बसंत त्रिपाठी |
खेत
कई रातों से
बेहद परेशान हैं
बाबू सेवकराम
उठ उठकर पानी पीते
हैं
बार बार पेशाब करते
पसीने से तर-ब-तर
पत्नी को
देखते और सो जाते
वे सोये कि एक बूढ़ा
सपने में आ धमकता
अजीब बूढ़ा, खड़ूस
बूढ़ा
मटमैला-सा
चेहरा उसका ऊबड़-खाबड़
कहता फिरता वह बूढ़ा
मैं हूँ तेरा खेत
जिसे दादा तेरा आया
छोड़,
सपने लिए आया था शहर
में
पर बन गया दिहाड़ी
मज़दूर
बाप तेरा
कपड़े की दुकान का
ऑलराउंडर
और तू चपरासी
दो नम्बर की कमाई तक
नहीं तेरी
क्या बदला तुम तीनों
ने
यह टीन की छप्पर
वाला घर, यह...
खड़ाक्
खटके से उठते हैं
बाबू सेवकराम
उठते हैं पानी पीते
हैं
लाइट जला पेशाब करते
कुछ देर उनींदे रह
फिर सो जाते
....हाँ, तो यह टीन
की छत वाला घर
सीमेंट की बदरंग
भीगी दीवार
बीमार पँखे
समय से पहले बूढ़ी
लगती तेरी बीवी
टाट पट्टी के स्कूल
में पढ़ते तेरे बच्चे
क्या बदला तेरा ?
सुनते रहे सेवकराम
गाँव-देस से आया है
अजीब बूढ़ा, खड़ूस
बूढ़ा
है तो आखिर पूर्वजों
के
दुख सुख का साथी
क्या कहें उसे अब
कहा सुना सब माफ
पर ताली पीट हँसने
लगा
जब वह बूढ़ा खेत
मारे गुस्से के
सेवकराम
उछलकर पकड़ लिए टेटवा
बोले – गाँव से भाग
आए बुढ़उ
और ताव दे रहे !
तुम कौन अमरीका
रिटर्न हो
तुम्हारी मेंड़ पर
रिश्ते का भाई
कीटनाशक पी लिया
बरसों से पड़े हो यूँ
ही
महाजन की तिजोरी में
रेहन पर हो
बड़ी कंपनियों की नजर
तुम पर
और यहाँ सपने में
आकर
ताव दे रहे !
सुनो बुढ़उ
तुम भी दुखी, मैं भी
दुखी
ताली पीटकर ऐसे
हँसना
क्या तुमको शोभा
देता है !
आए हो अब सपने में
तो बैठो
खाना खाओ, पानी पीयो
और बातें करो कुछ
अच्छी
बैठा बूढ़ा
खाना खाया, पानी
पीया
फिर चिड़ियों का शोर
सुनकर
सपने में गायब हो
गया.
***
जेल में एक औरत से
मुलाकात
वह अपनी आँखों में
समुद्र भरकर आती है
और हँसते हुए
बूँद भर रोती है
सलाखें देखती हैं
ठण्डी सिसकियों की
गर्माहट
और पिघलकर थोड़ा फैल
जाती हैं
वर्दियों की गर्म
आँखें
पुतलियाँ फेरती हैं
और अपनी घड़ी से समय
मिलाती हैं
सलाखों की तरह तैनात
वर्दियों के लिए
यह क्षण कोई विशेष
नहीं
यह क्षण
जबकि पृथ्वी अपनी
राह भूल
खड़ी रहती है मौन
नक्षत्र, ग्रह, तारे
अपनी संवेदना भेजते
हैं
और सूर्य पल भर के
लिए मद्धिम हो जाता है
एक ठण्डी आवाज़
सारे माहौल को
गर्माती है –
‘समय हो चुका अब’.
***
हवा में तैरकर
हवा में तैरकर
खूशबू आई है
खिड़कियों के रास्ते
पलंग से खेल रही है
मेरे
दीवाओं से चिपककर
संगीत घोल रही है
जैसे किसी ने खूशबू
के तार को
हल्के से छेड़ दिया
हो
खेल रहे हैं बच्चे
खूशबू से
बतिया रहे हैं बूढ़े
रास में लीन हैं
जवान
स्त्रियाँ पका रही
हैं भोजन
खूशबू के साथ
व्यस्त हैं सभी
मेरे घर में
खूशबू के साथ
जनाब !
मैं इस पृथ्वी में
किसी भी जगह नहीं हूँ
इस वक्त
***
वह बच्ची
वह बच्ची
प्यारी बच्ची
सूखी-सूखी आँखें
उसकी
सूखे-सूखे बाल,
मजदूर माँ का असबाब
जैसे कंधे पर टँगा
हुआ
झोला हो कोई
पिता फूँक रहा है
बीड़ी
माँ सहेजी पूरी
गिरस्ती
एक बोरा भरा हुआ
एक टीन का बक्सा
तीन छोटे बच्चों में
सबसे बड़ी वह बच्ची
प्यारी बच्ची
सूखी-सूखी आँखें
जिसकी
सूखे-सूखे बाल
भरी रेल का दूसरा
दर्जा
गाड़ी जाएगी दिल्ली
गाड़ी में सीटों के
नीचे
अपनी जगह खोजती माता
बच्ची की मजदूर माता
पड़ा इस बार फिर अकाल
पड़ी फिर उसकी भयंकर
मार
मटमैला-सा घूँघट
काढ़े
गँदली-सी साड़ी को
पहने
अपनी छोटी गिरस्ती
उठाए
अन्न के सपने में
खोई
चली जा रही उनींदी
दिल्ली
दिल्ली उसको क्या
देगी !
दिल्ली उसका क्या कर
देगी !!
***
रंग
कीट पतंगों से लेकर
आदमखोर शेरों तक
समुद्री शैवाल से
देवदार तक
सभी के पास अपनी
पहचान का रंग होता है
आसमान में सुर्ख लाल
बरास्ते नारंगी जब
बुझता चला जाता है
उतर आता है अँधेरा
अँधेरा भी रंगहीन
नहीं होता
विज्ञान यद्यपि उसे
कहता है रंगों की अनुपस्थिति
कितना मज़ेदार है यह
कि रंगों की
अनुपस्थिति का भी एक रंग है
जो जन्मांध होते हैं
उनकी कल्पना में
जाने कैसे चढ़ता होगा रंग
वस्तुओं की पहचान का
संसार
जाने कैसा होता होगा
उनके भीतर
लेकिन कल्पनाएँ ज़रूर
होती होंगी रंग की
चाहे दिखती दुनिया
में आप न कहें उसे रंग
रंग चीज़ों का ही
नहीं
भावों का भी होता है
जैसे बुराई का एक
रंग होता है
डर का भी
शांति, क्रोध, करुणा
और प्रेम कहते ही
निश्चित रंग कौंधते
हैं भीतर
और मृतक इसलिए मृतक
हैं
क्योंकि उनके चेहरे
का रंग
बुझता चला जाता है
फिर फरिश्ते कौने-से
रंग के होते हैं ?
क्या ईश्वर कहने से
कोई रंग कौंधता है
भीतर ?
हाँ, केवल एक सुनहरा
भय
जो हमारी इच्छाओं
अनिच्छाओं से परे
लगातार आतंकित करता
रहता है हमें.
***
सम्पर्क: बसंत त्रिपाठी, एसोशिएट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग,
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद, मो 9850313062,
ई-मेल basantgtripathi@gmail.com
पेन्टिंग: सन्दली वर्मा
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