हो मुझे सूरज निकल जाने के बाद चाँद ने ये मुझ से पूछा रात ढल जाने के बाद मैं ज़मीं पर हूँ तो फिर क्यूँ देखता हूँ आसमाँ ये ख़्याल आया मुझे अक्सर फिसल जाने के बाद दोस्तों के साथ चलने में भी ख़तरे हैं हज़ार भूल जाता हूं हमेशा मैं संभल जाने के बाद अब ज़रा सा फ़ासला रख कर जलाता हूँ चराग़ तज्रबा   हाथ आया हाथ जल जाने के बाद एक ही मंज़िल पे जाते हैं यहाँ रस्ते तमाम भेद यह मुझ पर खुला रस्ता बदल जाने के बाद वहशते दिल को बियाबाँ से तअल्लुक   है अजीब कोई घर लौटा नहीं , घर से निकल जाने के बाद              ***               2 हम पंछी हैं जी बहलाने आया करते हैं अक्सर मेरे ख़्वाब मुझे समझाया करते हैं तुम क्यूँ उनकी याद में बैठे रोते रहते हो आने-जाने वाले , आते-जाते रहते है...

कमलेश की कहानी-- प्रेम अगिन में

  कमलेश            प्रेम अगिन में   टन-टन-टन। घंटी की आवाज से तंद्रा टूटी छोटन तिवारी की। बाप रे। शाम में मंदिर में आरती शुरू हो गई और उन्हें पता भी नहीं चला। तीन घंटे कैसे कट गये। अब तो दोनों जगह मार पड़ने की पूरी आशंका। गुरुजी पहले तो घर पर बतायेंगे कि छोटन तिवारी दोपहर के बाद मंदिर आये ही नहीं। मतलब घर पहुंचते ही बाबूजी का पहला सवाल- दोपहर के बाद मंदिर से कहां गायब हो गया ? इसके बाद जो भी हाथ में मिलेगा उससे जमकर थुराई। फिर कल जब वह मंदिर पहुंचेंगे तो गुरुजी कुटम्मस करेंगे। कोई बात नहीं। मार खायेंगे तो खायेंगे लेकिन आज का आनन्द हाथ से कैसे जाने देते। एक बजे वह यहां आये थे और शाम के चार बज गये। लेकिन लग यही रहा था कि वह थोड़ी ही देर पहले तो आये थे। वह तो मानो दूसरे ही लोक में थे। पंचायत भवन की खिड़की के उस पार का दृश्य देखने के लिए तो उन्होंने कितने दिन इंतजार किया। पूरे खरमास एक-एक दिन गिना। लगन आया तो लगा जैसे उनकी ही शादी होने वाली हो। इसे ऐसे ही कैसे छोड़ देते। पंचायत भवन में ही ठहरती है गांव आने वाली कोई भी बारात और इसी...