सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

राजेश जोशी की कविताएँ

 

राजेश जोशी की कविताएँ

 

इस घर  में

जीवन नाम का यह घर कितनी आशंकाओं और

दुर्घटनाओं से भरा है

फिर भी इसमें ही इतने बरसों से रहा आता हूँ

 

आकस्मिकताओं की ओर खुलनेवाली

दर्जन भर खिड़कियों को

कई कई बार चिटकनी लगाकर अच्छे से बंद करता हूँ

तेज हवा कभी भी पल्लों को भड़भड़ाती है

हवा के दबाव में कोई न कोई पल्ला खुल ही जाता है

पल्ला नहीं खुलता तो पल्लों में लगा

कोई शीशा चटक जाता है अचानक

अनिश्चितताओं की ओर खुले दरवाजों से

समय असमय चला आता है कोई भी भीतर

परिचित अपरिचित कोई भी

 

दीवारें धीरे धीरे भुरभुरी होती जाती है

पलस्तर झरता है

एक पूर्वज कवि की कविता के मनु का चेहरा

दीवार पर उभरता है

हमारे समय की सबसे भयावह घटनाओं की एक फिल्म

तेजी से दौड़त़ी है उसकी खोपड़ी को स्क्रीन बनाती हुई

भय पाँव पकड़ कर बैठ जाता है

 

पर जहाँ जिस जगह बहुत दिन रह लो

उसमें रहने की ऐसी लत बन जाती है

कि कहीं छोडकर जा़ने का न मन करता है

न हिम्मत होती है

फिर मेरा तो जन्म ही इसी घर में हुआ

माना यह घर जर्जर हो रहा है, कभी भी गिर सकता है

पर इतने बरसों से रहते रहते ऐसा कुछ हो गया है

कि इसको छोड़ कर कहीं और जाने का

मन ही नहीं करता ।

      ***

 

 

बौर आ गया है


आम पर बौर आ गया है

मादक गंध के आस पास बहुत बारीक फतिंगे उड़ रहे हैं

और एक एक कर दिन भर पेड़ से पत्ता झर रहा है

पूर्वज कवि कह गया है

किताबी होगा कवि,जो कहेगा

कि पत्ता झर रहा है

कहो कि पेड़ कुछ कर रहा है

 

कभी पूरा पतझर नहीं होता

आम पर

इसी तरह पत्ता पत्ता झरता है

इस तरह पेड़ दिनभर कुछ न कुछ करता है

नये पत्ते जगह ले लेते हैं

पुराने पत्तों की

 

चिन्ता ही नहीं करनी पड़ती

पेड़ को

कपड़े लत्तों की !

          ***


पुनश्च

 

यह कविता पिछली कविता का पुनश्च है !

और पिछली कविता

उससे पहले की किसी कविता का

 

किसी अदृश्य हो गयी नदी की स्मृति

बनी रहती है दूसरी नदियों के बीच

उसकी अदृश्य उपस्थिति

उसकी स्मृति का पुनश्च है

 

लुप्त हो गयीं न जाने कितनी भाषाएँ

उनमें रचा गया जीवन का रागरंग

किसी न किसी भाषा में से झाँकता

दिख जाता है एक दिन अचानक

और कोई न कोई उसे पहचान लेता है

इतना निरंतर है सबकुछ

कि गर्भाशय में बच्चा एक बार फिर

गुजरता है उन तमाम

अवस्थाओं से

जिनको पार करके आया

वह यहाँ तक

 

किसी कवि की कविता सुनते या गुनते

अचानक आती है याद उसी की कोई और कविता

और उस कविता में भी धीमें धीमें सुनाई पड़ता है

किसी और पुरानी कविता का अनुरणन

 

जो कहा जा चुका पहले भी कई कई बार

पर बचा रहा जो अनकहा कुछ फिर भी

उसी को जोड़ घटाकर एक बार फिर कोई कवि कहता है

 

दुनिया की सारी कविताएँ पहले रची जा चुकी

किसी न किसी कविता का पुनश्च हैं

सारी कविताएँ मिलकर बन जाती हैं

एक महावाक्य !

लिखना पड़ता है ,लिखते ही रहना पड़ता है बार बार

वह जो पिछली बार छूट गया

या कहा गया कुछ अलग तरह से

जिसको कह देने के बाद भी नहीं हुई पूरी तसल्ली अबतक

 

हर कविता का हो सकता है एक ही शीर्षक

-पुनश्च

 

सुविधा के लिये चाहें तो एक दो तीन......

कोई भी क्रम डाल सकता हूँ.......!

             ***

सम्पर्क: राजेश जोशी .11 निराला नगर, भदभदारोड, भोपाल 462003, मोबाइल: 09424579277

पेन्टिंग: सन्दली वर्मा

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

दिवाकर कुमार दिवाकर की कविताएँ

  दिवाकर कुमार दिवाकर सभी ज्वालामुखी फूटते नहीं हैं अपनी बड़ी वाली अंगुली से इशारा करते हुए एक बच्चे ने कहा- ( जो शायद अब गाइड बन गया था)   बाबूजी , वो पहाड़ देख रहे हैं न पहाड़ , वो पहाड़ नही है बस पहाड़ सा लगता है वो ज्वालामुखी है , ज्वालामुखी ज्वालामुखी तो समझते हैं न आप ? ज्वालामुखी , कि जिसके अंदर   बहुत गर्मी होती है एकदम मम्मी के चूल्हे की तरह   और इसके अंदर कुछ होता है लाल-लाल पिघलता हुआ कुछ पता है , ज्वालामुखी फूटता है तो क्या होता है ? राख! सब कुछ खत्म बच्चे ने फिर अंगुली से   इशारा करते हुए कहा- ' लेकिन वो वाला ज्वालामुखी नहीं फूटा उसमे अभी भी गर्माहट है और उसकी पिघलती हुई चीज़ ठंडी हो रही है , धीरे-धीरे '   अब बच्चे ने पैसे के लिए   अपना हाथ बढ़ाते हुए कहा- ' सभी नहीं फूटते हैं न कोई-कोई ज्वालामुखी ठंडा हो जाता है अंदर ही अंदर , धीरे-धीरे '   मैंने पैसे निकालने के लिए   अपनी अंगुलियाँ शर्ट की पॉकेट में डाला ' पॉकेट ' जो दिल के एकदम करीब थी मुझे एहसास हुआ कि- ...

आलम ख़ुर्शीद की ग़ज़लें

आलम ख़ुर्शीद               ग़ज़लें                 1 याद करते हो मुझे सूरज निकल जाने के बाद चाँद ने ये मुझ से पूछा रात ढल जाने के बाद मैं ज़मीं पर हूँ तो फिर क्यूँ देखता हूँ आसमाँ ये ख़्याल आया मुझे अक्सर फिसल जाने के बाद दोस्तों के साथ चलने में भी ख़तरे हैं हज़ार भूल जाता हूं हमेशा मैं संभल जाने के बाद अब ज़रा सा फ़ासला रख कर जलाता हूँ चराग़ तज्रबा   हाथ आया हाथ जल जाने के बाद एक ही मंज़िल पे जाते हैं यहाँ रस्ते तमाम भेद यह मुझ पर खुला रस्ता बदल जाने के बाद वहशते दिल को बियाबाँ से तअल्लुक   है अजीब कोई घर लौटा नहीं , घर से निकल जाने के बाद              ***               2 हम पंछी हैं जी बहलाने आया करते हैं अक्सर मेरे ख़्वाब मुझे समझाया करते हैं तुम क्यूँ उनकी याद में बैठे रोते रहते हो आने-जाने वाले , आते-जाते रहते है...

कमलेश की कहानी-- प्रेम अगिन में

  कमलेश            प्रेम अगिन में   टन-टन-टन। घंटी की आवाज से तंद्रा टूटी छोटन तिवारी की। बाप रे। शाम में मंदिर में आरती शुरू हो गई और उन्हें पता भी नहीं चला। तीन घंटे कैसे कट गये। अब तो दोनों जगह मार पड़ने की पूरी आशंका। गुरुजी पहले तो घर पर बतायेंगे कि छोटन तिवारी दोपहर के बाद मंदिर आये ही नहीं। मतलब घर पहुंचते ही बाबूजी का पहला सवाल- दोपहर के बाद मंदिर से कहां गायब हो गया ? इसके बाद जो भी हाथ में मिलेगा उससे जमकर थुराई। फिर कल जब वह मंदिर पहुंचेंगे तो गुरुजी कुटम्मस करेंगे। कोई बात नहीं। मार खायेंगे तो खायेंगे लेकिन आज का आनन्द हाथ से कैसे जाने देते। एक बजे वह यहां आये थे और शाम के चार बज गये। लेकिन लग यही रहा था कि वह थोड़ी ही देर पहले तो आये थे। वह तो मानो दूसरे ही लोक में थे। पंचायत भवन की खिड़की के उस पार का दृश्य देखने के लिए तो उन्होंने कितने दिन इंतजार किया। पूरे खरमास एक-एक दिन गिना। लगन आया तो लगा जैसे उनकी ही शादी होने वाली हो। इसे ऐसे ही कैसे छोड़ देते। पंचायत भवन में ही ठहरती है गांव आने वाली कोई भी बारात और इसी...