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कथाकार पंकज सुबीर के उपन्यास ‘जिन्हें जुर्म-ए-इश्क़ पे नाज़ था’ की समीक्षा कथाकार पंकज मित्र द्वारा

पंकज सुबीर

 

             पंकज मित्र

            





               जिन्हें नाज़ है अपने मज़हब पे उर्फ धर्म का मर्म

 

धर्म या साम्प्रदायिकता पर लिखा गया है उपन्यास कहते ही बहुत सारी बातें, बहुत सारे चित्र ज़हन में आते हैं मसलन ज़रूर इसमें अल्पसंख्यक - बहुसंख्यक वाला मामला होगा या नायक नायिका अलग - अलग मज़हब के मानने वाले होंगे जिनके परिवारों में भयानक दुश्मनी होगी, दंगों के हृदयविदारक दृश्य होंगे, सर्वधर्म समभाव के फार्मूले के तहत दोनों ओर कुछ समझने - समझाने वाले लोग होंगे या दौरे-हाज़िर से मुतास्सिर लेखक हुआ तो हल्का सा भगवा रंग भी घोल सकता है - क्या थे हम और क्या हो गए टाइप थोड़ी बात कर सकता है, गरज यह कि आमतौर पर इसी ढर्रे पर लिखे उपन्यासों से हमारा साबका पड़ता है.

लेकिन पंकज सुबीर का उपन्यास "जिन्हें जुर्म ए इश्क पे नाज़ था" ऐसे किसी प्रचलित ढर्रे पर चलने से पूरी तरह इंकार करता है और तब हमें एहसास होता है कि किस हद तक खतरा मोल लिया है लेखक ने। धर्मों के उदय और धार्मिक संघर्षों के इतिहास के विमर्श को शुरुआत में ही जिस तरह खड़ा करता है लेखक, यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि यह मदारी कुछ अलग काम कर रहा है - जादू का खेल दिखाने के पहले ही ताबीज बेच देने का इरादा रखता है। यह भंगिमा बहुत खतरनाक भी साबित हो सकती है, तमाशबीन बिखर सकते हैं लेकिन लेखक यह खतरा उठाने को बज़िद मालूम होता है कि जिन्हें जुर्म ए इश्क पे नाज़ है वो तो इस खेल का पूरा लुत्फ उठा कर ही रहेंगे। रामेश्वर और शाहनवाज के ज़रिए हज़ारों सालों के मानव इतिहास में धर्मों की भूमिका, धर्म के नाम पर करोड़ों लोगों का कत्ल ए आम और एक तरह से पूरी क्रोनोलॉजी लेखक रखता है, वह शायद एक धार्मिक इतिहास की किताब की सामग्री है, पर लेखक की कीमियागरी इस सामग्री को रचनात्मक ऊँचाई देने और एक उपन्यास में बदल डालने में है।

एक बहुत ही जटिल विमर्श को आसान तरीके से पाठक के सामने पेश करने और धर्म के मर्म को उद्घाटित करने में लेखक की कामयाबी चौंका देती है। कहानी और चरित्र भी हैं और कुछ उज्जवल चरित्र भी हैं, तेजी से घटने वाली घटनाएँ भी हैं जो पाठक को बाँधे रखती हैं पर मन पर जो बार बार दस्तक देता है वह है धर्म और मनुष्य का आपसी संबंध। धर्म के गलत इंटरप्रिटेशन की वजह से कैसे मानवता शर्मसार होती रही है और मानवीय त्रासदी घटित होती रही है इसकी विशद चर्चा है इस उपन्यास में। डिस्कोर्स की प्रविधि का प्रयोग करते हुए भी रोचकता बनाये रखना लेखक के लिए चुनौती है और लेखक इस चुनौती को सफलता पूर्वक स्वीकार करता है।

फोन के क्रॉस कनेक्शन के जरिए इतिहास के चरित्रों से बात और तत्कालीन परिस्थितियों पर चर्चा एक रोचक तरीका है और इनोवेटिव भी। पंकज सुबीर अपनी कहानियों की तरह ही पठनीयता इस उपन्यास में भी बनाये रखने में सफल रहे हैं और यह इस गुरुगंभीर विषय वस्तु के लिए आसान नहीं था। पर  उपन्यास  की विस्तृत पड़ताल करते हुए उन लोगों के गुणसूत्रों की झलक मिलती है जिन्हें जुर्म ए इश्क पे नाज़ था और जिन गुनाहगारों की नस्ल अभी भी खत्म नहीं हुई है और यही हमें धर्म के मर्म तक पहुँचाते हैं और पहुँचाते रहेंगे। ऐसे गुनाहगारों की नस्ल बढ़ती रहे यही शायद उपन्यासकार की दुआ है और हम पढ़ने वालों की दुआ भी इसमें शामिल है।

                                                          - पंकज मित्र 

                               ***          

पंकज सुबीर: पंकज सुबीर,पी.सी.लैब, शॉप न. 3-4-5-6, सम्राट कॉम्प्लेक्स बेसमेन्ट, बसस्टैंड के सामने, सीहोर, मध्य प्रदेश-466001, मो. 09977855399, ई-मेल- subeerin@gmail.com

पंकज मित्र: पंकज मित्र, आकाशवाणी, राँची, झारखण्ड, मो. 9470956032.

पेन्टिंग: सन्दली वर्मा.  

 

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