विपिन चौधरी की कविताएँ
पृथ्वी
का नमक
पृथ्वी
की काया
किस
चिंता में घुली जा रही है
क्या
उसे अपनी
गहरी
रपटीली काई पर विश्वास नहीं
आस्था
नहीं सेमल के लाल फूलों पर
तेंदू
और कमल के पत्तों की
शोखियों
पर
कम
से कम पृथ्वी को
अपने
नमक पर तो भरोसा होना चाहिए
पछाड़
खाती हुई
समुंद्र
की लहरों की नज़रें बचा
तटों
के किनारे.किनारे बिछ गया है जो
पृथ्वी
के
आड़े
वक़्त के लिए ही
***
पतझड़
मैं
उस लौटते हुए पतझड़ को
आँख
दर आँख देख रही हूँ
जो मेरे भीतर की हर कोशिका
में
उदासी भरकर जा रहा है
और
कह रहा है पीछे मुड़
देखते
हुए मुझे,
मेरी
याद अपने मन में बसाए रखना
मैं
फिर लौटूंगा
तुम्हारे
अवसाद को और गहरा करने
***
तितली में उतरना
प्रकृति
की खूबसूरती के सामने
मैं
अपनी अतीत की महिमा को नहीं देख पा रही हूँ
ना
ही दिख रहा है मुझे
वर्तमान
का चमत्कार
मेरी
नज़र बाग़ में
इस
फूल उस फूल उड़ती
तितली
पर है
उसी
रंग.बिरंगी तितली में उतर जाना चाहती हूँ
जिसमें
एक रंग मेरा पसंद का है
और
एक मेरे प्रिय का
***
दुःख
लो
अब फिर एक नए तरह का दुःख मेरे सामने है
पुराने
सभी दुखों से कहीं जुदा
एकदम
नए नैन.नक्श का
सीपी
के भीतर बैठा घोघा
बेचैन
हो खींचता होगा
जब
कभी
सीप
की दीवार से अपनी देह
बस
कुछ वैसा खिंचाव भरा अहसास
इस
नए दुःख का
कितने
ही महीन से महीन निशान
और
स्थूल संकेत एक.एक कर मिटाने पड़े हैं इन दिनों मुझेण्
उधर
उससे जुड़ी कोई चीज़ अचानक से दिखी
और
इधर मैं पत्थर
कई
प्रसंगों को करना पड़ा है हवा
स्मृतियों
की लंबी डोरियां को काटकर
करनी
पड़ी है उनकी उम्र काफी कम
कुछ
ऐसा ही है यह नया दुःख
सारे
दुखों से अलग
अलहदा
दुःख
यह नया
कर
दिया गया हो आत्मा का कोई सांस लेता हुआ
हिस्सा
जैसे धड़ से अलग
2.
कुछ
दुःख इस घर ने नहीं कमाए थे
ले
आयी थी कंधों पर बाकी सामान के साथ ढोकर इन्हें
पुराने
घर से
नए
किरायेदारों के बीच इन दुखों को रखना
नहीं
लगा सही मुझे
आज
काफी ध्यान लगा कर
देखा
बारी.बारी से
अपने
सभी नए.पुराने दुखों को
कुछ
दुःख घनी पीड़ा दे कर
कर
चुके थे खुद को खाली
वक़्त
था अब उन्हें बुहार देने का
पायदान
के उस पार सरका उन सबको
दरवाज़े
की कुंडी लगाते ही
आया
ख्याल यह
मुझसे
पहले रहती थी जो लड़की यहाँ
गज़ाला
नाम की
क्या
वह जाते.जाते ले गयी थी अपने सभी दुःखघ्
या
बेकार के सामान के साथ उन्हें यहीं
इस
घर के कोने में रख गयी थी
कहीं
मैं उसके छोड़े हुए दुखों के
को
तो नहीं ढोती रहती
दिन
रात
मान
कर उन्हें अपना ही दुःख
3.
वह अकेला नहीं आया था
मेरे
करीब
उसके
साथ कई दुःख भी थे
शुरू
में मुझे लगे थे जो
एकदम
अजनबी
सदियों
का परिचित जैसे
मिला
हो अजनबी दुखों का लिहाफ ओढ़
अब
नहीं
अब
तो उसके वे सभी दुःख
मेरे
साथ घुलमिल गए हैं कुछ ऐसे
जैसे
कमाया हो उन्हें
मैंने
ही
अपनी
आज तक की उम्र में
प्रेम
कई नए अनुभवों से जोड़ता है
और
नई प्रजाति के दुखों से भी
***
सम्पर्क: विपिन
चौधरी, हरियाणा,
ई-मेल- vipin.choudhary7@gmail.com
पेन्टिंग: सन्दली वर्मा.
बेहद सुंदर व संवेदना से भरी कविताएँ .....बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कविताएं।
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