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अरुण कमल की कविताएँ

 

अरुण कमल की कविताएँ

अरुण कमल ( चित्र: साभार, कृष्ण समिद्ध )

 

पड़ता रहे नाँद में सानी फिर कैसा ग़म कैसी बंदी

बिजली बत्ती गैस सिलिन्डर और टेंट में  नगदी

दिन दुपहर हो शाम रात हो खाना सोना यही काम हो

घर में सारे सुख के साधन बाहर चाहे पड़ा

लाम हो

जिसको मरना है वो मरेगा भाग्य में जिसके जैसा

कोई खटमल वाइरस कोई    कोई बनेगा

भैंसा

हर सुखाड़ में बाढ़ आग में हर आफ़त में मौजाँ

बंदी हो नकबंदी हो नटबंदी हो या मंदी

मौजाँ भौजी मौजाँ नन्दी—

***

लिख लिख कर क्यों काट रहे हो

खोद ताल क्यों        पाट रहे  हो

बंद नगर घर            बंद   हवाएँ

क्यों खिड़की से झाँक रहे      हो

ऊपर बादल          नीचे     पानी

क्यों मुखड़े को  ढाँक        रहे हो

 

बाहर निकलो        पिट  जाओगे

खोलो मुँह तो        कट   जाओगे

सबसे दूरी              बना के रखो

मुँह को हरदम         बाँध के रखो

कोई दुश्मन            ढ़ूँढ़ निकालो

कोई भेंड़ी           मूँड़     निकालो

मानो मेरी                 तर जाओगे

जेबी झोली             और तिजोरी

माल मता            से  भर जाओगे

मुझसे सीखो          सीखो मुझसे

हाथी घोड़ा              खर पाओगे

धो लो बहती    गंगा     में     हाथ

पगहा  पीछे             आगे   नाथ

            ***

जूते साफ करते हुए

 

जूते हैं  पर पैर नहीं हैं

सुब्ह शाम की सैर नहीं है

बाहर झाँका तो खैर नहीं है

जलती बस्ती कत्ले आम

बचा कहीं अब दैर नहीं है

गया जमाना जब कहते थे

सब अपने कोई ग़ैर नहीं है

यहाँ भूख है वहाँ भूख है

किधर जाएँ कोई ठौर नहीं है

जिनसे की उम्मीद कभी

कहते, जा,एक कौर नहीं है

झुलसे बाग बगीचे उपवन

कहीं आम में बौर नहीं हैं

 

बोल बसंता कुछ तो बोल

कह दे मेर’  को डैर नईं है

          ***

ऐसी ही है नदी लोक की

ऐसा ही है तंत्र

ज्ञानी बैठे नदी किनारे

ओझा फूँके मंत्र

 

नेता मंत्री कठपुतली हैं

कहीं और है डोर

भूसी खल्ली हरीयरी है

मौज मनाएँ ढोर

 

हम तो कहते आँखिन देखी

पर अँखियाँ हैं झूठ

किसकी किससे कैसे पूछें

लूट लूट में रूठ

 

ध्रुव तुम भेजो हम भी भेजें

पत्ता लदा जहाज़

चना चबेना मिल जाये फिर

चूल्हा जाय राज

 

-अरुण कमल हैं पटनावाले

जिनके मुँह में छाले

खॾी दीवारें चार तरफ अब

कोई छानी छा ले

    ***

 

मुँह में बत्तीस दाँत धरे

हम पूछें कैसे काटें

जीभ अकेली बोले लप लप

हम क्यों तलवे चाटें

 

इत्ती बड़ी नदी में यारों

एक बूँद बस पानी

किधर नहाएँ कैसे पीएँ

गागर भरती रानी

 

पूर्वज थे उत्तर जन होंगे

पर हम मध्य विराजे

पीछे ताकें आगे घूरें

छानी लौकी हम ताजे

 

कहाँ छुपोगे हमसे बचके

हम हैं अन्तर्यामी

हिम्मत है तो दाँव बदो हे

हंत कुटिल खल कामी

 

अरुण कमल पटनहिया बोले

कपड़े सारे खोले

ध्रुव तुम भी लंगोट उतारो

पानी पूरी छोले

    ***

वो बाजार ठठेरों का था दिन भर ठक ठक होती थी

फूटे बरतन रासे जाते फिर कलई भी होती थी

पीतल वाले बाजे भी चमचम चमकाये जाते थे

गाड़े फेंके दबे पुराने पिचके थोथे सब की धातु के मुखड़े बाहर आते थे,

यही एक बाजार था हमको  भाता था

कामकाज था,नहीं कभी झंझट टंटा था

मुद्राएँ भंगिमा इशारों से सब शासन चलता था,

टूट फूट के मॉल और बाजार उधर थे

यहाँ मरम्मत जोड़ धुलाई या चमकाई जारी थी  उड़ते छिंटते स्फुल्लिंग थे जो अच्छे थे,

मैं भी सोचूँ बनूँ ठठेरा यहीं कहीं खोजूँ उस्ताद

तन पर धातु धूर पोत टूटा फूटा करूँ आबाद।

               ***

नहीं रहूँगा फिर भी यह संसार रहेगा

जान नहीं होगी मेरी  पर जहाँ रहेगा

कोंपल आते लाल, हरे हो पड़ते पीले

सूखी नाड़ी वाले पत्ते झरते  ढीले

पर जीवन का वृक्ष अश्वत्थ शांत धीर

सूखे खोलों से     पुन: खोलता खीलें

शायद पहले भी झड़ीं सभ्यताएँ ऐसे ही

और बाद आबाद हुए     मुर्दों के टीले

 

एक दीमक कीट करता महावन को क्षार

क्षुद्र घुन ही भस्म करता  अन्न के कोठार

पर कहीं से फिर उगेगा एक निर्बल  बीज

जो नहीं हैं उन सभी के प्राण की ताबीज

                ***

सम्पर्क: अरुण कमल, 4, शान्ति मैत्री भवन, बी.एम.दास रोड, पटना-800004. ई-मेल- arunkamal1954@gmail.com

पेन्टिंग: सन्दली वर्मा

 

सन्दली वर्मा

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