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विक्रांत की कविताएँ

 

विक्रांत की कविताएँ 

विक्रांत

1

गहरा

घुप्प गहरा कुआं

जिसके ठीक नीचे बहती है

एक धंसती-उखड़ती नदी

जिसपे जमी हुई है

त्रिभुजाकार

नीली जलकुंभियाँ

उसके पठारनुमा

सफ़ेद गोलपत्तों के

ठीक नीचे

पड़ी हैं, सैंकड़ों पुरातनपंथी

मानव-अस्थियाँ

मृत्तक कबीलों का इतिहास

जिसमें कोई लगाना नहीं चाहता

डुबकी

छू आता हूँ, उसका पृष्ठ

जहाँ तैरती रहती है

निषिद्धपरछाइयाँ

प्रतिबिम्ब

चित्र

चरित्र

आवाज़ें

मानवीय अभिशाप

ईश्वरीय दंड

जिसके स्पर्शमात्र से

स्वप्नदोषग्रस्त

आहत

विक्षिप्त

खंडित

घृणित

अपने आपसे ही

कहा नहीं जा सकता

सुना नहीं जा सकता

भूलाता हूँ, सब

बिनस्वीकारे

सोचता हूँ

रैदास सा

कि गंगा साथ देगी

चुटकी बजा

बदलता हूँ, दृष्टांत।

    ***

2

मेरे दोनों हाथ

अब घोंघा-कछुआ हैं

पर मेरा मन

अब भी सांप

हृदय

अब भी ऑक्टोपस

आँखें

अब भी गिद्ध।

मेरुदंड में तरलता लिए

मुँह सील करवा

किसी मौनी जैन की तरह

मैं लेटा हुआ हूँ

लंबी-लंबी

नुकीली, रेतीली

घास के बीच

एक चबूतरे पे

पांव के पास रख

भावों से तितर-बितर

एक गोल्डफिश का जार

उसकी पवनरहितता से जख़्मी

पौराणिक मंत्र

बुदबुदाते हुए

अम्लीयता से धंसते हुए

खुद को तपाते हुए

देख रहा हूँ, रोज

सूरज का उदय

सूरज का विलय

मेरे हिस्से की

आग की

प्रफुल्लता का

कबका हो चुका है

देहावसान।

***

3

प्रकाश, परछाई,

प्रार्थना, स्थापना,

आग-पानी

जीवन-निर्जन

आदमी के लिए अहम क्या है?

आदमकद ईश्वर!

द्वैत-अद्वैत में

गिरता उठता

मैं एक प्लेटोनिक प्रेमी

सरफिरा नही,

बेवजह हूँ।

स्याह में सफेद

सफेद में स्याह देखता हूँ।

स्वयं में

हीन

ऋण

दीन-सा

आदमीयत में

बिन

लीन

अधीन-सा

असल में

घिन

तृण

झीन-सा

विलय हो रहा हूँ।

  ***

4

दिन का ढ़लना

रात का गुजरना

देहगंध

स्मृतियां

सम्मुख

विमुख

विरह

पीड़ा

आग-पानी

ज़हर

जिरह (कारण)

घुटने के बल बैठा

जोड़ रखे हैं, हाथ

 

प्रेम की सारी

उत्पीड़ित

आत्माएं

उभरती हैं

एक-एककर

फुसफुसाती है

पैदा करती है

बार-बार

पश्चाताप

अपराधबोध

रिझा, उलझा-सा

बेआराम

ढूंढता हूँ

चाय

कॉफ़ी

कोना

कंबल

 

फिर चुपके से

दुबके-दुबके

पूछता हूँ

चाहती क्या हो?

चुड़ैलें हंसती है

इशारा करती

आपुस की ओर

कि वो बुलाता है

तुम्हें

उसका मर्म

तुम-सा है

वही है व्याख्यान

उसे भी चाहिए "काप्पा" (पानी)

 

सो ले जाना होगा

अंगुलभर

पहाड़ों में

गुजरना होगा

काफी संभल के

गुजारनी होगी

काफी रातें

तभी वो लाएगा सर्दियां

मेरे लिये

इस बार

तुम्हें पता है कि

सर्दियां कारक हैं, बदलाव की।

      ***

5

दृष्टि भ्रम

ध्वनि भ्रम

छवि भ्रम

दूसरे आयाम से निकल

जब कभी स्थायी रूप लेती हैं

दफ़नायी हुई मलबे में से

मैं उन्हेंअपनी ऊँगलियों से

जाने को कहता हूं

मुझे पुरानी बातों से चिढ़ होती है

कोफ़्त

जबकि अकेले में

शांत बैठ, कल्पना के केंद्र से

सापेक्ष से जोड़ते हुए

यात्रात्मक होना

सम्मोहक है

(भ्रमात्मक भी)

जो नई छवियों को

कई प्रेतों को जन्म देती है

जिनसे मैं उदार रूप से

बारीक़ पतली रेखाओं के ऊपर

मानसिक संभोग करता हुआ

कितनी जगह

कितनी ही निषिद्धताएँ पार करता हूँ

और चरमोत्कर्ष पर

निष्कर्ष जान

नतीजे नही बदल पाना

या ख़ारिज

या अदृश्य

आदमबोध करवाता है।

या पौरुषत्व!

फिर मैं उत्पत्ति की ओर

झुककर देखता हूँ

और वो मुझे

अवगत कराते हुए

आयाम-दर-आयाम

स्थितियों की ओर ढकेल देती है

और मैं एक चादर लपेटे

कभी भयावह,

कभी दूषित,

कभी संतुष्ट,

कभी आनंदित

वस्तुस्थिति में लौटता हूँ।

      ***

6

उसकी बालियाँ

पहेलियाँ हैं;

और उसके बालों का जूड़ा,

रहस्यों का पिटारा!

उसकी बातों में गहराई है,

जो एकाकी में उपजी है।

मेरा अनुमान है कि

"मृत्यु का वरण"

उसने काफी पहले ही किया था,

जब वो स्त्रीदेह में आई थी।

उसकी हंसी में जो बिखराव है,

वो इशारा करती हैं;

बीती हुई त्रासदियां!

पर अब भी ख़ुद को समेटे हुए

बुझे हुए चेहरे के साथ

नंगे पांव

कोई मंशालिए!

अनुवांशिक रूप से

सभ्यताओं में छले जाने के बावजूद;

आधिपत्य से

वो टेबल पे मेरे सामने बैठी हुई;

उम्मीद करती है, एक अदद आदमी।

या, कोई पिकासो!

वैसे मैं वो आदमी नहीं हूँ।

जो दूब-सा,

कोमल और मुलायम है;

जिसपे ओस की बूंदें गिरी हैं।

मैं तो बलुआही बबूल-सा,

छिछला, सूखा हुआ कांटा हूँ।

जिसने कितनी बार ही

नदी को सूखते-उफनते देखा है;

जो बस इतना कह सकता है

कि तुम थोड़ी देर के लिए ही सही;

ख़ुद को ढीला छोड़,

मानसिक अपंगता को भूल जाओ।

तुम दशाओं द्वारा नक्काशित

एक अनूठी रचना हो;

पिकासो की प्रेयसियों की कृति से भी अनूठी।

          ***

सम्पर्क: विक्रांत, मो. 9905068028, ई-मेल-vikrant.chhauhan@gmail.com

पेन्टिंग: सन्दली वर्मा  

सन्दली वर्मा  

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