कैलाश बनवासी की कहानी--
डायरी,ख़बर और सपने
“मीनू,तुम फ़िल्में तो देखती होगी? भला आज के
ज़माने में कौन नहीं देखता होगा. क्या कभी कोई खूबसूरत फिल्म देखी है?”
“मतलब ?”
“मतलब कुछ ख़ास नहीं है,लेकिन है ज़रूर ख़ास. दरअसल
उस शाम,जब मैंने तुम्हें पहली बार देखा था,वह भी किसी निहायत ख़ूबसूरत फिल्म का कोई
हिस्सा लगता है.तुम्हें इसका शायद यकीन न हो. मैं उस शाम को याद कर सकता हूँ,जो आज
भी उतनी ही ताज़ा,हरी और कोमल है,और कहीं से भी धुंधली नहीं हुई है. वह अगस्त की
आठवीं तारीख़ थी.उस शाम मेरा मूड ख़राब था बहुत. इन कम्बख्त यूनिवर्सिटी वालन को
मेरे ‘ब्राईट कैरिअर एंड फ्यूचर’ की ज़रा भी परवाह नहीं है. परसों मेरे ‘फर्स्ट
इयर’ का रिज़ल्ट निकला था.मुझे अपने दिमाग पर पूरा भरोसा है. आज तक मुझे इतने खराब
नम्बर कभी नहीं मिले. हालांकि टॉपरनहीं रहा कभी भी. सालों ने सोचा नहीं कि इसके
माँ-बाप क्या सोचेंगे! इस लोअर सेकेंड डिविज़न से भला और क्या सोचेंगे कि लड़का
कॉलेज जाकर बिगड़ गया. अब गया हाथ से. नतीजन मेरी और यूनिवर्सिटी वालों की दुश्मनी
हो गयी. मैं और विनय,दोनों ही इसके शिकार हैं. उस शाम दोनों ऐसे ही घूम रहे थे--- यूनिवर्सिटी
में होने वाली धांधलियों और भ्रष्ट्राचार का भाँडा फोड़ते,पूरी शिक्षा-पद्धति को
कोसते,गोल्ड मेडलिस्ट प्रोफेसरों को अव्वल दर्जे का चुगद और स्वार्थी साबित करते
हुए.वहां का चपरासी तक हमारी नज़र में बेहद शातिर था.
पश्चिमी आकाश में बादल घुमड़ रहे थे.दोपहर बाद
से ही हवा नम हो गयी थी. बादलों का कुछ निश्चित नहीं था. लगता था,अब बरसे,तब बरसे.
अपनी आवारागर्दी के समय इसकी चिंता नहीं थी,लेकिन पानी बीच रास्ते में बरस पड़ा.
अचानक.और बहुत तेज़ बौछारें! भागकर एक दुकान के शेड की शरण लेनी पड़ी. वहाँ खड़े होकर
हम बरसात और बारिश में भीगते लोगों को देखने लगे. सामने सब कुछ जैसे सफ़ेद धुंध में
बदल गया था. थोड़ी देर बाद देखा, इसी धुंध से निकलकर तुम आ रही हो.बहुत इत्मीनान
से,मज़े से भीगते-भीगते. तुम्हारे इस भीगते सुख से दुसरे हैरान थे.तुम्हें जैसे
किसी बात की चिंता नहीं थी,न बरसात न हवा.तुम्हारी कॉपी-किताबें तुम्हारे बचाने के
बावजूद भीग रही थी. अपने स्कूल यूनिफार्म-सफ़ेद ड्रेस-में भीगती तुम मेरे सामने से
गुज़र रही थी.अचानक तुम्हारी आँखें मुझ पर ठहर गयीं चलते-चलते—गहरी काली आँखें
!चमकीली और पारदर्शी. ऐसे मौकों पर आदतन मैं झेंप जाता हूँ,या असहज हो जाता
हूँ,लेकिन उस दिन ऐसा नहीं हुआ. मेरी नज़र मानो जम गयी थी और मैं कुछ भी नहीं देख
रहा था—सिवा तुम्हारी आँखों के.पूरी सृष्टि में कुछ नहीं था तुम्हारी काली चंचल
आँखों को छोडकर. मुझे ऐसा देखते हुए तुम धीरे-से सर झुककर मुस्कुरायी थी,पता नहीं
किस बात पर. मैं फिर तुम्हें जाते हुए देखता रहा.पीठ पर झूलती तुम्हारी एक
चोटी...घोड़ा-पूँछ स्टाइल की.
तुम्हारी
मुस्कुराहट मेरे साथ रह गयी.वह ऐसी मुस्कुराहट थी कि मेरी उम्र का कोई भी लड़का
इसका अर्थ बखूबी समझ सकता है.ऐसी मुस्कुराहट सब कुछ कुछ समझा देती है.शायद इसी दिन
से मेरे भीतर का ‘लड़का’ संभल गया और तुम्हारे भीतर की ‘लड़की’.हम दोनों के बीच वह
शुरू हो गया था जो शायद हर किसी के जीवन में एक बार ज़रूर होता है.यह हमारे चाहते
हुआ या अनचाहे,ठीक-ठीक नहीं बता सकता.
“है कि नहीं फिल्म जैसा? लव ऐट फर्स्ट साइट !”
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“बड़ी अजीब लड़की हो तुम.
मुझे लगता है,तुम्हारी उम्र तक आते-आते हर लडकी ऐसे ही अजीब हो जाती है,जैसे तुम.
भला यह भी कोई बात है,मुझे तुम्हारा नाम तक नहीं मालूम!”
“तुम्हारा नाम...? ”
“स्कूल में तुम्हारा सरकारी नाम क्या है,मैं
नहीं जानता.मुझे उससे कोई मतलब भी नहीं है. मुझे तुम्हारा वही नाम मालूम है जो
तुमने मुझे बताया था...उस दोपहर...सिटी बस में...”
वह
राज्य परिवहन निगम की निहायत खतरा बस थी,जैसे कि सरकारी बसें हुआ करती हैं.उसका
अंग-अंग ख़ाली पीपे की तरह खड़खड़ा रहा था.खिड़कियाँ टूटी—फूटीं. कचरे का डिब्बा था
पूरा.और भीड़ इतनी कि खड़े होने भर की जगह बहुत मुश्किल से मिल सकी थी. आगे जब कुछ
लोग उतरे,तब थोड़ा चैन आया. तभी मैं अवाक !...पास में तुम खड़ी थी. बहुत पास...
चिपचिपाते पसीने की गंध के बीच तुम्हारी खुशबू फ़ैल गयी थी,जिससे मैं साँस ले रहा
था,सारे के सारे मुसाफिर साँस ले रहे थे. अगर तुम नहीं होती तो हम मर जाते.सब के
सब.
“कहाँ जा रहे हैं? ”
“आप कहाँ जा रही हैं?”
बातचीत
ऐसे शुरू हुई. हम पहलीबार इतने नजदीक थे और पहली बार हमने इतनी बातें की थीं. खूब
सारी बातें ! हालांकि सफर केवल अठारह मिनट का था.हम हँस रहे थे, खिलखिला रहे थे और
बाकी लोग कुढ़ रहे थे—ये हँस रहे हैं ? इतनी महंगाई में भला कैसे हँस लेता है कोई?
क्या ये ‘भारतीय’ ही हैं?”
जब हमें बैठने की जगह मिली,तब भी कुछेक नाराज़ हो
गए. वे मध्यकालीन लोग थे जो हमें घूर रहे थे. हमारी एक-एक हरकत पर ख़ुफ़िया नज़र
गड़ाये थे. मुझे गुस्सा आ रहा था. ये कब समझेंगे? इनके हिसाब से तो मुझे तुमसे चार
हाथ दूर बैठना चाहिए और वहीं से प्रेम करना चाहिए. पुराने लोग नयों पर कभी विश्वास
नहीं करते.जाने कब तक ये संकीर्ण नैतिकता की दीवार पर उधड़े पोस्टर सरीखा फड़फड़ाते
रहेंगे.
लेकिन तुम्हारी हिम्मत की दाद देनी होगी कि
तुमने उनकी परवाह नहीं की.उनके नैतिक दबाव से निरपेक्ष रही. उस समय तुम बहुत
ख़ूबसूरत लग रही थी..,. किसी फूल सी बहुत ताज़ा और खिली-खिली...
अपना सफ़ेद दुपट्टा समेटते हुए तुम जिस समय बस से
उतरी चौराहे पर,एक बजकर सोलह मिनट हुए थे. मैंने तुम्हारा नाम पूछा था उस समय.जवाब
में तुम मुस्कुरायी—एक बहुत उजली मुस्कान.फिर मेरी बाँयीं हथेली अपने बांयें हाथ
में लेकर तुमने वहाँ अपना नाम लिखा
था...हरी स्याही से. उस क्षण मुझे बड़ी गुदगुदी हो रही थी.लग रहा था,हथेली
पर कोई नन्हीं चिड़िया,बहुत मुलायम पंखों वाली चिड़िया फुदक रही है...
इसके बाद तुम चल दी. पूरी आज़ादी से अपना एयर बैग
हवा में लहराती- झुलाती हुई...
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कॉलेज में मेरी क्लास सुबह साढ़े नौ बजे लगती
है. आजकल तुम्हारे आने के बाद मैंने अपना रास्ता बदल दिया है.तुम्हारे घर के रस्ते
से होकर कलेज जाने लगा हूँ.और इस समय तुम अपने घर के दरवाजे पर खड़ी रहती हो या कभी
सामने लोहे के छोटे गेट पर, या कभी यों ही कॉपी-किताबें लेकर बैठे हुए देखता
हं.कुछ शांत,कुछ उत्सुक और कभी कुछ छिपती-छिपाती सी.
तुम्हारे इस तरह वहाँ होने
की भाषा मैं साफ़-साफ़ पढ़ सकता हूँ.कभी-कभी तो लगता है,मैं तुम्हें पूरे का पूरा पढ़
सकता हूँ—एक-एक शब्द.कभी इससे हटकर यह भी सोचता हों,इस लडकी को कोई काम-धाम नहीं
है क्या सिवा आँखें लडाने के?यह किसी दूसरी दुनिया में जी रही है.ज़रूर अपने
परीक्षाफल में कमाल दिखाएगी!
मेरी
साइकिल खटखटिया है.इसलिए मुझे इतनी सुविधा हासिल है की जब चाहूँ,साइकिल की चेन
उतार लूँ. यह नेक काम अक्सर मैं तुम्हारे घर के सामने करता हूँ.पैडल को उल्टा
घुमाया और लो चेन वहीं उतर गयी.फिर साइकिल खड़ी करके बहुत फुरसत से चेन चढ़ाता
हूँ,और जान-बूझकर थोड़ी देर वहीं खटर-पटर
मचाता हूँ. इस पूरे समय हमारी आँखें मुस्कुराती रहती हैं,खिलखिलाकर हँसती
हैं और पूछती हैं— कहो,क्या हाल है ?’ फिर मैं फूट लेता.और तुम पूरे दिन मेरे साथ
होती हो.मेरे आसपास का सबकुछ तुम्हारी ख़ुशबू से भरा होता है.
यह दिन बहुत अच्छा गुज़रता है.
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हम पढ़ाई करते हैं.
हम पढ़ रहे हैं. यह जानते हुए भी कि ऐसी पढाई के बाद हमारा कोई भविष्य
नहीं होगा. हमारे सामने पढ़े-लिखे नौजवानों की..लाखों-लाख नौजवानों की बेकार पीढ़ी
मौजूद है.दर-दर भटकते,कभी ये परीक्षा,कभी वो परीक्षा दिलाते. सरकारी नौकरी
पाना-जैसे आकाश के तारे तोड़ लेना. हम शायद आगे चलकर इसी जमात में शामिल होने के
लिए पढ़ रहे हैं.और अगर नौकरी मिल जाती है, तब? तब शायद हम भी दूसरों की तरह तमाम
पुराने दिनों,पुराने साथियों को भूलने लगेंगे.और देखते-ही देखते एक दिन सब कुछ भोल
जायेंगे.अपने माँ-बाप को भी. टी.ए.,डी.ए.,ओ.टी. आदि का गणित हमें इतनी फुरसत नहीं
देगा कि वह सब सोच सकें.
लेकिन हमारी पीढ़ी को अब पता है,वे कहाँ होंगे और
कैसे होंगे.कहाँ होंगे—इसका पता नहीं है,लेकिन यह तो है कि कहीं न कहीं होंगे
ज़रूर.
अपने इसी अनिश्चित भविष्य के लिए हम पढ़ रहे
हैं.और देखिए कि ईमानदारी से पढ़ रहे हैं.यह शायद हमारी मजबूरी है.
कल रात हम तीन दोस्त साथ पढ़ रहे थे—कम्बाइंड
स्टडी—मैं,अनिल और अजय. यह मेरे लिए अच्छा ही है,क्योंकि मेरे घर संयुक्त परिवार
का झमेला है,जहां चाचा,ताऊ के बच्चों की चखचख लगी रहती है.ऐसे में कोई क्या पढ़
सकेगा ? उस हो-हल्ले,शोर-शराबे में जो पढ़ा हुआ है, वह भी भूल जाए.इसलिए हम अक्सर
साथ पढ़ते है.
कल रात ज़रा ज़ल्दी सो गया था
मैं.जब सुबह उठा,तो मुझे देखकर दोनों मुस्कुरा उठे. यह मुस्कुराना कुछ ख़ास
था,जिसका कोई छिपा हुआ मतलब होता है.
क्या बात है? मैं उन्हें बेवकूफों की तरह देख
रहा था.
उन्होंने कहा—“कुछ नहीं.”
इस ‘कुछ नहीं’ से मेरी झल्लाहट और बढ़ गयी, “अबे
तो ऐसे मुस्कुरा क्यों रहे हो? मेरे सींग निकल आये हैं या पूँछ निकल आयी है? क्या
जोकर दिख रहा हूँ मैं?” मैं झुंझला पड़ा.लेकिन उन्हें इसमें मज़ा आ रहा था,फिर अजय
ने बात खोली—“अबे, रात में क्या सपना देख रहा था?”
“सपना ! मैं?” मुझे आश्चर्य हुआ.मैंने याद करने
की कोशिश की,लेकिन दिमाग में कुछ नहीं आया.यहाँ पूरा कोरा कागज़ था.—“नहीं,मुझे
नहीं आया कोई सपना-वपना !”मैंने ज़ोर देकर कहा.
“लेकिन कल रात के डेढ़ बजे किसका नाम ले रहा था?”
“अरे,जाने दे ना यार !अपने भगवन का नाम ले रहा
था, भला और किसका?” अजय ने और छेड़ा.
“किसका नाम ले रहा था?” मैं भी किसी अड़ियल
घोड़े-सा अड़ गया—पूरे विश्वास के साथ.मुझे इस तरह नींद में गुहारने की आदत नहीं है.
“अच्छा,तो
वो कौन था,जो मीनू-मीनू कर रहा था? मीनूss ...मीनूsss...”
“तुम्हारा
नाम उनके मुँह से सुनकर मैं सकपका गया एकदम.जैसे चोरी पकड़ी गई हो. किसी तरह पूछा,
“अच्छा,और क्या कह रहा था ?”
“और...और कह रहा था,आओ...मेरे पास आओ...”
वे
हंसने लगे. खूब दिल खोलकर.इतना कि कमरा हिलने लगा.
मैं शर्मा गया,जैसे नंगा होऊँ! पहली बार इतनी
शर्म आयी कि लगा,कहीं छिप जाऊँ !सबसे ! तुम्हारी नरम गोद में दुबक जाऊँ,जैसे चूजा दुबक जाता है
मुर्गी के परों के भीतर.
हे भगवान! अब मैं तुमसे
आँखें कैसे मिला पाऊँगा !
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“मीनू,...मैं तुमसे अलग नहीं रह सकता.कभी नहीं
सपने में भी नहीं ! तुम्हे याद करते हुए मैं सबकुछ भूल जाता हूँ और सिर्फ़ तुम्हारे
पास होता हों,सिर्फ़ तुम्हारे पास.” तुम्हे लगता होगा,यह किसी अति रोमांटिक फिल्म
का डायलाग है,जहां हीरो,हीरोइन की गोद में पड़ा-पड़ा चरम भावावेश का अभिनय करते हुए
बोल रहा है.मुश्किल यह है कि यही मेरी भी सच्चाई है.हमारे जीवन के ऐसे महत्वपूर्ण
क्षणों को ये फिल्म वाले कमबख्त कितनी सफलतापूर्वक कैश कर लेते हैं. पर यह सच है.
अक्सर शाम को मैं तुम्हारी गली में आता हूँ...शायद तुम दिख जाओ. यों किसी लड़की की
गली में घुसना मेरे लिए बहुत कठिन काम है,लगभग दुश्मन के किसी रहस्यमय,षडयंत्रों
से भरे किले में घुसने जैसा. लेकिन बहुत हिम्मत जुटाकर,साधकर आता हूँ,किसी वीर
योद्धा की ताक़त भीतर समेटकर. और हमेशा लगता है,आज एक निर्णायक स्थिति बनेगी-- आर
या पार ! वहां से गुजरते हुए मुझे हमेशा लगता है,सब के सब जैसे मुझे ही घूर रहे
हैं...नालायक कहीं के ! इसको कहते हैं,--अनदेखना !जिनसे दूसरों का सुख कभी देखा
नहीं जाता.भला पूछो उनसे,इस तरह निशाना साधकर घूरने का क्या मतलब हैं? हालाँकि सब
पढ़े-लिखे हैं,’शिक्षित’ और ‘समझदार’ माने जाते हैं,पता नहीं क्यों और कैसे ! मैं
तुम्हे बताता हूँ,ये सब हमारे रास्ते के अवरोधक हैं. –प्रेम,स्वतंत्रता,सुन्दरता और
कला के अवरोधक! क्या प्रेम करना किसी कला
से कम है? मैं तो इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि जो प्रेम के अवरोधक हैं,वाही समाज और
राष्ट्र के भी अवरोधक हैं.
खैर,इन्हें छोडो. ये हमारा क्या बिगाड़ सकते
हैं? तुम्हारी दीदी और जीजाजी—जिनके साथ तुम यहाँ रहती हो—बहुत लापरवाह हैं.उन्हें
अपने से फुरसत नहीं.वह अभिभावकाना जिम्मेदारी नहीं है,जो कि होनी चाहिए. और
तुम्हारी वो मकान-मालकिन--जिसे तुम ‘आंटी’ कहती हो—उस मोटी ‘फ़ुटबाल’ से मुझे सख्त
चिढ़ है. मैं जब कभी उधर से गुज़रता हूँ,वह ज़रूर टोह लेने की कोशिश करती है कि मैं
उसके बॉब-कट कान्वेंट बेबी को लाइन तो नहीं मार रहा,..या तुम खुद मुझसे मिलने के
लिए आस-पास तो नहीं खड़ी हो...
इनसे बच-बचाकर मैं चैन की
साँस लेता हूँ—चलो,सब ठीक रहा. जान बची लाखों पाए!
तुम्हारा प्यार फिर मुझे
नज़दीक खींच लेता है.मेरी शिराओं में ऊर्जा भरने लगता है. मैं ताकतवर हो जाता
हों.बड़ी से बड़ी कठिनाई पर पार पाने का हौसला बन जाता है---पक्का,लोहे की तरह
मज़बूत,और स्थिर.
...इस तरह मैं तुम्हें
प्यार क्र रहा हूँ.इस तरह मैं सीधे-सीधे साहस अर्जित कर रहा हों.ऐसा सहस,जो एक दिन
अपनी बात के लिए,अपनी लड़ाई के लिए निर्णय ले सके—एक मुकम्मल निर्णय.
कभी-कभी
लगता है,तुम अपने-आप में पूर्ण हो,कितुम्हें हर बात का पता है.और कभी-कभी लगता
है,तुम वैसी ही बहुत भोली और मासूम हो,जैसे फिल्म के पर्दे पर नजर आती हमारी
नायिकाएँ,जिन्हें दुनिया का कुछ अता-पता नहीं होता. तब लगता है,कुछ ऐसे ‘नहीं
मालूम’ हैं,जिनका तुम्हे मालूम होना ज़रूरी है—बेहद ज़रूरी. कि यह दुनिया कहाँ से
कहाँ जा रही है,इसके भीतर किसका साम्राज्य है,...कि दिन-ब-दिन,पल-पल यह संसार
कितना बदलता जा रहा है,कैसे एक भयानक जंगल में तब्दील होता जा रहा है,जहां हर
जानवर दूसरे को फाड़ खाने को बेताब है. तुम्हें पता है मीनू,दुनिया में इतना
उत्पादन होता है कि कोई भी आदमी भूखा नहीं मर सकता,लेकिन आधी,बल्कि इससे भी ज्याद
दुनिया भूखी रहती है,नंगी और बीमार रहती है.तुम्हें तो यह भी नहीं मालूम होगा कि
पूरी दुनिया की सत्तर प्रतिशत आय किन दस प्रतिशत लोगों के पास है. मैं नहीं चाहता
कि तुम उस हत्यारी और निर्मम दुनिया का हिस्सा बनो. कभी नहीं चाहता.मैं तुम्हें
बचाकर रखना चाहता हूँ इनसे...अपने पास...अपनी सोच की तरह...अपनी सबसे प्यारी चीज़
की तरह. उस दुनिया के हर खतरे से सुरक्षित. मैं तुम्हारा वह सबकुछ बचाकर रखना
चाहता हूँ,जो तुम हो,जो तुम्हारे भीतर गहराइयों में है.तुम्हारे भीतर की असीम
हरियाली को मैं कभी नष्ट नहीं होने दूंगा.उसे वैसे ही रहना चाहिए....हरा-भरा...और
कोमल...और झरनों के संगीत से भरा हुआ...
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मैं
देखता हूँ,तुम जब से इस मुहल्ले में आई हो,यह पिछड़ा और उपेक्षित मोहल्ला रौनकदार
हो गया है.नए उम्र के छोकरों की तो छोड़ो,पकी उम्र वाले भी तुम पर नजर जमाये रहते
हैं तुम्हारे घर के सामने लेटेस्ट फ़ैशन का बाज़ार चलता है,जो रोज़-ब रोज़ बदलता
है,जिसे तुमने ज़रूर देखा होगा.यहाँ का सब कुछ चमकदार और रंगीन है—जाँघिये से लेकर
रोमल तक!शाम होते ही इन लड़कों का यहाँ मजमा लगता है. उस नीली रोशनी वाले खम्भे के
नीचे,जो तुम्हारे मकान से बस इतनी दूरी पर है कि वहाँ से तुम आकर्षक लगती रहो और
इधर हम.सबके सब हँसते हैं,गाते हैं,लड़ते हैं. इसलिए कि हम आशिक हैं,और अभी
अधीर,उन्मादी और हत्यारे प्रेमी में तब्दील नहीं हुए हैं.फिर भी लड़ाई तो है.हम
सबको विश्वास है कि तुम केवल ‘उसी’ पर मरती हो.
मैं भी उन्हीं में से एक
हूँ.
यह मनीष है,जो सबसे ज्यादा चक्कर लगता है
तुम्हारे घर के,कोल्हो के बैल की तरह,और आज तक ऊबा नहीं है.उसने सबको बता रखा है कि
तुम उसे रोज़ हंसकर ‘फ्लाइंग किस’ देती हो...
वह राजेन्द्र,जिसने संजय
दत्त की हेयर स्टाइल रखी है,कहता है—वो तो रोज़ स्कूल जाते हुए मुझे ‘विश’करके जाती
है...
और मुकेश,जिसके जोड़ का मुहल्ले में कोई डांसर
नहीं है,उस साले ने यहाँ तक बता दिया है कि उसने तुम्हें एक बार चूमा है...
विपिन को यह हिसाब करना
मुश्किल है कि उसके साथ ‘यामहा’ पर तुम कितनी बार होटल गयी हो और कितनी बार
पिक्चर...
...कभी ख़बर सुनने को मिलती कि तुम दूसरे पीरियड
के बाद स्कूल से भागकर अखिल के साथ शहर के सबसे ऊँचे और सबसे महँगे होटल में लंच
करने गयी थीं...
और मेरे पास कोई चारा नहीं है सिवाय कुढने के.
बहुत मुश्किल से इन नीम कड़वी ख़बरों को निगल पाता हूँ.मैं उदास हो जाता हूँ .निराश.
बहुत गहरे सोच में डूब जाता हूँ.-- यह क्या होता जा रहा है तुम्हें? यह मोटरसाइकिल
...होटल...लंच...पिक्चर...मेरे दिल-दिमाग में लू चलने लगती है
तेज़,...गरम...भाँय-भाँय...! दबाकर छोड़े गए स्प्रिंग के समान उछलने-कूदने लगता
है.मुझे लगता है तुम धीरे-धीरे अपने-आप को खोटी जा रही हो,जैसे और लोग खो रहे
हैं.यह आकर्षण का धारदार चाकू वह सब काटकर रख देगा जो मैं तुम्हारे भीतर बचाकर
रखना चाहता हूँ...अपनी आख़िरी साँस तक.
पढ़ाई में मन नही लगता.उकता
गया हूँ,जबकि परीक्षा का भूत सामने खड़ा है.किताब देखता हूँ तो पाता हूँ—हवा में
बातें करती,फर्राटा भरती मोटरसाइकिल...चम-चम-चमचमाती,...मादक लाल रोशनी में
भीगा,झिलमिलाता होटल का प्राइवेट कोना, या फिल्महाल का अँधेरे में डूबा आरामदेह
एयरकंडीशंड कोना...दिमाग की नसें चटखने लगती हैं मिटटी की सूखी मूरत के समान.
फनफनाकर मैं सरे जहां को
गालियाँ बकता हूँ.तुमको भी.
लेकिन
मेरा सबसे बड़ा सहारा यह है कि मैंने यह सब सुना है,देखा नहीं.वह विश्वास अब भी
कायम है—किसी पुराने किले की पकी हुई मज़बूत दीवार की तरह.
यह तो बाद में पता चला कि वह
सब झूठ था.वह तुम थीं ही नहीं. कोई और थी तुम्हारी तरह. लड़की.
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रात में पढ़ते-पढ़ते थक जाता
हूँ,ऊब जाता हों,कमरे की बंद हवा से घुटन होने लगती है,बदहवास होकर कमरे से बाहर
निकल आता हूँ खुली हवा में...जोर-जोर से साँस लेने के लिए...ठंडी और सुखकर हवा
अपने भीतर भरने के लिए...
लेकिन उस रात ठगा रह गया,जब देखा,सुखद आश्चर्य
के साथ,कि तुम भी बाहर टहल रही हो...ढेर सारी ख़ुशबू,शीतल हवा और भरपूर चांदनी के
साथ. वह खूब उजली रात थी और बहुत हल्की....हवा की तरह... कुछ जल्दी ही हम एक-दूसरे
के पास पहुँचे थे.
“मीनू...इतनी रात में ?
अकेली?”
“हाँ.” तुम बस हल्के से
मुस्कुरा दी.
“लगता है,तुम्हे इस शहर के
बारे में जानकारी नहीं,वरना अकेली इतनी रात में प्रेतनी की तरह नहीं घूमती.”
तुम बोली—“ अरे-अरे इतना भी
मत डराओ कि घर से बाहर निकले से घबराने लगूं.बस,यूँ ही थोड़ा टहल रही थी.”
अब मैं भला मना क्यों
करता.मिलने का अवसर कोई छोड़ता है?
यह कोई नियम नहीं बना
था,फिर भी हमारी मुलाक़ात रात में होती. हम टहलते हुए निकल जाते हैं सूनी सडकों पर.
पूरे शहर की ख़ामोशी को सुनते हुए. रात के गहरे अँधेरे में डूबा शहर वह पहचाना शहर
नहीं होता जिसे हम दिन में देखा करते हैं. यह रात में उतना ही आत्मीय और उतना ही
अजनबी—दोनों एक साथ होता है. एक साथ बेरंग और चमकदार.आश्रयदाता और हत्यारा.
मुझे याद है,उस रात तुम
बहुत चंचल और शरारती हो गयी थी. बात-बात में जिद करने वाली नटखट,मीठी और नमकीन
बच्ची. एक बार तो इतनी जोर से चिकोटी काटी कि मैं चीखते-चीखते रह गया. तुम्हारे
हँसने के कारण मैं रो भी नहीं सका था. मोहल्ला अँधेरे में डूबा था.उस गली की एक
बिल्डिंग की दूसरी मंज़िल में हरी रोशनी थी.उस कमरे की खिड़की सड़क की तरफ खुलती थी.
खिड़की की सलाखों के पीछे हमने देखा,एक खूबसूरत औरत है...अट्ठाईस-तीस बरस की, और वह
हमें बहुत संशय से घूर रही है.
तुम मूड में आ गई. बोली
एकदम, ‘’चलो इसको झटका दो.”
“क्या
झटका?”
“अरे,सिटी मारो,किस करो !” गज़ब का उत्साह था
तुम्हारी आवाज़ में.और शरारत से घुली-मिली आँखों में चमक.
मैं हड़बड़ा
गया, “अरे,मुझको पिटवाना चाहती हो?”
तुमने मेरे कंधे को झिंझोड़ा, “अरे,चलो ना.तुम भी
कैसे हो बिलकुल....?” तुम्हारा सहर और इशारा पाकर भी यह लफंगई करने की मेरी हिम्मत
नहीं हो रही थी. हिचक रहा था. आखिर थोड़ी देर बाद,अपने ती काफी हिम्मत दिखाते हुए
जोर की सिटी बजा दी और अदा के साथ हवाई चुम्बन फेंक दिया.
तुम्हारी परीक्षा में मैं पास हो गया.
लेकिन खिड़की गुस्सा होकर भड़ाक से बंद हो गयी.
और तुम खिलखिला रही थी निर्द्वंद्व...झरने की तरह उजली खिलखिलाहट.”वेरी गुड!
शाबाश! आज तुमने साबित कर दिया कि...कि
घोंचू नहीं हो तुम!”
सहसा मैंने तुम्हारी चोटी
पकड़कर अपने नज़दीक खींच लिया था तुम्हें...और चूम लिया था.
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मीनू,तुम्हें नींद नहीं आती है.
तुम्हारे साथ रत में ऐसे
घूमना मेरे लिए कितना सुखकर है,मैं बता नहीं सकता. ठंडी हवा के नरम झोंकें की
तरह...तमाम तपिश और थकान से राहत देने वाली बरसाती फुहार की तरह. मुझे नहीं
मालोम,यह तुम्हारे लिए क्या है.महज एक-दूसरे को जानना,महसूस करना और सब कुछ भूल
जाना !...या,खुलकर अपने भीतर ताजगी और हवा बटोर लेने की तीव्र,बेचैन और पगली
फड़फड़ाहट !...या लगातार साँस लेते रहने की पथरीली कठोर इच्छा...
मीनू,तुम सो नहीं पाती हो.
क्यों ? अब यह किसी से
छुपा नहीं है.तुम्हारी दीदी एक बदचलन औरत है! यह बात खुद तुमने मुझे बताया था,और
किस भयंकर उथल-पुथल के बाद बताया था—मैं यह भी जानता हूँ.
अब यह बात वैसी छुपी नहीं
है. मैं गौर करता हूँ,लोग तुम्हारी दीदी को एकदम नंगी करके देखते हैं.अपनी कल्पना
में छूकर,उघाड़कर.उसका शरीर उन्हें सिनेमा के कैबरे वाली मादक और पाशविक उत्तेजना
से भरने लगा है. लम्बी, भरे देह की तुम्हारी दीदी है भी बला की खूबसूरत. और
आकर्षक. वह दो बरस के एक बच्चे की माँ है,इसके बावजूद.
तुम्हारे दुबले-पतले और
लगभग बीमार-से नजर आने वाले जीजाजी शहर से दूर,गाँव के सरकारी ऑफिस में एक दूसरे
दर्जे के अधिकारी हैं.वह दिन के वक़्त घर पर नहीं होते. तब दोपहर में तुम्हारी दीदी
गायब रहती है.---कहाँ? यह कोई नहीं जानता.या कभी-कभी कोई गाड़ी तुम्हारे घर के
सामने खड़ी रहती है—मारुती,जीप,या मोटरसाइकिल.
सुनता हूँ,यहाँ सरकारी अफसर भी आते हैं,और पुलिस वाले भी. और यह भी सुनता
हूँ कि उसमें तुम्हारे मकान-मालकिन का भी प्रतिशत बंधा हुआ है. यह शायद झूठ भी
नहीं है.
मैं तो देखता हूँ,लड़के
तुम्हारी दीदी को कहीं जाते हुए देखते हैं,तो वासना से मचल जाते हैं. उस ‘भूख’ की
मुस्कान उनके चेहरे पर खेलने लगती है.
--- अबे,ये ऐसी-वैसी नहीं है,समझा ! ख़ास है ख़ास
!
---स्पेशल लोगों के लिए !हाई क्वालिटी.
स्टैण्डर्ड माल ! समझा कुछ ?
इन बातों को लेकर लगभग रोज़
झगड़ा होता है दीदी का -- जीजाजी से,तुमसे. और जरूरी तो नहीं कि हर झगड़े में
हो-हल्ला और मारपीट हो. खासकर पति-पत्नी के झगड़े में.कि एक गहन तनाव में और चुप्पी
की आँच में दो जन झुलसते रहें लगातार...
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कल रात हम जहाज़ की ‘डेक’ पर थे.
दरअसल यह जहाज़ की डेक नहीं,शहर के पूरबी छोर पर
बने डैम के किनारे बनी एक छोटी छत है.यहाँ से खड़े होकर देखिए, तो नज़ारा कुछ ऐसा बन
जाता है कि विशाल डैम हमारे ठीक नीचे लहराते,थपेड़े मारते जल के चलते समुद्र लगने लगता
है, और यह छोटी-सी छत जहाज़ की डेक...लहरों के बीच डोलती जहाज़ की छत...
हम यहाँ अक्सर आया करते
हैं. शहर से कुछ दूर और सुनसान इलाके में होने की वजह से यहाँ प्रायः खामोशी रहती
है.कभी-कभी गाड़ियों के गुजरने से उनकी रोशनी से झमक उठता है...उनके हॉर्न या
घरघराहट से पूरा इलाका भर जाता है.
हवा में
ठंडक ही नहीं,नमी भी थी.और ऊपर धूसर चाँदनी. रात में डैम का पानी और काला प्रतीत
होता था,और चमकीला. बनती-बिगड़ती लहरियां चमक रही थीं. सरसराती हवा के बीच हम डेक
की रेलिंग पर टिके थे. हम काँप रहे थे हल्के.
“....अब तो यहाँ रहना बहुत मुश्किल हो गया
है...”
तुम
धीरे से फुसफुसाई थी,जैसे खुद से कह रही हो. जो मुझ तक सरक आई,बेआवाज़. तुम उदास
थी. बहुत-बहुत उदास.और बहुत निराश.मटमैली चाँदनी के हलके उजाले में भी मैं तुम्हें
पढ़ सकता था,पूरा-पूरा. मैं चुप था. चुपचाप सुन रहा था तुम्हें.
“मैं इसीलिए कहीं आ-जा नहीं सकती !”
तुम्हारी आवाज़ सहसा ऊँची हो गयी थी सहसा. और
तीखी. “कल कुछ लेने दुकान गयी थी,तो दुकानदार जैसे छील रहा था मुझे...जैसे मेरा
भाव जानना चाहता हो मेरा ! और यह कोई अकेला नहीं है ऐसा.आते-जाते लोग टॉन्ट मरते
हैं,पता नहीं क्या-क्या....मैं अनसुना करने की कोशिश करती हूँ भरसक...लेकिन...
यहाँ तक कि स्कूल में भी यही सब है...सब जानते हैं,मुझसे छुपाना चाहते हैं,लेकिन
मुझसे जानना भी चाहते हैं...हर जगह दीदी की बदबू...उसकी बदचलनी मेरे साथ चिपकी
रहती है...मेरा पीछा नहीं छोडती...कहीं भी. उसके संग मैं भी बदबूदार हो गई हूँ...”
मेरे पास शब्द थे.बढ़िया भाषा थी.बातों का गहरा
संबल था.लेकिन तब जैसे सारे शब्द एकदम फालतू हो गए थे.बेमतलब. तुम मुझसे ज़रा सट गई
थी. मैंने तुम्हे समेत लेना चाहा था
तुम्हारा कन्धा पकड़कर.
तुम्हारी आँखों में नमी देख रहा था.
... आज तुम स्कूल जा रही
थी. स्कूल में प्रेयर की घंटी साढ़े ग्यारह बजे लगती है.सफ़ेद सलवार-कुरते का
यूनिफार्म पहने,और हमेशा की तरह सर कसी हुई एक चोटी—घोड़ा-पूँछ स्टाइल की—जो मुझे
हमेशा अच्छी लगती है.तुम अकेली जा रही थी. पिछले कई दिनों से तुम अकेली ही जा रही
हो.मुझे तुम्हारा यह अकेलापन बहुत डरावना लगता है.इतने-इतने लोग,फिर भी बात करने
को कोई नहीं. मीनू,मैं सोच नहीं पाता,तुम
किससे बातें करते हुए स्कूल जाती होगी—अपने-आप से,...इस व्यस्त धूल-गर्द से अटे
शहर से...रास्ते के पेड़ों से,चिड़ियों से...या अपनी कॉपी-किताबों से...? यदि तुम
अपने से कुछ आगे चल रही हँसती-गाती- चहचहाती लड़कियों की झुण्ड में पहुँच जाती हो
तो सारा कुछ अचानक बदल जाता है.एक बोझिल ख़ामोशी वहाँ टन जाती है तुम फिर से अकेली
हो जाती हो.बल्कि पहले से कहीं ज़्यादा पीड़ा के साथ अकेली...
तुम्हारे स्कूल के रास्ते में महावीर चौक पड़ता
है.यहाँ लडके जमे रहते हैं इस समय.लड़कियों से आँखें सेंकते.उन्हें छेड़ते. फिकरा
कसते.ये सब बाप की कमाई पर निश्चिंत,बिगड़े आवारा लडके हैं.आज अजीत खड़ा था.अपने
हमशक्ल लडकों के साथ. यह भी पैसे वाले बाप की बिगड़ी औलाद है.कुख्यात अपराधियों से
इसकी उतनी ही दोस्ती है जितनी पुलिसवालों से.
तुम जैसे ही वहाँ से गुज़री,वे शुरू हो गए.
“क्यों रानी,चल रही है?”
“अरे,इतने नखरे तो तेरी बहन नहीं मारा करती !”
“और
बेबी डार्लिंग.कैसा चल रहा है तेरी दीदी का बिजनेस?’’
“अरे चल भी. उसको पाँच देते हैं तो तेरे को
हजार देंगे.”
“उसका ठंडा हो गया है तो तेरा गर्म कर दें ?”
यह सब तुमसे बर्दाश्त नहीं हुआ था.वह न जाने कब
से लगातार होते तुम्हारे अपमान का नतीजा था,या तुम्हारे भीतर का हमेशा
घुटता,कुचलता,उबलता हुआ दुःख...अगले ही पल तुम उस लडके को तमाचे पर तमाचे जड़ रही
थी. तड़-तड़-तड़! गुस्से से पागल,अवश और शेरनी की तरह बिफरी हुई.तू अपनी आवाज़ से की
गुनी ऊँची आवाज़ में चीख रही थी,हाँफ रही थी और रो रही थी...
...तुम रो रही थी.बिना
किसी आवाज़ के.तुम्हारी उखड़ी-उखड़ी गर्म सांसों की भाप मैं महसूस कर रहा था.तुम्हारे
आंसू अब सूख चले थे रोते-रोते...
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वह हमारी आख़िरी मुलाक़ात
थी.इसके बाद हम फिर कभी नहीं मिल सके. तुम चली गई,पता नहीं कहाँ.और लोगों को मालूम
नहीं हुआ कि तुम यहाँ से चली गई.आखिर एक लड़की का इस तरह चली जाना कौन-सी
महत्वपूर्ण बात है? अब तुम किसी प्रधानमंत्री की बेटी तो हो नहीं जिसे सारा देश
जानता है,..कि देश भर के अखबार मुख पृष्ठों पर तुम्हारी फोटो छपे,और दूरदर्शन की पहली खबर बनो. तुम चली
गई,इसे जानने की फुर्सत लोगों के पास नहीं है.जैसे वे कल थे,वैसे ही आज हैं—अपनी-अपनी
राजनीति,जोड़-घटाने में लगे हुए, करोड़ों का घोटाला करते हुए,कमिशन खाते हुए या
चुपचाप अपने काम में खटते हुए—अपने प्रमोशन की,इन्क्रीमेंट की राह देखते
हुए.उन्हें अपने बीसियों चैनलों से साडी दुनिया की ख़बरें मालूम है,लेकिन यह नहीं
मालूम कि तुम पिछली कई रातों से सोई नहीं थी...या यह कि उस रात तुम कितना रोई
थी...
पता नहीं कहाँ चली गई
तुम?
तुम्हें गए हुए जाने कितने
दिन,कितने महीने बीट गए. मेरे लिए बहुत
कठिनता से भरे हुए दिन.इस बीच मैं पास हो गया हूँ और इस साल फाइनल है.मैं अपनी
पढाई उसी ईमानदारी और उतनी ही अदबी बेवकूफी से कर रहा हूँ—एक अनजाने भविष्य के
लिए,अनजाने रोजगार के लिए,क्योंकि पढने के अलावा और कोई चारा नहीं है फ़िलहाल मेरे
पास. खैर इसे छोड़ो. तुम्हारे जीजाजी और दीदी अब अलग-अलग रह रहे हैं.तलाक़ की
कार्यवाही चल रही है.बछा फ़िलहाल अपनी माँ के पास है,जो जाने किन-किन क्लबों की
सक्रिय सदस्य है और महिला उत्पीडन और स्वतंत्रता पर भाषण देती रहती है. सारा आलम
बद्स्टर है—वही लोग,वही फिकरे,वही पान-सिगरेट और वही चाय-समोसा.
और तुम?
तुम अब हमारे बीच महज एक
उड़ती-सी खबर बनकर रह गयी ह. एक ऐसी ख़बर,जो उतनी ही सच हो सकती है और उतनी ही
झूठ.मुझसे सच और झूठ का फैसला नहीं हो पाता.मेरे लिए यह आज भी अनुत्तरित है.
--अरे,भाग गयी होगी अपने
किसी यार के साथ !
-- शायद बदनामी से तंग
आकर अपने माँ-बाप के पास चल दी हो.
--मुझको लगता है,उसकी दीदी ने ही किसी मोटे आसामी
को बेच दिया होगा.आज के जमाने में बाप बड़ा न भइया,सबसे बड़ा रुपैय्या!
---या हो सकता है,एकाध रोज
उसके जीजाजी की नीयत खराब हो गयी हो !
---मुझे तो उसकी
मकान-मालकिन पर डाउट है.सारा खेल उसी का कराया लगता है.जरूर उसी ने लडकी को ‘पार’
कराया होगा.
कोई कहता है कि आजकल तुम
मुंबई में एक मॉडल हो...और उसने तुम्हें उन सब विज्ञापनों में देखा है जिसमें लड़की
धीरे-धीरे एक ‘जिन्स’ में बदल जाती है,जिसमें देह का नंगापन वास्तु का पर्याय बन
जाता है.और लाखों-लाख लोग उस चीज़ को भोगते हुए दरअसल तुम्हें भोगते हैं...
कुछ कहते हैं,तुम शाम को जब स्कूल से लौट रही
थी,उन लोगों ने तुम्हें बीच रास्ते में अपने साथियों के साथ उठवा लिया और जीप में
शहर से दूर किसी खेत में ले गए. वहाँ तुम्हारे साथ सामूहिक बलात्कार किया गया. और
बुरी तरह निचोड़कर तुम्हे छोड़ दिया—बिलकुल नंगी! तुम्हारे सारे कपड़े उन्होंने तुम्हारी
आँखों के सामने जला दिए. फिर कह दिया—जाओ,अब तुम आज़ाद हो. तुम तब से वैसी ही पगलाई घूम रही हो और सब जगह घूमती रहती
हो.उनका कहना है कि तुम्हें किसी भी जगह और किसी भी समय यों भटकते देखा जा सकता
है...
यह सब एक ख़बर के पीछे
गूंजती आवाज़ें हैं. हर ख़बर दुसरे दिन बासी हो जाती है,बल्कि अब तो दूसरे ही पल
बासी हो जाती है,क्योंकि हम हम विराट सूचना तंत्र में जी रहे हैं,जहां चारों तरफ
अनगिन सूचनाएँ हैं,लेकिन मैं नही चाहता कि यह खबर कभी-भी बासी हो.यह मेरे लिए आज
भी उतनी ही ताज़ा है. लोगों के दिमाग में इसका ताज़ा रहना ज़रूरी है,बहुत ज़रूरी—जैसे
हवा ज़रूरी है जीवित रहने के लिए.
मीनू, पता नहीं क्यों,आजकल
मुझे तुम्हारे सपने नहीं आते.मेरे सपने किसी भयानक बीहड़ में घुस गए हैं,जहां बेहद
खूँखार और आदमखोर जानवर ज़ोरदार हुंकारा भरते हैं—ऐसे जैसे दुनिया की किसी भी बात
का उनको भय न हो !एकक्षत्र साम्राज्य होने का विजयी और उन्मादी हुंकारा !
...लेकिन मैं यह सब नहीं
देखना चाहता.मैं फिर से तुम्हें देखना चाहता हूँ. हमेशा-हमेशा देखना चाहता हूँ...
***
सम्पर्क: कैलाश बनवासी, 41, मुखर्जी नगर,सिकोलाभाठा, दुर्ग (छत्तीसगढ़), मो- 98279 93920
पेन्टिंग: सन्दली वर्मा.
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