किरण कुमारी ‘किरन’ |
आज फिर ख़्वाब के आँगन में...
आज फिर ख़्वाब के आँगन में
उतर आया है दिल
जब के मालूम है के
दूर तलक कोई नहीं
फिर से
माज़ी की वो यादें हैं
यूँ देतीं दस्तक
जैसे लगता है के
फिर कोई यहाँ आएगा
फिर से लगता है के
आहट है कोई आने की
ऐसा लगता है के
एहसास ने पहना है लिबास
फिर से
हसरत ने करवटें ली हैं
फिर से जागा है
हसीं कोई धुँधलका एहसास
जब के ये वहम है
खोई सी इन आँखों का वहम
महज़ माज़ी की
हसीं याद उभर आई है
जब हक़ीक़त है ये
के दूर तलक कोई नहीं
और ये तय है के
अब कोई नहीं आएगा
***
फ़ासले
फ़ासलों का है
मेरे लिए कुछ सबब
फ़ासलों से ही कितने हैं रिश्ते बने
जो क़रीब आ गए
वो ही दूर हो गए
दिल में रहते हैं कितने ही शिकवे गिले
ज़र्ब अपनों ने दिल पे
इतने दिए
सारे रिश्ते ही
लगते हैं अब मसनुई
अब तो मिलते हैं यूँ
ऐसा लगता है के
जैसे रस्में निभाने को हम हैं मिले
अब
ख़ुलूसो-मुहब्बत कहाँ खो गए
अब
वो रिश्तों की गर्मी कहाँ चल पड़ी
इश्क़ो-जज़्बात का इस नए दौर में
अब तो
कोई भी मतलब नहीं रह गया
और
रिश्तों का भी दायरा तंग है
आदमी
ख़ुद में कितना सिमट है गया
ऐ ‘किरन’ यूँ न
जज़्बों की रौ में बहो
इन अँधेरों से
क्या अब तवक्को करो
***
आवाज़ की परछाईँ
ख़ामोश हवाएँ हैं,
ख़ामोश फ़ज़ाएँ हैं
अब दूर तलक कोई
शिकवा है,न आहें हैं
गुज़रे हुए लम्हों से
अब कैसा गिला होगा
जो लम्हा न आएगा
क्या उसका सिला होगा
यूँ वक़्त के कुहरे में
खो बैठी मेरी मंज़िल
घनघोर धुँधलके में
राहें भी नहीं दिखती
क़दमों के निशाँ भी गुम
और सारी सदा भी गुम
अपने थे मेरे अपने
अब उनका पता भी गुम
कुछ ऐसे भी हैं अपने
बन बैठे जो बेगाने
जो ज़ख़्म हैं दे जाते
कुछ जाने और अनजाने
जब अपने हों बेगाने
बेगानों को क्या कहिए
सर फोड़िये पत्थर पे या
अश्क रवाँ करिए
हम भूल गए क्या थे
हम भूल गए क्या है
पर दूर तलक कैसी
ख़ुशबू ये ख़ामोशी की
उम्मीद जगाती है
कुछ आस बँधाती है
पर मेरा वहम है ये
कुछ हो नहीं पाएगा
ख़ामोशी, ये सन्नाटा
आवाज़ की परछाईं
कुछ टूटे हुए अरमाँ
कुछ घुटती हुई आहें
और दूर तलक फैली
आवाज़ की परछाईं
***
पेन्टिंग: सन्दली वर्मा
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