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एक आम आदमी की डायरी- 4- संजय कुमार कुन्दन

एक आम आदमी की डायरी- 4  

संजय कुमार कुन्दन


आज सोचा कि आम आदमी के पढ़ने-लिखने पर कुछ बातें करूँ. फिर ख़याल आया कि आम आदमी किताबें क्या पढ़ेगा, उसके पास न तो पैसा है न फ़ुर्सत. किताबें ख़रीदने में पैसा तो लगता ही है और पढ़ने के लिए चाहिए फ़ुर्सत. पास में पैसे रहें तो आलू नहीं ख़रीद ले थोड़ा ज़्यादा जैसे पाँच किलो, कुछ दिनों के लिए तो आफ़ियत हो. और थोड़ी सी भी फ़ुर्सत हो तो कुछ पढ़ने की बजाय एक बिस्तर पर, जिसकी रूई न जाने कब से धुनी न गई हो और जगह जगह गाँठ पड़ गई हो, बैठकर बल्कि थोड़ा अधलेटा होकर एक दो पल राहत की साँस न ले ले. इसलिए आम आदमी के पास पर्सनल लाइब्रेरी जैसी कोई चीज़ नहीं होती. तो वह दुनिया भर की किताबें नहीं पढ़ पाता. ख़ास लोगों के पास पर्सनल लाइब्रेरी होती है, किताबें भी बहुत, दुनिया भर की होती हैं, यह और बात है कि वह भी किताबें नहीं पढ़ता. लेकिन महँगी से महँगी किताबें ख़रीदता ज़रुर है. ख़ास आदमी के लिए पढ़ा-लिखा दिखता रहना बहुत ज़रुरी है.

वैसे यह कहना सरासर नाइंसाफ़ी होगी कि आम आदमी के पास किताबें एकदम होती ही नहीं. कुछ सस्ती क़ीमत वाली आम आदमी के संस्करण वाली धार्मिक किताबें मिल ही जाती हैं जैसे रामचरितमानस, हनुमान चालीसा, क़ुरान पाक या अपने-अपने धर्म के अनुसार सस्ती क़ीमत वाली किताबें. कमाल है कि धार्मिक किताबों के प्रकाशक बहुत सस्ती किताबें छापते हैं. महँगी छापेंगे तो धर्म घर-घर तक पहुँच नहीं पाएगा और लोगों के अन्दर सदाचार नहीं रहेगा. भाग्य और ईश्वर पर से विश्वास उठा तो वे बद्तमीज़ हो जाएँगे, बात बात पर सवाल करने लगेंगे. और ख़ास लोगों को सवालों से बड़ी चिढ़ होती है. ‘दाल-रोटी खाओ, प्रभु के गुन गाओ,’ कोई सवाल नहीं. अब दाल-रोटी ही क्यों खाएँगे, मुर्गा-पुलाव क्यों नहीं खाएँगे, पिज़्ज़ा- बर्गर क्यों नहीं खाएँगे, ऐसे सवाल उठने लगें तो परेशानी होती है. वैसे बात किताबों की हो रही थी.

आम आदमी के घर में बाल्ज़ाक, प्रेमचंद, निराला, चेखव, डिकेन्स, रवीन्द्रनाथ, शरतचन्द्र और विश्व के ऐसे महान लेखक,कवि प्रवेश नहीं कर सकते क्योंकि वह इनकी एंट्री फी चुका नहीं सकता. इसलिए आम आदमी के ही ऊपर लिखा हुआ साहित्य ख़ास आदमी पढ़ता है. आप हो सकता है थोड़ा चिढ़ भी रहे होंगे कि यह आदमी स्थिति जितनी ख़राब नहीं उससे ज़्यादा ख़राब दिखला रहा है, भड़काऊ बातें कर रहा है, कहीं विपक्ष का आदमी तो नहीं, कहीं सदियों की सत्ता के सिंहासन में किसी घुन की तरह दाख़िल होना तो नहीं चाह रहा, कहीं यह मातमी साहित्य का प्रवक्ता तो नहीं. और यह ग़रीब तो क़र्ज़ कैसे चुकाए यह सोच रहा है.

आम आदमी किताबें पढ़ता नहीं तो विद्वतापूर्ण सवाल कैसे करेगा. करेगा भी तो दो-टूक, फूहड़ क़िस्म के सवाल करेगा जिसकी कोई अहमियत नहीं. और आम आदमी सत्ता के ख़िलाफ़ हो भी नहीं सकता. आम आदमी में नेतृत्व करने का साहस नहीं होता बल्कि किसी प्रकार का साहस नहीं होता. तो वह अपना साहस किसी को नहीं दिखला सकता. बहुत हुआ तो अपना नपुंसक साहस अपनी बीवी बच्चे पर दिखला सकता है या अपने ही जैसे किसी दूसरे आम आदमी पर. एक बार का वाक़या याद आ रहा है. एक मझोली भीड़ इकट्ठा थी और एक दुर्बल शरीर का रिक्शावाला, अपने रिक्शे को खड़ा कर एक दूसरे कमज़ोर रिक्शेवाले का कॉलर पकड़े था. ग़ुस्से में उसके मुँह से झाग निकल रहा था और वह कह रहा था, “हमको पहचानता नय है रे, मार के खराबे कर देंगे.’ एक ऐसा आदमी जिसकी कोई पहचान नहीं थी, सामने वाले को अपनी आभासी पहचान का क़ायल करना चाह रहा था. तो जब स्वयं नेतृत्व का साहस न हो तो आम आदमी ख़ास आदमी के द्वारा स्थापित नेता को ही अपना नेता और अपना भगवान मानता है. वह उसके पीछे चलता है. उसके क़ीमती कपड़े, उसके ऐश्वर्य, उसकी शक्ति से स्वयं को एकाकार करता है और अपनी विपन्नता को भूल जाता है. वह किसी प्रकार का सवाल अपनी स्थिति को लेकर नहीं कर सकता. क्योंकि उसका हर एक पल का संघर्ष ही उसका स्वाभाविक जीवन है.

और फिर किताबें पढ़कर होना ही क्या है. साहित्य और दर्शन उसे छदाम भर भी काम नहीं देते. उसे फूको और देरीदा से क्या मतलब. उसे तो सीधे जीवन के संघर्ष से मतलब है और इस कलाबाज़ी में वह निपुण है. उसे हज़ारों साल थोड़े ही न जीना है. बस किसी तरह उसे आज ज़िंदा रह जाना है , कल अपनी साँसों का इंतज़ाम ख़ुद करेगा.

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एक आम आदमी की डायरी-1 लिंक -http://hotahaishaboroz.blogspot.com/2020/08/blog-post_4.html एक आम आदमी की डायरी- 2 लिंक - 

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एक आम आदमी की डायरी-3 लिंक- 

http://hotahaishaboroz.blogspot.com/2020/09/3.html?m=1


सम्पर्क: संजय कुमार कुन्दन, फ़्लैट न. 406, मानसरोवर अपार्टमेन्ट , रोड न. 12-बी, अर्पणा कॉलनी, राम जयपाल पथ, गोला रोड के सामने, बेली रोड, पटना (बिहार), मो. 8709042189, ई-मेल- sanjaykrkundan@gmail.com

 पेन्टिंग: सन्दली वर्मा     

सन्दली वर्मा     

 


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