संजय कुमार कुन्दन |
आज इस डायरी में एक आम आदमी की ज़िन्दगी की सबसे
बड़ी ज़रूरत क़र्ज़ पर कुछ लिखने की तबीयत हो रही है. ज़ाहिर है क़र्ज़ देने पर नहीं,
क़र्ज़ लेने पर. वैसे यह क़र्ज़ लेना ख़ास लोगों की ज़िन्दगी का भी एक अहम हिस्सा है.
लेकिन उनके क़र्ज़ की लम्बाई चौड़ाई कुछ इतनी ही अधिक होती है कि क़र्ज़ भी उनके स्टेटस
को कुछ और ही ऊँचा कर देता है. उनका क़र्ज़ एक आम आदमी के सौ- दो सौ, हज़ार- दो हज़ार
के टुच्चे क़र्ज़ की तरह नहीं होता. उनके क़र्ज़ में इतने अंक होते हैं कि एक आम आदमी
का गणित गड़बड़ा जाए जिसका हिसाब किताब बस राशनवाले, सब्ज़ीवाले की खुदरा ख़रीदारी पर
टिका होता है- किलो-दो किलो, ढाई सौ ग्राम पाँच सौ ग्राम की ख़रीदारी. फिर एक आम
आदमी का टुच्चा सा क़र्ज़ जीवन भर उसका पीछा ही नहीं करता रहता है बल्कि उसके
रोज़-ब-रोज़ के ख़र्चे पर भी ज़बर्दस्त असर डालता है, यहाँ तक कि उसकी मौत के बाद भी
उसकी यादों का पीछा करता है – बैंक से क़र्ज़ ले लिया तो मरने के बाद बैंक उसकी
विधवा से भी वसूल लेगा जबकि ख़ास आदमी का बड़ा से बड़ा क़र्ज़ सरकार माफ़ कर उसे एक बार
फिर जनता की सेवा करने का मौक़ा देती है. ख़ास आदमी का क़र्ज़ उसके सर पर किसी सुनहरे
ताज की तरह दमकता है और आम आदमी का क़र्ज़ उसके गले पर किसी पैसे दो पैसे की रस्सी
की तरह कसता जाता है.
क़र्ज़ लेना भी एक तजुर्बेकारी में शामिल है. बड़े
नए नए अनुभव होते हैं इसमें. पहली बार क़र्ज़ लेनेवाला बड़ा भोला होता है. उसे जब
ज़रुरत आन पड़ती है तो बिना इसकी परवाह किए कि मिले हुए क़र्ज़ को चुकता कैसे करेगा,
वह भोलेपन और सामनेवाले पर भरोसे से क़र्ज़ माँग बैठता है. उसे दो-तीन तरह के जवाब
मिलते हैं. एक सीधा इनकार. दूसरा अपनी ही माली हालत का रोना. तीसरा जो थोड़ा
पॉजिटिव है कि क़र्ज़ की रक़म तो मिल जाती है लेकिन आधी.
एक बार का बड़ा दिलचस्प वाक़या है. घर की माली हालत
कुछ खस्ती हो गई थी. पिताजी ने अपने सहकर्मी से एक छोटी सी रक़म का क़र्ज़ माँगा. वे इनकार
न कर पाए, आधी रक़म पर राज़ी हो गए और दूसरे दिन देने का वादा किया. दूसरे दिन
पिताजी की एक पुरज़ी लेकर उनके दौलतखाने गया. पुरज़ी देखकर वे थोड़ा सकुचाए और कहा,
“बाबूजी को कह देना, फीमेल की तरफ़ से टेक्निकल डिफिकल्टी आ गई है.” मैं ख़ाली हाथ
लौट गया. सारे रास्ते अनुवाद करता रहा. पिताजी ने ख़ाली हाथ देखकर पूछा तो मैंने
कहा, “मादा की ओर से तकनीकी कठिनाई” पहले तो वे कुछ समझ नहीं पाए और जब समझे तो उस
कड़की में भी ख़ूब हँसे.
वैसे यह सन्दर्भ इसलिए ज़हन में आ गया कि शादीशुदा
लोगों के क़र्ज़ नहीं देने के बहानों में उनकी ‘बेटर हाफ़’ एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा
करती है. वे अपने सम्बन्ध पर भी खरोंच नहीं आने देते और परदे के पीछे छिपी हुई
महिला व्यक्तित्व से आप क्या संवाद या अनुनय-विनय करेंगे. किसी न किसी तरह से
मित्र/परिचित की उदारता और खलनायिका के रूप में उनकी सहधर्मिणी की कृपणता आपके
दिमाग में बैठा दी जाती है.
फिर आती है क़र्ज़ मिलने लेकिन आधा मिलने की बात.
पता नहीं यह कोई टोटका है या क़र्ज़ लेने-देनेवालों की लेन-देन की कोई परम्परा कि
क़र्ज़ आधा ही मिलता है. सो क़र्ज़ लेना है तो या तो सफ़ाई से झूठ बोलने की आदत डालिए,
दुगुनी रक़म माँगिए या एक ही काम के लिए दो व्यक्तियों से क़र्ज़ माँगिए.
एक आम आदमी क़र्ज़ लेकर रोज़ की ज़रूरतों में इतना
फँसा रह जाता है कि छोटी-छोटी आर्थिक परेशानियों के अम्बार के तले क़र्ज़ चुकाने की
बात दब जाती है. आम आदमी की खैर क्या ख़ाक इज़्ज़त होगी लेकिन इज़्ज़त, आत्म-सम्मान ऐसे
बेमायने शब्दों का एक झीना सा परदा रहता है उसके पास जिसकी धज्जियाँ उड़ जाने का
समय क़र्ज़ अदा करने के समय के साथ एकाकार होता जाता है. आम आदमी वक़्त पर क़र्ज़ नहीं
चुका पाता और ऋणदाता वाक़ई उसका दाता हो जाता है. आम आदमी ऋणदाता की बेवजह तारीफ़
करने लग जाता है –एक तरह की बेबस मक्कारी उसके अन्दर समाने लगती है. वह किसी तरह
से अपने ऋणदाता को नाराज़ नहीं कर सकता नहीं तो ऋणदाता उससे तुरंत पैसे माँग
बैठेगा. जब एक लम्बी अवधि तक क़र्ज़ नहीं चुकाने के बाद वह न केवल अपने देनदारों से
छुपने लगता है बल्कि ख़ुद अपने आप से भी. और देनदार के पास भी उसके ख़िलाफ़ एक मज़बूत
तर्क होता है कि इस आदमी के सारे काम चल रहे हैं, उसके लिए तो पैसे हैं सिर्फ़ मेरा
क़र्ज़ चुकाने के लिए नहीं. देनदार को क़र्ज़ खाए हुए आम आदमी के ज़िन्दा रहने पर भी
ग़ुस्सा आता है कि ज़िन्दा रहने के लिए पैसे हैं सिर्फ़ क़र्ज़ चुकाने के लिए नहीं. सो
लेनदार देनदार के सामने एक लगभग लाश की ही तरह आता है शायद यह सुनने कि इस लाश के
पास अपने दाह-संस्कार के लिए पैसे हैं सिर्फ़ अपना क़र्ज़ चुकाने के लिए नहीं.
याद आया कि अगर आपने किसी दोस्त या क़रीबी से पैसे
उधार ले रखे हैं और चुका नहीं पा रहे और वह भी आपको सीधे नहीं कह पा रहा तो एक
लाइलाज बीमारी में रामबाण की तरह एक मोटे परदे के पीछे उसकी अर्धांगिनी आ जाएगी.
यहाँ भी वह ‘मादा की ओर से तकनीकी कठिनाई’ का ज़िक्र करेगा और आप चारो खाने चित्त
हो जाइएगा. किसी भी प्रकार से, भले आपको चार लोगों से खुदरा क़र्ज़ लेने पड़ें, पैसे
तो आप लौटा ही देंगे.
सो एक आम आदमी की संवेदनाओं, उसकी कोमल भावनाओं
को क़र्ज़ खुरदुरा कर देता है. उसमें एक डर समा जाता है. और अगर क़र्ज़ व्यक्तिगत नहीं
सरकारी है तो कितने ही लोगों के सामने एक छत और एक लम्बी सी रस्सी के सिवाय दूसरा
कोई चारा नहीं बच पाता. क्योंकि एक आम आदमी का क़र्ज़ वेव ऑफ नहीं होता क्योंकि यह
एकाधिकार तो ख़ास लोगों के पास सुरक्षित है.
वैसे एक आम आदमी अगर शायर है तो भले वह क़र्ज़
चुका सके या नहीं, मर जाए लेकिन एक ज़िन्दा शेर तो छोड़ ही जाता है:
“क़र्ज़ की पीते थे मय और समझते थे कि हाँ
रंग
लाएगी हमारी फ़ाक़ामस्ती
एक दिन
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एक आम आदमी की डायरी-1 लिंक -http://hotahaishaboroz.blogspot.com/2020/08/blog-post_4.html एक आम आदमी की
डायरी- 2 लिंक -
http://hotahaishaboroz.blogspot.com/2020/08/2.html
सम्पर्क: संजय कुमार
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पेन्टिंग: सन्दली वर्मा
सन्दली वर्मा |
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