एक आम आदमी की डायरी-2
संजय कुमार कुन्दन |
आम आदमी वादा नहीं निभा पाता. कोशिश ज़रुर करता है. जब डायरी शुरू की थी तो वादा किया था कि नियमित रहूँगा लेकिन इतने दिन हो गए इस डायरी के पास आए. थोड़ी शर्मिन्दगी तो हो रही है लेकिन ख़ास आदमी ही कौन वादा निभा पाता है. बल्कि सारी सुविधा रहते हुए वह वादा नहीं ही निभाता है. बड़े लोगों ने बड़े-बड़े वादे किए लेकिन बाद में नए वादे करने पड़े और पुराने वादे चले गए वक़्त के डस्टबिन में. ख़ास लोगों का डस्टबिन पुराने वादों से भरा होता है और ज़ाहिर है ख़ास लोग डस्टबिन जैसी निकृष्ट चीज़ की ओर झाँकेंगे भी क्यों? आम लोगों के पास डस्टबिन कहाँ होता है. उनके वादे तो उनके सामने टूटे हुए फ़र्श पर बिखरे रहते हैं जिनसे उनकी नज़रें दो-चार होती रहती हैं और वे लगातार शर्मिन्दा होते रहते हैं. फिर एक दो को निभाने की कोशिश भी करते हैं. हमेशा एहसासे-कमतरी, एक हीन भाव में डूबे रहते हैं वे.
हाँ, तो यह डायरी लेखन का वायदा अपने आप से.
पिछले पन्ने में मैंने घपड़-शपड़ ढंग से यह साबित कर दिया था कि एक आम आदमी भी डायरी
लिख सकता है. डायरी क्या है एक आत्मालाप है, एक ख़ुदकलामी. मुझे तो लगता है अपने
फ्रस्ट्रेशन को बाहर करने का भी एक ज़रिया है. थोड़ा अपना दर्शन भी है. दर्शन तो है
ही क्योंकि मेरी समझ से हिन्दुस्तान का हर आदमी एक दार्शनिक है- ज़िल्ले-इलाही से
लेकर एक आम मज़दूर तक, सब फिलॉसोफ़र. टी.वी पर रोज़ बड़े लोगों की नई-नई फिलॉसॉफी रहती
है तो मुझे याद आ रही है वह दिलचस्प सब्ज़ीवाली जो हर वक़्त नशे में धुत्त रहती थी.
उसकी भी एक ग़ज़ब की फिलॉसॉफी थी. बूढ़ी थी, एकदम
काली-सियाह रंगत थी उसकी, निहायत पतली- दुबली, आगे के दो-तीन दाँत टूटे हुए, शायद
खैनी-वैनी खाती थी सो बाक़ी बचे हुए दाँत धब्बेदार या तक़रीबन काले थे. सर पर से
सब्ज़ी की टोकरी उतार धम्म से बरामदे पर बैठ जाती और एक लोकल न्यूज़ चैनल की भूमिका
अदा करने लग जाती. उसके मुँह से उसकी बातों के साथ साथ देशी शराब की तेज़ भभक भी
आती रहती.
“जिनगी के कोन ठिकान बाबू. अभी ऊ रमलरैना के
बेटा, गाछी पर चढ़लेय आम तोड़े ल. आ, देखो, गाछी से गिरलय, दाँती लगलय आर मरि गेलय.
की जवान लड़का, जिनगी के कोन ठिकान बाबू.” ज़िन्दगी कितनी रहस्यमय और इसकी चालें
कितनी अनिश्चित हैं इसका पूरा दर्शन था उसके पास. इसलिए वह आराम से दिन-रात देशी
दारू पीती थी, सब्ज़ी बेचती थी, ख़ुश रहती थी और अपना दर्शन अपने हर ग्राहक के पास
बाँचती रहती थी. जब उसने अपने दर्शन और देशी शराब की बदबू के साथ दर्शन देना बन्द
कर दिया तो पता चला कि उसका लिवर ख़राब हो गया था, .खैर इलाज वह क्या करवा पाती सो
इस बेठिकाना ज़िन्दगी को छोड़ कर चली गई. लेकिन अपना दर्शन था उसके पास.
तो डायरी में भी अपनी फिलॉसॉफी रखी जा सकती है.
कौन है आपको काऊंटर करनेवाला. यह तो आत्मालाप है मोनोलोग. वैसे आम आदमी की ज़िन्दगी
दर्शन के सहारे कटती है, किसी बैंक-बैलेंस, कोई ज़मीन-जायदाद का सहारा होता नहीं.
रही बाल-बच्चों का भविष्य सँवारने की बात तो उसके लिए भी सोचने की क्या ज़रूरत है,
सोचकर कर ही क्या लेंगे आप तो एक दोहा रटिए- “पूत सपूत तो क्यों धन संचे, पूत कपूत
तो क्यों धन संचे.”
लेकिन बात कुछ डायरी सी लग नहीं रही. मैं यह दर्ज़
कर ही नहीं रहा हूँ कि मेरे जीवन में क्या-क्या घटा, क्या घात-प्रतिघात हुए, नहीं
तो आज कितने बजे सोकर उठा, क्या-क्या किया, कहाँ-कहाँ गया, क्या क्या देखा, क्या
क्या कमियाँ हैं मुझमें, क्या क्या सीक्रेट्स हैं मेरे जिन्हें कोई नहीं जानता
यानी एकदम निजी बातें. तब न होगी डायरी. अब उस सब्ज़ीवाली बूढ़ी की तरह दर्शन बाँचने
लगूँ तो डायरी का वह लुक थोड़े ही न आएगा.
तो इस आम आदमी को डायरी लिखने की कला सीखनी होगी.
आगे के पन्नों में यह कोशिश जारी रहेगी.
***
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें