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प्रभात मिलिंद की कहानी- विशिष्ट नागरिक आख्यान उर्फ़ चला मुरारी हीरो बनने.

 

प्रभात मिलिंद





विशिष्ट नागरिक आख्यान उर्फ़ चला मुरारी हीरो बनने

(यह एस.पासवान की कहानी है. लेकिन, दरअसल यह कहानी एस. पासवान की वज़ह से नहीं बल्कि उनलोगों की वज़ह से है जो एस. पासवान जैसे लोग नहीं हैं. इस कहानी में मेरा कुछ भी नहीं है. इसकी भाषा भी मेरी नहीं है. मैंने सिर्फ़ इस कहानी को कलमबंद किया है. बहरहाल जिसकी यह कहानी है, उसी को यह समर्पित....)

      एक मामूली-सी चूक हो गई थी सी.पी. से आज, और दफ्तर में सहकर्मियों ने इसका अच्छा खासा तमाशा बना डाला. हालाँकि उनकी इस मामूली-सी चूक से किसी का कोई लेना-देना नहीं था. लेकिन लोगों के ऐतराज़ की वज़ह का क्या कहिये, सरकारी महकमों में तो कुछ लोग सिर्फ़ ऐतराज़ करने की ही तनख्वाह पाते हैं. बहरहाल ऐसी भी कोई बात नहीं थी कि दफ्तर में अपना कोई काम निबटाने मे सी.पी से कोई गलती या कोताही हुई हो. बल्कि इस मामले में तो वे अपने सभी सहकर्मियों पर बीस पड़ते थे. संचिका उनकी मेज़ पर पहुंची नहीं कि वे उसका ‘त्वरित निष्पादन’ कर फ़ौरन आगे बढा देते थे.यही वज़ह थी कि जब कभी डिप्टी साहब अपने किसी मातहत की ‘मिजाजपुर्सी’ किया करते तो उसे सी.पी. की कर्तव्यनिष्ठा और तत्परता की मिसाल ज़रूर देते थे. डिप्टी साहब की इस कृपादृष्टि के कारण भी दफ्तर में उनसे अकारण जलने वालों की कमी नहीं थी. लेकिन आज तो ऐसा भी कोई वाकया नहीं हुआ था. सी.पी. को किसी ने ‘चाय-पानी’ लेते हुए रंगे हाथों पकड़ लिया हो इस बात की तो रत्ती भर गुंजाईश नहीं थी. इसकी दो वज़हें थीं. पहली तो ये कि सी.पी. के भीतर ईमानदारी की एक जन्मजात और घातक सनक थी और दूसरी वज़ह यह थी कि जिस टेबुल पर वे बैठते थे उसे दफ्तर के दूसरे लोग ‘राहू का घर’ कहा करते थे, सो उसपर हमेशा लक्ष्मी की ‘वक्रदृष्टि’ रहा करती थी. सी.पी. खुद भी भौंचक थे. उन्होंने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि इतनी छोटी-सी बात दफ्तर में पूरे दिन कानाफूसी का सबब बन जाएगी. बात बस इतनी सी थी कि आज सी.पी. पहली बार टाई लगा कर दफ़्तर चले आये थे और उसपर सितम यह कि उनके हाथ में एक चमचमाता हुआ ब्रीफ़केस भी था. देखा जाए तो यह बहुत सामान्य-सी बात थी लेकिन चूँकि यह गुनाहे अज़ीम सी.पी. के हाथों हुआ था, इसलिए यह असाधारण बात हो गई.

           

      बेहतर होगा कि पहले सी.पी से आपका तआर्रुफ़ करा दूँ. सी.पी. भारतीय रेल में एक मामूली से क्लर्क हैं और फिलहाल मुगलसराय के डिवीजनल कार्यालय में पोस्टेड हैं. हालाँकि उनके दूसरे सहकर्मी भी उनकी तरह ही मामूली क्लर्क हैं लेकिन चूँकि सी.पी. क्लर्क होने के साथ-साथ एक दलित भी हैं, इसलिए अपने दूसरे सहकर्मियों की तुलना में वे कुछ ज़्यादा ही मामूली थे. सी.पी. के गंवई पिता मरहूम नथुनीराम ने बड़ी हसरत के साथ स्कूल की संचिका में उनका नाम छेदी पासवान लिखवाया था. अपने पुत्र के नामकरण में उन्होंने अपनी वंश-परंपरा का यथासंभव ख्याल रखा था.  मसलन नथुनीराम के स्मृतिशेष पिता का नाम डोमनराम और दादा का नाम बोढनराम था. लेकिन चूँकि सी.पी. थोड़ा पढ़-लिख गए थे और अब शहर में नौकरी भी करने लगे थे, सो उनको अपने पिता-प्रदत्त इस नाम से खासी चिढ़ थी. इस चिढ़ की भी दो वज़हें थीं. पहली तो यह कि यह नाम उनके सुदर्शन व्यक्तित्व पर बिल्कुल फिट नहीं बैठता था, और दूसरी  यह थी कि इस फटीचर नाम के कारण सामाजिक व्यवस्था में उनकी हैसियत और उनके पूर्वजों की निरक्षरता -- दोनों की ही पोल खुलती थी. इसलिए बहुत गंभीरतापूर्वक विचारने के बाद अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा और दूसरों की सुविधा के लिए उन्होंने स्वयं अपने नाम का ‘संक्षिप्ति-सह-आधुनिकीकरण’ कर डाला था. इस प्रकार ‘छेदी पासवान वल्द नथुनीराम’ की जगह अब वे ‘सी.पी. सन ऑफ लेट मिस्टर एन. राम’ हो गए. लगे हाथ उन्होंने यह भी तय कर डाला कि पीढ़ियों से चलती आ रही इस खानदानी मनमानी पर फ़ौरन रोक लगाते हुए वे अपने बच्चों का नाम  सचिन और सानिया की तर्ज़ पर रखेंगे. लेकिन आप तो जानते हैं कि इस दुनिया में भांति-भांति के लोग होते हैं. उनमें से कुछ लोग तो इतने अद्भुत खोजी और जन्मना जिज्ञासु होते हैं कि वे न केवल आपका पूरा नाम-पता जानने की अदम्य ईच्छा में मरे जाते हैं बल्कि आपके कुल और गोत्र के बारे में आद्यंत सूचनाएं एकत्रित करके वे अपनी जनरल नॉलेज का उत्तरोत्तर विकास भी करते रहते हैं. ऐसे जिज्ञासु जनों से संपन्न इस धरा पर यह बात भला कैसे और कब तक छुपी रह सकती थी कि किसी उच्च कुल के दिखने वाले सी.पी. दरअसल जाति  के दुसाध हैं. दफ़्तर में पहले ही दिन जब सी.पी. डिप्टी साहब के चैम्बर में अपना योगदान दे रहे थे, ऐन उसी वक़्त कोने वाली मेज़ पर श्रीवास्तव जी बड़ा बाबू के कान में फुसफुसाते हुए सूचित कर रहे थे, “ शक्ल-सूरत से तो हम भी गच्चा खा गए थे लेकिन अपॉइंटमेंट लेटर में जब पूरा नाम देखे तब जाकर पता चला“....

      सी.पी. का दलित होना किसी भी लिहाज से कोई असाधारण घटना नहीं थी और न रेलवे में उनका क्लर्क होना ही. लेकिन एक दलित का तेजतर्रार और दूरअंदेश होना एक असाधारण घटना ज़रूर होती है. सी.पी. के साथ भी यही दिक्कत थी. वे नए दौर के युवा थे. तरक्कीपसंद और महत्वाकांक्षी. बनारस के रेल कारखाने में एक खलासी के रूप में नौकरी की शुरुआत करने के महज़ पांच वर्षों के भीतर ही विभागीय परीक्षा पास कर वे अब क्लर्क बन गए थे. इतने पर भी जब उनको संतोष नहीं हुआ तो इस बार वे पी.सी.एस. की लिखित परीक्षा में बैठ गए और संयोग देखिये कि सफल भी हो गए. दफ़्तर में इस खबर के फैलते ही मानो सनसनी फैल गई.

       “ सब ‘बाबा’ की महिमा है भाइयों”. बड़े निरपेक्ष भाव से पांडे जी ने टिपण्णी  की थी और शौचालय की तरफ उन्मुख हो गए थे.

       दफ़्तर की कुलीन भाषा में ‘बाबा’ का अभिप्राय डॉ. भीमराव अम्बेडकर से था और ‘महिमा’ का मतलब आरक्षण की सुविधा से था. अपने काम से मतलब रखने वाले सी.पी. या तो इन वक्रोक्तियों का अर्थ नहीं समझते थे, और अगर समझते भी थे तो जानबूझ कर अनभिज्ञ बने रहते. अलबत्ता उनके सभी सहकर्मी मसलन पांडे जी श्रीवास्तव जी, शर्मा जी, गुप्ता जी, चौधरी जी, और तिवारी जी ऐसी भाषा के प्रयोग में निष्णात थे और सी.पी. के सन्दर्भ में इसका नियमित अभ्यास कर इस भाषा के शब्द-भंडार को उत्तरोत्तर समृद्ध भी करते रहते थे. बहरहाल इन बातों से बेपरवाह सी.पी. फ़िलहाल दो हफ्ते बाद ही होने वाले अपने साक्षात्कार की तैयारियों में जी-जान से भिड़े हुए थे और साक्षात्कार के अभ्यास के क्रम में ही वे आज टाई लगा कर दफ़्तर पहुँच गए थे. यह हिमाकत दरअसल उन्होंने अपने एक अनुभवी और ‘गुरु टाइप’ मित्र के मशविरे पर की थी. खुद चार बार पी.सी.एस. की परीक्षा में नाकाम होने के बाद अब एक कोचिंग सेंटर चलाने वाले उनके इस मित्र ने उनको सलाह दी थी कि डिप्टी कलेक्टरी पाने के लिए उनको अपने भीतर डिप्टी कलेक्टर वाला ‘इंस्टिंक्ट’ भी पैदा करना होगा. सी.पी. ने भी मित्र की सलाह को गाँठ में बांध लिया. उसी शाम वे बाज़ार गए और एक महँगी सी टाई और ज़रूरी फाइलें रखने के लिए एक अच्छा सा ब्रीफ़केस खरीद लाये. डिप्टी कलेक्टर के रूप में अपने भावी जीवन की सुखद कल्पनाओं में डूबते-उतराते सी.पी. आज इन्हीं तामझाम से लैस होकर दफ़्तर पहुँच गए . बस यही थी उनकी छोटी सी हसीन भूल जो आज दिन भर दफ़्तर में ‘कॉमेडी शो’ की तरह चलता रहा. बड़ा बाबू यानि तिवारी जी तो एक कदम आगे बढ़ कर सी.पी. को बाकायदा उनके  संभावित पदनाम के साथ संबोधित करने लगे थे. यह दीगर बात थी कि जब सी.पी. सामने होते तो यही बात पूरी गंभीरता और सम्मान के साथ कही जाती और उनकी अनुपस्तिथि में यही बात उपहास के रूप में कही जाती थी. आख़िर इस बात का अंदेशा तो हर किसी को था कि कल को सी.पी. कहीं सचमुच डिप्टी कलेक्टर बन गए तो ऐसी स्थिति में कम से कम यह गुंजाईश बची रहे रहे कि पहले कही जा चुकी बातों की सुविधानुसार व्याख्या की जा सके. लेकिन जैसे ही वे नज़र से ओझल होते तो गुप्ताजी धीरे से चुटकी लेते, “श्रीवास्तव जी, सीपिया तो आजकल चींटी के मूत में तैर रहा है. स्साला कहीं सचमुच.....”

     “अरे भई गुप्ता जी, क्यों बेकार की चिंता करते हैं? अंडकोष कितना भी बड़ा क्यों न हो जाए, रहना तो उसे लिंग के नीचे ही है.” श्रीवास्तव जी अपनी गुरुगंभीर वाणी में उत्तर देते.

     गुप्ता जी भी आश्वस्ति में अपना सर हिलाने लगते....

 

     दरअसल सी.पी की यह दूसरी पुश्त थी जो रेलवे में नौकरी कर रही थी. उनके बैकुंठवासी पिता नथुनीराम (सी.पी. के शब्दों में लेट मि. एन. राम) ने अड़तीस वर्षों तक रेलवे की सेवा करने के बाद अवकाश ग्रहण किया था और सी.पी. के नौकरी में आने के कुछ वर्षों बाद ही उन्होंने सद्गति प्राप्त कर ली. शुरू-शुरू में नथुनीराम की अस्थायी नियुक्ति मुगलसराय स्टेशन पर मुसाफिरों को पानी पिलाने के लिए हुई थी और वे ‘पानी पांडे’ कहलाते थे. बाद में जाकर उनको इस बात का पता चला की इस अस्थायी पद का यही स्थायी नाम है. हर साल अप्रैल के महीने में कोई दर्ज़न भर ‘पानी पांडे’ नौकरी पर रख लिए जाते थे और अगस्त में बारिश जब पूरे शवाब पर होती तो उन्हें अगली गर्मियों तक के लिए बिठा दिया जाता था. लेकिन नथुनीराम के लिए तो यह पांच महीने की नौकरी ही बहुत बड़ी नेमत थी. उन्होंने बड़ी शिद्दत से यह महसूस किया था कि शहर का जीवन उनके पैतृक गाँव के जीवन की तुलना में बहुत बेहतर और सुन्दर था. उनकी इस राय के पीछे दो वजहें थीं. पहली तो यह कि गाड़ियों के मुसाफ़िर उनका छुआ पानी पीने से पहले उनका ‘आश्रम’ नहीं पूछते थे, और दूसरी वज़ह यह थी कि पदनाम के कारण ही सही लेकिन उनके नाम के साथ ‘पांडे’ जैसा उपनाम भी जुड़ गया था. ‘पांडे’ का मतलब पंडित जी... पंडित जी का मतलब ब्राह्मण. एक गंवई शूद्र के लिए तो यह एक कल्पनातीत सम्मान की बात थी.

     फिर एक दिन एक छोटी-सी घटना घट गई और भोले-भाले नथुनीराम की यह खुशफहमी टूट गई. यह उस वक़्त की बात है जब वे अस्थायी रूप से गैंगमैन के रूप में बहाल कर लिए गए थे. उनके ट्राफिक बाबु थे बाबू उमाकांत सहाय. फैज़ाबाद के कुलीन कायस्थ थे. भले और विचारवान व्यक्ति थे और नथुनीराम के प्रति बहुत स्नेह भी रखते थे. जेठ की एक दोपहर की बात है. पटरी पर मरम्मत का काम चल रहा था. पास ही एक पेड़ की छांव में बैठे सहाय जी काम पर नज़र रख रहे थे. बगल में ही उनका छाता और झोला पड़ा था जिसमें उनके दिन का कलेवा था. बहुत जानलेवा धूप थी. थोड़ी देर बाद पसीने से लथपथ नथुनीराम भी ज़रा देर सुस्ताने की गरज से वहां आ बैठे और हुआ कुछ यह कि अनजाने में उन्होंने सहाय जी के झोले को छू दिया. इसके बाद की कहानी बहुत मुख़्तसर सी है. नथुनीराम जब दोबारा काम पर लौटे तो क्या देखते हैं कि सहाय जी ने पेड़ की ओट में अपना टिफिनबक्स उलट कर खाली कर दिया था और अब वहाँ कुत्तों का ‘ब्रह्मभोज’ चल रहा था. नथुनीराम से नज़रें मिलते ही सहाय जी थोडा अचकचा से गए. लेकिन उस क्षण भर के दृश्यांश ने नथुनीराम के सीधे-सादे मन पर एक गहरा आघात पहुँचाया था. अब उनको यह छोटी सी बात समझ में आ चुकी थी कि भभुआ जिले का उनका छोटा सा पैतृक गाँव बसहीं बसावन हो अथवा मुगलसराय जैसा नया बसा शहर हो, सच्चाई यह थी कि उनके जैसे लोगों की ज़मीनी हकीकत में कोई खास तब्दीली नहीं आई थी.

     लेकिन इस इकलौती घटना को यदि अपवाद मान लें तो नथुनीराम रेल की नौकरी के प्रति ह्रदय से कृतज्ञ थे. गाँव के अभावग्रस्त और तिरस्कृत जीवन की तुलना में रेल की यह गुलामी लाख दर्ज़ा बेहतर थी. जिंदगी भर सरकार के आदमी कहलाइए...रिटायर हुए तो जमा-बख्शीस...मर गए तो बीवी-बच्चों के लिए पेंशन...ऊपर से ट्रेन में सफ़र करने के लिए तीन सेट पास और छः सेट पी.टी.ओ. ...घूमते रहिये देश देशांतर. इसी पास की बदौलत वे एक बार सपरिवार हरिद्वार भी घूम आये थे. सी.पी. तब गोद में ही थे. नथुनीराम को अच्छी तरह याद है कि उनकी ठीक बराबर वाली सीट पर एक त्रिपुंडधारी पंडित जी भी बिराजमान थे. पंडित जी को देख कर नथुनीराम को अपनी जेब में पड़े लाल कागज के उस छोटे-से टुकड़े के महत्तम का अंदाज़ा हो गया था वर्ना बसहीं बसावन में किसी पंडीजी या बाबू साहेब की बराबरी में बैठने की वे कल्पना भी नहीं कर सकते थे. बहरहाल हरिद्वार में हर की पौड़ी में डुबकी लगाते हुए उन्होंने भोलेनाथ से बस इतना भर माँगा था कि बड़ा होकर उनका बबुआ भी उनकी तरह ही रेल में लग जाए. नथुनीराम की कल्पना में यह मनुष्य-जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि थी.

 

      खैर, अभी सी.पी. की मूल कथा की ओर लौटते हैं....

     सी.पी. का बचपन भी कमोबेश वैसे ही बीता था, जैसे निम्नमध्यमवित्त परिवार के उनकी ऊम्र के दूसरे लड़कों का बचपन होता है. नथुनीराम और लखपतिया देवी की इकलौती संतान होने के कारण उनके लालन-पालन में यथासंभव कोई कमी नहीं रखी गई थी. नौकरी के स्थायी होने बाद नथुनीराम के जीवन में  भी मूलभूत सुविधाओं विस्तार हुआ था. अब वे रेलवे कालोनी के ‘डी’ टाइप क्वार्टर में रहने लगे थे. क्वार्टर तो एक कमरे का ही था और उसपर टीन की छत थी लेकिन उसमें अलग से एक रसोईघर और शौचालय भी था. सुबह-शाम नलके का साफ पानी आता था और रात-दिन झकाझक बिजली अलग रहती थी. नथुनीराम के लिए तो यह सब एक दिवास्वप्न की तरह था. शुरू-शुरू तो वे पंखे की तेज़ हवा और खटर खटर की बेसुरी आवाज़ से अकबका कर अचानक जग उठते थे और फिर नासपिटी बिजली को कोसते हुए चटाई लेकर बाहर के बरामदे में सोने चले जाते थे. सी.पी. जब कोई पांच साल के हुए तो उनका दाखिला कालोनी के ही लोअर प्राइमरी स्कूल में करा दिया गया. सफ़ेद कमीज और नीली निकर वाले स्कूलड्रेस में कंधे पर बस्ता-टिफिन लटकाए छेदी बबुआ जब घर से स्कूल के लिए निकलते तो अम्मा-बाबू की आँखें जुड़ा जातीं. अपने रंग-रूप के कारण वे किसी भी कुलीन परिवार के बच्चों से कतई कम नहीं दिखते थे.

     सी.पी. के पास अपने बचपन की अनेक खुशरंग यादें थीं. लेकिन कभी-कभी उनको इस बात का     अहसास ज़रूर होता था कि कालोनी के एक जैसे दिखते घरों में एक जैसे दिखते लोगों के बीच रहने के बावजूद उनका परिवार पास-पड़ोस के अन्य परिवारों से किसी अज्ञात कारणवश अलग था. बचपन की कुछेक स्मृतियाँ थीं जिन्होंने उनको ऐसा सोचने के लिए बाध्य किया था. उनमें एक  स्मृति स्कूल की थी. यद्यपि सी.पी. पढाई में ठीक-ठाक थे इसके बावजूद गणित के मास्टर राधाकांत मिसिर को वे फूटी आँख नहीं सुहाते थे. मिसिर जी पूरे स्कूल में पढ़ाने क लिए कम और पिटाई करने के लिए अधिक कुख्यात थे. छात्रों की पिटाई करने में उनको परम सुख का बोध होता था, किन्तु इस सुख को प्राप्त करते हुए वे वर्ण-व्यवस्था के आदि सिद्धांतों का अक्षरशः पालन करते थे. मसलन ब्राह्मणों और ठाकुरों के बच्चों के सिर्फ़ कान उमेंठे जाते थे, तेली-बनियों की पीठ पर मुक्कों से कुटाई की जाती थी और अछूतों के बच्चों के लिए खजूर की लपलपाती छड़ी थी. आज सालों बाद भी जब सी.पी. उन दिनों को याद करते हैं तो यह बात उनकी समझ में नहीं आती कि कक्षा के सिर्फ़ तीन लड़कों के लिए मिसिर जी को छड़ी रखने की क्या ज़रूरत थी जबकि कई दूसरे लड़के उन तीनो की तुलना में पढाई में कहीं ज्यादा ख़राब थे. क्या मिसिर जी उन तीन लड़कों को अधिक प्रताड़ित करना चाहते थे? या, छड़ी के बहाने उन तीनों के स्पर्श से बचे रहने की तरकीब निकाल ली थी उन्होंने? मिसिर जी की बात तो खैर वही जानें लेकिन जहाँ तक सी.पी. का सवाल था तो वे खुद ही मिसिर जी के स्पर्श से भरसक बचना चाहते थे. मिसिर जी को देख कर उनको घिन आती थी. उनके पोपले मुँह से हर वक़्त लार चूती रहती. वे हफ्तों बिना नहाये रहा करते थे और उनके चीकट कपड़ों से असहनीय दुर्गन्ध आती थी. मिसिर जी को बवासीर था और कई बार उनकी धोती पर खून के ताज़ा धब्बे नज़र आते थे. मास्टर राधाकांत मिसिर के ब्राह्मणत्व की समस्त शुचिता बस उनकी मोटी-सी चुटिया की गांठ में थी. बहरहाल उनकी अनोखी दंडसंहिता का प्रसाद पाकर जब सी.पी. घर लौटते तो नथुनीराम उनको बहुत प्यार से समझाते हुए कबीर का ‘गुरु कुम्हार, शिष्य कुम्भ’... वाला पद सुनाते जिसमें यह व्याख्या की गई  थी कि शिष्य रुपी घड़े को सुन्दर आकार देने के लिए गुरु रुपी कुम्हार को उसे भीतर से सम्हालना और बाहर से पीटना पड़ता है. उस वक़्त सी.पी. को भी यही लगता कि बाबू शायद ठीक ही कहते हैं.

      एक रोज़ की बात है. जब स्कूल की छुट्टी हुई तो भोले-भाले सी.पी. ने अपने कुछ सहपाठियों से आख़िरकार पूछ ही लिया, “भैया तुम लोंगों के पास ऐसा क्या जादू है जो मिसिर मास्टरजी तुम लोगों को छड़ी से नहीं पीटते?”

      जवाब में एक बाभन लड़के ने कमीज के भीतर से अपना जनेऊ निकाल कर दिखाया, “बेट्टा यह देख, हमारे पास भोलेशंकर का दिया यह दिव्य जंतर है.”

 

      एक दूसरी स्मृति भी थी....

सी.पी. के ठीक बाद वाले क्वार्टर में जटाशंकर सिंह रहा करते थे. गोरखपुर के रहने वाले थे और रेलपुलिस में हवलदार थे. एक तो पुलिस की नौकरी और उसपर रगों में बहता ठाकुरों का गरम खून, सो जटाशंकर सिंह पूरी ठसक में रहा करते थे. ठाकुराइन को आद-औलाद नहीं थी. लिहाजा उनका ज्यादातर समय धरम करम और पूजापाठ में बीतता था और हवलदार साहब का दारू पीने और लौंडों का नाच देखने में. कमाई अनाप-शनाप थी और खाने वाले सिर्फ़ दो प्राणी. ठकुराइन बहुत छुआछूत मानती थीं. कालोनी के लोग उपहास में यहाँ तक कहा करते थे कि ठकुराइन का वश चलता तो वह पानी भी धो कर पीतीं. लेकिन धर्मभीरु ठकुराइन का धर्म अचानक उस वक़्त संकट में पड़ गया जब एक दिन उनको अपने ठीक बगल में

रहने वाले नथुनीराम की जाति का पता चल गया. वे उद्विग्न हो गईं. उन्होंने हवलदार साहब से तत्काल क्वार्टर बदलने की जिद थाम ली. लेकिन कालोनी में दूसरा क्वार्टर खाली नहीं होने के कारण हवलदार साहब भी निरुपाय हो गए. ठकुराइन मन मसोस कर रह तो गई लेकिन लेकिन यह बात वे मन से बिसार नहीं सकीं. थोड़े दिन बाद ही वे बीमार रहने लगीं. भोजन से एकदम अरुचि हो गई. जो कुछ खातीं तुरत कै हो जाता. हवलदार साहब ने बनारस के सबसे बड़े वैद्य से इलाज कराया लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा. एक दिन ठकुराइन ने ही कराहते हुए अपने रोग का रहस्य खोला कि जब तक रसोईघर में अशुद्ध जल का उपयोग होता रहेगा तब तक दुनिया की किसी भी औषधि का उनपर कोई असर नहीं होगा. यह सुनकर हवलदार साहब चकराए. कालोनी के सभी लोग तो आख़िर एक ही नलके का पानी पीते हैं. अंततः ठकुराइन ने ही बात स्पष्ट की. दरअसल बात यह थी की हवलदार साहब के चौके में जिस नलके का पानी आता था उसका पाइप नथुनीराम के क्वार्टर से होकर आता था. ज़ाहिर सी बात थी कि दुसाधों के स्पर्श से पानी की पवित्रता नष्ट हो रही थी. एक ही क्षण में हवलदार जटाशंकर सिंह को ठकुराइन के असाध्य रोग का रहस्य समझ में आ गया. उन्होंने फ़ौरन उपाय भी ढूंढ निकाला. उसी रोज़ देर रात गए वे पीकर लौटे और उन्होंने नथुनीराम को घर से बाहर बुला कर उनकी सात पुश्तों का यथाशक्ति अभिनन्दन किया. बेचारे नथुनीराम हाथ जोड़े चुपचाप सुनते रहे. दूसरे दिन पौ फूटते ही उन्होंने अपना क्वार्टर खाली कर दिया. पूरे दिन क्वार्टर की साफसफाई और सफेदी हुई. शाम में सत्यनारायण जी की कथा हुई और रात घिरने से पहले हवलदार साहब और ठकुराइन का क्वार्टर में विधि-विधान पूर्वक गृहप्रवेश हो गया. नथुनीराम का परिवार जटाशंकर सिंह के क्वार्टर में रहने आ गया. इसप्रकार एक कुलीन दम्पति को दूषित जल के सेवन से मुक्ति मिली और उनके संकट में पड़े धर्म की भी रक्षा हुई.

      बहरहाल ठकुराइन की सेहत तो धीरे-धीरे सुधरने लगी लेकिन हवलदार साहब को यह आवास परिवर्तन रास नहीं आया. उनको शक्कर की बीमारी थी लेकिन लालपरी के बिना उनका एक पल भी गुज़ारा नहीं था. पूस की एक सुबह अचानक पाखाने में अचेत होकर गिर पड़े. आनन-फानन में उनको अस्पताल ले जाया गया. डॉक्टरों ने फालिज बताया. जान तो किसी तरह बच गई लेकिन हवलदार साहब जीवन भर के लिए अपाहिज हो गए. गृहस्थी की गाड़ी किसी तरह खिंचती रहे इसके लिए उनके मित्रों ने भागदौड़ कर किसी तरह ठकुराइन के लिए अनुकम्पा की नौकरी की व्यवस्था कर दी. अब ठकुराइन पढ़ी-लिखी तो थी नहीं, सो उनको रेलवे के मालखाने में चपरासिन का काम मिला. जीवन भर दूसरों की परछाईं से भी परहेज़ करने वाली ठकुराइन अब दिनभर बाबुओं को चाय-पानी पिलाती और उनके जूठे गिलास साफ करतीं. इधर हवलदार साहब घर पर बिस्तर पर गु-मूत में पड़े रहते. उसी गु-मूत में उनकी ठसक और ठकुराइन का पाखंड भी विसर्जित होता रहता. दोनों प्राणियों की यह दुर्गति देखकर भोले-भाले नथुनीराम और लखपतिया देवी का मन भर आता. सी.पी. को अम्मा-बाबू की यह बेवकूफानी भावुकता विचित्र लगती थी. तब वह सातवीं-आठवीं में पढ़ते थे.  

      बहरहाल मित्रों के सहयोग और श्रम से ठकुराइन को केवल नौकरी ही नहीं मिली बल्कि हवलदार साहब को पिता बनने का गौरव भी हासिल हुआ. चालीस पार की नाउम्मीद हो चुकी ठकुराईन ने अगले ही वर्ष एक सुन्दर से बेटे को जन्म दिया. हालाँकि ठकुराइन ने हवलदार साहब को यकीन दिलाने की बहुत कोशिश की कि बेटे के नैन-नक्श बिल्कुल उनकी तरह ही हैं, लेकिन कालोनी के लोग बताते थे कि जटाशंकर सिंह ने जीते जी बेटे को कभी हाथ भी नहीं लगाया.

        

      इंटर पास करने के बाद डिग्री की पढाई के लिए सी.पी. मुगलसराय से इलाहाबाद चले आये थे. उनको वह दृश्य आज भी याद है जब टीन की एक पुरानी सी पेटी को कंधे पर उठाये बाबू जब मुगलसराय स्टेशन पर उनको गाड़ी में बिठाने आये थे तो उनकी आँखें गीली थीं. नथुनीराम के पुरखों में किसी ने चौथी भी पास नहीं की थी, सो उनका भावुक होना लाजिमी था.

     इलाहबाद में सी.पी. का दाखिला कॉलेज में हो गया और वे खुल्दाबाद के एक लॉज में रहने लगे. यह बीती हुई सदी के आखिरी दशक के शुरूआती सालों की बात थी जब राष्ट्रीय राजनीति की शोधशाला में सामाजिक न्याय नाम की कन्या ने अभी-अभी जन्म लिया था. इस नवजात कन्या का शुक्राणु-दाता एक ‘कवि-चित्रकार’ था जो अब ‘राजा नहीं फ़कीर है...देश की तकदीर है’ के नारे पर सवार होकर मुल्क का सियासी रहनुमा बन चुका था. देश का सवर्ण समाज अपने इस विभीषण के विश्वासघात से स्तब्ध और बेहद नाराज़ था. उसकी मुखालफ़त में ऊँची जाति के बेरोजगार नौजवान सड़कों पर उतर आये थे और कैम्पसों में आत्मदाहों का भयावह सिलसिला शुरू हो चुका था. यह सियासत में ‘कास्ट फैक्टर’ के उत्कर्ष का युग था, यह ‘रथ यात्राओं’ और ‘चेतना महारैलियों’ का युग था. मार्क्सवादी समाज शास्त्रियों की दृष्टि में यह वंचितों के पुनरुत्थान का युग था और एक वैचारिक पत्रिका के पाइप पीने वाले विवादास्पद संपादक की नज़र में यह वर्ण-व्यवस्था के शीर्षासन का युग था.

      बहरहाल सच चाहे जो हो लेकिन यह बात तय थी कि देखते ही देखते इस बवंडर ने पूरे देश की सियासत की सूरते-हाल बदल दी. जो सूबे अभी हाल-फ़िलहाल तक देश के सबसे पुराने राजनीतिक खानदान की ऊँगली थाम कर चलने वाली सौ साल पुरानी एक पार्टी की जागीर माने जाते थे, वहीँ अब सामाजिक न्याय की ताज़ा खुराक पाकर जातीय क्षत्रपों की एक नयी ज़मात अस्तित्व में आ चुकी थी. जवानी के दिनों में पहलवानी का शगल पालने वाला एक अहीर मास्टर अब प्रदेश का नया मुख्यमंत्री था और महंगे कपड़े जेवर और डिज़ाइनर हैंडबैग का शौक रखने वाली एक स्थूलकाय कुंवारी दलित महिला विरोधी दल के नेता के रूप में उसे कड़ी टक्कर दे रही थी. पूरब से लगे एक पिछड़े सूबे की भी कमोबेश यही स्थिति थी. वहां एक अक्खड़ और हाज़िर-जवाब व्यक्ति अब सत्ता के शीर्ष पर काबिज था जो नैतिकता की राजनीति और राजनीतिक नैतिकता  की बजाय अपने विदूषक जैसे हेयर स्टाइल, लठमार भाषा और चिउड़ा-सतुआ जैसे खाद्य उत्पादों के ब्रांड अम्बेसडर के रूप में ज्यादा प्रसिद्द था. उसके पास वशीकरण के दुर्लभ सियासी टोटके थे. वह अपनी मुफलिसी के सच्चे-झूठे किस्सों की मार्केटिंग करने के हुनर में उस्ताद था. मसलन अपनी पहली विदेशयात्रा में एक पश्चिमी न्यूज़ चैनल के सामने उसने मसखरे की तरह एलानिया अंदाज़ में यह बात कही कि उसे पजामे के भीतर चड्ढी पहनने की आदत नहीं है. कालांतर में उसके इस वक्तव्य को गरीब-गुरबों और पिछड़े-वंचितों के अधिकारों का सबसे प्रभावशाली घोषणापत्र’ कहा गया.

                सी.पी. इतनी जटिल सियासी बातों का निहितार्थ समझने के लिहाज से अभी बहुत मासूम थे.वैसे भी खुल्दाबाद के अपने आठ बाई दस के कमरे में सुबह कॉलेज जाने से पहले खाना पकाने और झाड़ू लगाने और शाम को लौटने के बाद फिर से खाना पकाने और बर्तन-कपड़े धोने के दरम्यान दूसरी बातों के लिए उन्हें कम ही वक़्त मिल पाता था. अलबत्ता रोज़ सुबह-सुबह चाय पीने के लिए वे नुक्कड़ पर चौबे जी की गुमटी तक ज़रूर जाते थे. हालाँकि अपने कमरे में भी वह शक्कर और चायपत्ती की डिबिया रखते थे लेकिन बिना ताज़ा अख़बार के सुबह की चाय उनको बेज़ायका लगती थी. चौबे जी की दुकान पर प्रतिदिन ‘अमर उजाला’ आता था. उनकी कुल्हड़ वाली मलाईदार चाय का स्वाद पूरे इलाके में मशहूर था. चौबे जी पक्के बतरसिया थे. रोज़ नियमित रूप से बी.बी.सी. की हिंदी सेवा सुनते थे और अपने ग्राहकों को चाय पिलाने के साथ-साथ दुनिया-जहान की फड़कती हुई और ताज़ातरीन ख़बरें भी सुनाते थे. अब आजकल की तरह ‘खांसने-मूतने’ जैसी घटनाओं को भी लाइव दिखाने वाले खबरिया चैनलों की भरमार तो उस ज़माने में थी नहीं लिहाजा पूरे मोहल्ले को दुनिया भर की ताज़ा खबरों से वाकिफ होने के लिए चौबे जी की मोहताजी करनी पड़ती थी. इस समाजसेवा के बदले चौबे जी ने यह छूट या सुविधा स्वत: प्राप्त कर ली थी कि वे न्यूज़ ‘ब्रेक’ करने के साथ-साथ कभी-कभार न्यूज़ ‘क्रिएट’ भी कर लिया करते थे. मसलन अगर खबर यह होती कि मैक्सिको की किसी औरत ने एक साथ चार बच्चे जने हैं तो चौबे जी ने चार अपनी तरफ से जोड़ दिए. दुनिया के किस देश की प्रिंसेस या फर्स्टलेडी अपने बटलर या शोफर के इश्क़ मे मुब्तिला है, यह खबर भी अगर चौबे जी की माने तो सबसे पहले उनतक ही पहुँचती थी. इस प्रकार खबरों की टी.आर.पी. भी बरक़रार रहती थी और उनकी दुकान भी आबाद रहा करती थी. बी.बी.सी. के प्रति चौबे जी की अखंड आसक्ति की एक वज़ह लोग यह भी बताते थे कि चौबे जी का खुद का पूरा नाम बम बहादुर चौबे था. बहरहाल उनकी चाय की तरह चौबे जी की वाचालता भी पूरे इलाके में मशहूर थी. उनकी स्मृति में कहावतों और बुझव्वलों का अद्भुत भंडार था और वे यथासमय उनका प्रयोग करने में निष्णात थे. सारांश यह कि चौबे जी ग्राहकों को पटाए रखने की समस्त विद्या में पारंगत थे. लिहाजा इसे उनकी बतरस का जादू कहिये,या फिर ‘अमर उजाला’ पढने का लोभ कह लीजिये कि सी.पी. भी रोज़ सुबह-सुबह उनकी दुकान पर हाज़िर होने लगे. कुछ दिनों तक तो सबकुछ ठीक-ठाक चलता रहा लेकिन उसके बाद सी.पी. एक विचित्र स्थिति में फंस गए. पूरे ज़माने की खोज-खबर रखने वाले चौबे जी को न जाने यह गफलत कैसे हो गई कि सी.पी. भी उनकी तरह ही ब्राह्मण हैं. अब इसमें सी.पी. की भी कोई खता नहीं थी. चौबे जी ने उनसे कभी उनकी जाति के बारे पूछा होता तब तो वे बताते. दरअसल सी.पी. के सुदर्शन और प्रभावशाली व्यक्तित्व को देखकर वे धोखा खा गए. उन्होंने अपनी तर्कबुद्धि लगाई और सीधे-सीधे इस निष्कर्ष पर आ पहुंचे कि जैसे बी.बी.सी. का एक अर्थ बमबहादुर चौबे होता है, वैसे ही सी.पी. का अर्थ भी चंद्रशेखर या चंद्रभूषण पांडे होता होगा. बहरहाल अब इस ग़लतफ़हमी का कोई हल भी नहीं था. सी.पी. को भी इसमें कोई आपत्तिजनक बात नहीं लगी सो वे भी चुप्पी साध गए. अलबत्ता उस वक़्त वे ज़रूर सकपका जाते जब वे चौबे जी की दुकान पर पहुँचते तो चौबे जी ‘विराजिये पंडित जी’ के संबोधन से उनका स्वागत करते. आप कह सकते हैं की उस वक़्त सी.पी. अंग्रेजी साहित्य में पढाए जाने वाले ‘कॉमेडी ऑफ एरर’ के तजुर्बे से गुज़र रहे थे.

      चौबे जी खुद तो खास पढ़े-लिखे नहीं थे लेकिन विद्या और ज्ञान पर वे ब्राह्मणों की कॉपीराइट मानते थे और किसी न किसी बहाने यह धौंस दूसरों पर प्रकट भी करते रहते थे. विचारधारा के मामले में वे खानदानी जनसंघी थे लिहाजा सोशलिज्म, सेकुलरिज्म और सोशल जस्टिस जैसे जुमलों से उनको जन्मजात एलर्जी थी. मुल्क के नए राजनीतिक ट्रेंड के खिलाफ़ उनके मन में भयानक नाराज़गी थी. उनको इस बात की गहरी पीड़ा थी कि राजा-रजवाड़े के ज़माने में जो सम्मान और संरक्षण विद्वानों अर्थात ब्राह्मण को मयस्सर था, वैसा ही सम्मान-संरक्षण कुत्ते-सियारों अर्थात निचली और पिछड़ी जाति के लोगों को लोकतंत्र में मिलने लगा है. ‘हमबिरादर’ होने के नाते अपनी इस व्यथा को वे गाहे-बगाहे सी.पी. के साथ साझा कर

अपना मन हल्का कर लेते थे. यह उन्हीं दिनों की बात है जब हर दो-एक रोज़ पर कहीं न कहीं से आत्मदाह की ख़बरें आती रहती थीं. चौबे जी बी.बी.सी. पर ख़बरें सुनते और व्यथित हो जाते. व्यथित हो जाते तो सत्ता के शीर्ष पर फर की टोपी पहन कर बैठे उस व्यक्ति को गलियाते जो उनकी नज़र में सारे फ़साद की जड़ था.

      “स्साले !... कुर्सी के लालच में गू का तिलक लगाने वाले”...फिर थोडा संयत होकर बोलते, “देखिएगा पंडित जी, यह अनीति अधिक दिनों तक नहीं चलेगी. और, आरक्षण से क्या कबाड़ लोगे भाई. गधे को काबुल भेज दोगे तो भी वे रहेंगे गधे ही. घोड़े थोड़े बन जायेंगे”.

       जवाब में बेचारे ‘पंडित जी’ उर्फ़ अपने सी.पी. बगलें झांकते रहते.

       एक रोज़ का वाकया है. जाड़े का मौसम था और सुबह-सुबह का वक़्त. चौबे जी की गुमटी पर रोज़ की तरह चाय के तलबगार इकट्ठे थे. दो-चार लोगों के हाथ में अमर उजाला के ताज़ा-बासी पन्ने थे. बांकी लोग अंगीठी में हाथ सेंकते हुए उबासियाँ ले रहे थे. कुल मिलाकर बड़ा बोझिल सा माहौल था. चौबे जी ने इस सुस्ती को ताड़ते हुए अपना पसंदीदा ‘बूझो तो जाने’ का खेल शुरू किया.

       “ सज्जनों, मेरी एक जिज्ञासा का समाधान करें.”

      

          सबको पता था कि चौबे जी बूटी का शौक फरमाते थे. अल्लसुबह एक बड़ी सी गोली एक लोटा पानी के साथ गटक लेते थे और थोड़ी देर बाद ही संस्कृतनिष्ठ हिंदी में ‘वार्तालाप’ करने लगते थे. पब्लिक समझ जाती थी कि चौबे जी मौज में आ गए हैं. बहरहाल लोगों ने कौतुहल से उनकी तरफ देखा.

       “ मुझे बतलाएँ कि चारपाई और पलंग में क्या भेद है?” चौबे जी ने उफनती हुई चाय में चमचा चलाते हुए पूछा. जड़ वातावरण अचानक चैतन्य हो उठा. जूली हेयरकटिंग सैलून के हज्जाम ने तपाक से जवाब दिया, “महाराज, दोनों में वही भेद है जो खिचड़ी और खीर में है”.

       चौबे जी ने हिकारत से उसकी तरफ देखा. बेचारा हज्जाम सिटपिटा कर चुप हो गया.

       बारी-बारी से सभी उपस्थित जनों को अवसर दिया गया लेकिन कोई भी चौबे जी के इस आई.क्यू. टेस्ट में खरा नहीं उतरा. सबसे अंत मे सी.पी. की बारी आई. चौब जी ने भी बड़े विश्वास और उम्मीद के साथ उनको देखा. सी.पी. ने बहुत देर तक मगजमारी की फिर थोड़ी देर बाद ज़रा दबे-से और अनाश्वस्त लहजे में जवाब दिया, “पलंग पर आप सिर्फ़ दो तरफ से ही चढ़-उतर सकते हैं लेकिन चारपाई पर आप चारों तरफ से चढ़-उतर सकते हैं.”

       अँधेरे में चलाया गया तीर ठीक निशाने पर लगा था.

       “धन्य हैं पंडित जी!” चौबे जी ख़ुशी के आवेग में लगभग चिल्लाते हुए बोले, “देखा सज्जनों, केवल विप्र का जन्मा ही इतना मेधावी हो सकता है.”

       जवाब में सज्जनों ने भी अपना-अपना सर हिलाया. लेकिन सी.पी. को चौबे जी की यह प्रशंसा नहीं भाई. यह एक तरह से सरासर गाली थी. उनके मन में आया  कि उसी क्षण चौबे को उठा कर औंधे मुँह पटक दें और हाथी जैसी उसकी चूतड़ों पर जोर की लात जमाते हुए बोलें, “चौबे की औलाद, दुसाध का जन्मा भी मेधावी हो सकता है. विश्वास नहीं तो ले देख उसकी मेधा का एक छोटा-सा नमूना, यह लात का परसाद...”

       बहरहाल सी.पी. खून का घूँट पी कर रह गए. लेकिन अगले दिन से उन्होंने चौबे जी की गुमटी पर जाना छोड़ दिया. अचानक उनको अम्मा की कही बात याद गई कि सुबह-सुबह खाली पेट चाय पीने से क्षुधा

का नाश होता है. रही बात अख़बार की तो इस संकट से निबटने के लिए उन्होंने एक लाइब्रेरी की मेम्बरशिप ले ली. अब रोज़ शाम वह नियमित रूप से वहां जाने लगे. लाइब्रेरी में अमर उजाला के अलावा भी कई दूसरे अख़बार आते थे और हजारों की तादात में अलमारियों में सजी किताबें तो अलग से थीं. बाद के दिनों में इन्हीं किताबों की खाक छानते हुए सी.पी. को वह नावेल हाथ लगा था जो उस ज़माने में प्रेम पड़े हुए युवाओं के लिए बाइबिल की तरह पवित्र माना जाता था और कोर्स में नहीं होने के बावज़ूद जिसका पाठ कॉलेज में पढने वाली कई पीढ़ियों ने अनिवार्य रूप से किया था. उपन्यास का कथानायक इलाहबाद में रहता था और उसका नाम रोमन के ‘सी’ अक्षर से शुरू होता था. अपने सी.पी. का नाम भी रोमन लिपि के इसी अक्षर से शुरू होता था और इत्तफाकन उनदिनों वे भी इलाहाबाद में ही झक मार रहे थे. सी.पी. ने भी संभवतः  इन समानताओं को नोट किया था. शायद इसीलिए नावेल के आद्यांत पाठ ने उनको रातों-रात जड़ से चेतन बना डाला और एक उदास-सी शाम उन्होंने खुद को उस संगीन मुक़ाम पर खड़ा पाया जिसे बकौल शायर कहें तो ‘ले आया मुझे वां पे मेरा गर्दिशे-अय्याम जां मुझसे मेरा ज़ेहन सम्हाला नहीं जाता’. लब्बो-लुआब यह कि जैसे किसी को भी हो सकता है वैसे सी.पी. को भी प्रेम हो गया. यह और बात थी कि जिस लड़की से उनको प्रेम हुआ था वह सिविल लाइन्स के किसी बंगले में नहीं बल्कि उनके लॉज की ऊपर वाली मंजिल पर रहती थी और उनके मकान मालिक तिलोकचंद सर्राफ की बड़ी बेटी पुष्पारानी थी. गाँव-कस्बों से बड़े शहरों में पढ़ने आये अधिकांश युवाओं की तरह उनकी जिंदगी के भी दो अदद ख़्वाब थे – एक तो उनको उस ‘मंज़िले-मक़सूद’ तक पहुंचना था जिसे किसी डरपोक शायर ने ‘इक आग का दरिया है और डूब के जाना है’ जैसा मुश्किल काम बताया था. और दूसरा, दुनिया के सामने अपनी मेधा को सिद्ध करने के लिए उनको आई.ए.एस. बनने जैसा एक तुच्छ-सा काम भी करना था. अब आई.ए.एस. बनने के लिए सी.पी. का कम से कम ग्रेजुएट होना ज़रूरी था और इसमें डेढेक साल की देरी थी, सो तबतक उन्होंने पहले काम से ही फ़ारिग  हो लेने का फैसला किया.

     आयुष्मती पुष्पारानी पिछले साल दूसरी बार इंटर फेल करने के बाद सम्प्रति घर में ही रह कर सिलाई-कढ़ाई करने और मुकेश-लता के युगल गाने सुनने जैसे जीवनोपयोगी कार्यों में अपना समय सार्थक कर रही थीं. उनके पिता तिलोकचंद की दारागंज में सर्राफे की दुकान थी. किसी ज़माने में दुकान अच्छी खासी चलती थी लेकिन अब वह तिलोकचंद के बावन पत्तों के शौक की बलि चढ़ चुकी थी. शोकेस में सजी चांदी के दो-चार पाज़ेब और पीतल के कुछ कर्णफूलों को छोड़ कर अब वहां बिकने के लिए कोई जेवर नहीं बचा था. परिवार की गुज़र-बसर खुल्दाबाद के उस दोतल्ले मकान से हो रही थी जो तिलोकचंद को शादी में बतौर दहेज़ मिला था. तिलोकचंद की बीवी एक होशियार औरत थी. वक़्त की नज़ाकत को समझते हुए उसने मकान की निचली मंजिल के आठों कमरों को लॉज बना दिया था. ऊपर बने तीन कमरों में पूरा परिवार रहता था. तिलोकचंद की दो बेटियां ही थीं. पुष्पारानी और उनसे छोटी कुसुम कुमारी जो फ़िलहाल हायर सेकेण्डरी में पढ़ रही थी. दोनों ही बहने जवान हो चुकी थीं और रूपवान तो वे थीं ही. उनके चांदी जैसे रंग और सोने जैसे बाल को देखकर एक बात शर्तिया कही जा सकती थी कि दोनों की रगों में सुनारों का ही खून बह रहा था. और तो और, खुद सी.पी. भी कन्फ्यूज्ड थे कि तिलोकचंद ने अपने पुरखों का चांदी और सोना जुए की लत में लुटा दिया था या अपनी दोनों बेटियों को गढ़ने में खर्च कर डाले थे.

       खैर... यहाँ बात सी.पी. की हो रही थी जो पुष्पारानी के प्रेम में पड़ कर अभी-अभी चैतन्य हुए थे. उनकी जन्मपत्री में उनदिनों दरअसल वेलेंटाइन बाबा नामक एक चंचल ग्रह की महादशा चल रही थी

जिसके फलादेशानुसार किसी ‘अत्यंत ज्वलनशील तत्व’ के चुम्बकीय क्षेत्र में आते ही मस्तिष्क में डोपामाईन और एड्रीलिन जैसे घातक रसायन खतरे के स्तर को तेज़ी से पार करने लगते थे और जातक को असामान्य धड़कन और स्वेद्स्राव का भीषण दौरा पड़ता था. सी.पी. को भी ऐसा दौरा दिनभर में आठ-दस दफा पड़ ही  जाता था क्योंकि पुष्पारानी रुपी ‘ज्वलनशील तत्व’ के चुम्बकीय क्षेत्र में वे दिन में कम से कम इतनी दफा तो आ ही जाते थे.

      सुना है, मोक्ष की तरह प्रेम की प्राप्ति भी बिना गुरु के संभव नहीं. इसे वेलेंटाइन बाबा का ही चमत्कार कह लीजिये कि इसी बीच सी.पी. के शुष्क और उद्देश्यहीन जीवन में बब्बन भैया जैसे प्रतापी दिव्यपुरुष का पराभव हुआ. बब्बन भैया उर्फ़ महाबीर सिंह यादव खुल्दाबाद के उस लॉज के सबसे पुराने रहनवार थे जिसमे सी.पी. सालभर पहले रहने आये थे. यों तो अपने नाम के उलट बब्बन भैया काया से एकदम सीकिया पहलवान थे लेकिन इसके बावजूद लॉज में रहने वाले लड़कों पर उनका अच्छा-खासा रुआब था. उनके सगे चाचा सत्ता पक्ष के एक दबंग विधायक थे. वे खुद भी छात्रसंघ के चुनाव ने दो दफा जोर आजमा चुके थे. लेकिन अपनी इस इमेज के बावजूद तिलोकचंद के परिवार के साथ उनके घरेलू सम्बन्ध थे. वे तिलोकचंद की कवच भी थे और उनके सलाहकार भी. तन-मन-धन, तीनो से पूरे परिवार के लिए हाज़िर.

      बब्बन भैया राजनीतिशास्त्र में एम. ए. करने बाद सम्प्रति शोधकार्य में व्यस्त थे और दिल बहलाने की गरज से यदा-कदा पी.सी.एस. और यू.पी.एस.सी. जैसी प्रतियोगिताओं में बैठ लिया करते थे. बब्बन भैया चौदह विद्यानिधान थे. मतलब हर खेल के उस्ताद. जैसा कि उनके नाम से बोध होता है, वे बजरंगबली के पक्के चेले थे. हरेक मंगलवार को अनोना रखते थे और स्टेशन के पास वाले हनुमान मंदिर में सवा पांच रुपये का लड्डू चढ़ाते थे. ब्रह्मचर्य का बोझ जब असह्य हो जाता तो महीने-दो महीने में उसे मीरगंज की गलियों में विसर्जित भी कर आते थे. बब्बन भैया के तकिये के नीचे तीन चीजें हर वक़्त मौजूद रहती थीं – पहली, एक सचित्र हनुमान चालीसा..... दूसरी, एक देशी कट्टा.. और तीसरी, कंडोम की एक भरी हुई डिबिया. ये तीनो चीजें उनकी नज़र में पुरुषार्थ का प्रतीक थीं. सी.पी. बब्बन भैया के इस बिंदास जीवन दर्शन से बेहद मुतास्सिर थे लिहाजा बब्बन भैया को अपना ‘फ्रेंड, फिलासफर और गाइड’ मान लेने उन्होंने ज्यादा वक़्त जाया नहीं किया. बब्बन भैया थे पक्के यारबाश शख्स. रोज़ शाम उनके कमरे में अड्डा जमता. आसपास के लॉज के लड़के भी अड्डेबाजी में शामिल होते. गोल्डफ्लेक में चरस भरी जाती और प्रदेश की राजनीति से लेकर माधुरी दीक्षित के ‘अमृत-कलशों’ जैसे विविध विषयों पर बब्बन भैया का एकल व्याख्यान होता. महीने के आरंभ में जब लड़कों के घरों से मनीऑर्डर आते तो कभी-कभार ‘रसरंजन’ का भी आयोजन रखा जाता. ऐसे आयोजनों को बब्बन भैया ने ‘कॉन्फिडेंस बिल्डिंग सेशन’ का नाम दे रखा था. अब सी.पी. के माली हालात तो ऐसे थे नहीं कि वे इन ‘आत्मबल उत्थान सत्रों’ की सदस्यता शुल्क का बोझ वहन कर पाते लेकिन इसे बब्बन भैया की नज़रे-इनायत ही कहिये की उनको इन ‘सत्रों’ में भागीदारी के लिए सीधे ‘वाइल्ड कार्ड एंट्री’ मिल गई थी. सी.पी. को सबक का पहला दिन आज भी याद है. बब्बन भैया ने उनकी तरफ गोल्डफ्लेक की डिबिया बढाई थी. लेकिन सी.पी. तो सिगरेट को छूने से भी ऐसे घबरा रहे थे गोया वह बिजली का नंगा तार हो. तब बब्बन भैया ने कितना पुचकारते हुए समझाया था, “कोई डरने की बात नहीं है बेटा. बजरंगबली ने दुनिया में दो ही चमत्कारी चीजें बनाई हैं जो इस्तेमाल करने के बाद साइज़ में छोटी हो जाती हैं. पहली तो तू भी जानता है जो हमारी बॉडी में है, और दूसरी यह गोल्डफ्लेक. सो इतनी प्यारी चीज से कैसा परहेज़ बबुआ ?”

      सी.पी. तो बब्बन भैया के आभा-मंडल गिरफ्त में थे ही सो उनकी हौसलाअफजाई का उनपर फ़ौरन असर हुआ. इधर उन्होंने होठों से सिगरेट लगाया उधर बब्बन भैया लाइटर जला कर तैयार. सी.पी. ने खोंखते हुए पहला कश खींचा और तत्क्षण गुरुपरंपरा में दीक्षित हो गए. पूज्यपाद बब्बन भैया ने ही उनको यह गुरुमंत्र दिया था की बीसवीं सदी में मनुष्ययोनि से मुक्ति के केवल दो मार्ग हैं – पहला तो नई दिल्ली के धौलपुर हाउस से होकर गुज़रता था और दूसरा, किसी शोख-कमसिन बामलोचना के दिलदरिया से होकर. नई दिल्ली का धौलपुर हाउस तो फ़िलहाल दिल्ली दूर था लेकिन पुष्पारानी का वेश धरे आँगन की मुंडेर पर बार-बार आकर ललचाने वाला मुक्ति का वैकल्पिक मार्ग साक्षात उनके सामने था.

      सी.पी. प्यार में मुब्तिला क्या हुए, उनकी तो दुनिया ही बदल गई. हर वक़्त ज़ेहन में पुष्पारानी के सतरंगी ख्याल स्लो मोशन में आते-जाते रहते. पढाई के बहाने वे खिड़की से लगी अपनी मेज़ पर घंटों जमे रहते और आँगन वाली मुंडेर पर अपनी बकुल दृष्टि जमाये रहते. पुष्पारानी का छज्जे पर आना-जाना लगा रहता. कभी गीले कपड़े डालने के बहाने, कभी बाल सुखाने के बहाने और कभी बेवज़ह भी. ऐसे दुर्लभ क्षणों में सी.पी. का अंतर्मन और यदा-कदा उनका अंतर्वस्त्र प्रिया-दर्शन के सुखातिरेक में तर हो जाता था. गाहे-बगाहे इस उपक्रम में पुष्पारानी का तीरे-नज़र सी.पी. से टकरा जाता और वे हडबडा कर झूठमूठ सामने पड़ी किताब के पन्ने उलटने लगते. अंखियों की लंगड़ी मार कर पुष्पारानी तो छज्जे से अंतर्धान हो जातीं लेकिन सी.पी. के मस्तिष्क में डोपामाईन  और एड्रीलिन की मात्रा खतरे के स्तर को पार करने लगती.

      बहरहाल यह सिलसिला कुछेक महीने इसी तरह चलता रहा लेकिन धीरे-धीरे सी.पी. प्रेम निवेदन की इस मूक-बधिर स्थिति से डिप्रेस्ड होने लगे. वे तो अमोल पालेकर के अंदाज़ में पुष्पारानी के साथ खुसरोबाग में घूमना-फिरना चाहते थे... गंगाजी में बोटिंग करते हुए हँसना-बतियाना चाहते थे... उनके भीतर का रसगंध महसूस करना चाहते थे. लेकिन इस प्रेमकथा का सबसे बड़ा लोचा यह था कि एक ही छत के नीचे रहने के बावजूद पुष्पारानी उनकी पहुँच से बहुत दूर थी. एकदम आसमान के उस चाँद की तरह जिसे देखा तो जा सकता था लेकिन छुआ नहीं जा सकता था. सी.पी. निरुपाय थे लेकिन वे जन्मजात आशावादी भी थे. उनको पक्का विश्वास था कि एक दिन धौलपुर हाउस में उनकी फरियाद सुनी जाएगी और उस दिन वे ‘पीली बत्ती वाले अपने सफ़ेद रंग के जादुई घोड़े’ पर सवार होकर आयेंगे और अपनी प्राणप्रिया को दुष्ट तिलोकचंद के इस अभेद्य किले से छुड़ा ले जायेंगे.

      तो ऐसी ही कपोल कल्पना में सी.पी. के विरह के दिन कट रहे थे. लेकिन कभी-कभी जब इश्क जोर मारता तो सब्र की हदें टूटने लगतीं. ऐसा कोई जरिया नहीं था कि अपना पैगामे –मुहब्बत पुष्पारानी तक महफूज़ पहुँचाया जा सके. इंटर दूसरी बार फेल होने के बाद उनकी पढाई पिछले साल ही बंद हो चुकी थी. लिहाजा वे कभी-कभार ही घर से बाहर निकलती थीं और वह भी बहन कुसुम कुमारी या अपनी खुर्राट माँ को साथ लेकर. लॉज में तो किसी मौके या एकांत का तसव्वुर ही बेमानी था. नीचे और ऊपर की मंजिल के बीच एक अदृश्य दिवार थी जिसे पार करना किरायेदारों के लिए निषिद्ध था. इस सख्त नियम का एक ही अपवाद था और वे बब्बन भैया थे. सी.पी.के लिए भी वे ही उम्मीद की इकलौती किरण थे...इकलौते तारणहार जो उनकी पीड़ा को हर सकते थे.

      बब्बन भैया भी ‘न्यू एज’ गुरु थे. ‘क्या लेकर आये थे जो क्या लेकर जाओगे’ जैसे पलायनवादी और भ्रामक दर्शन में उनका कतई विश्वास नहीं था. वे हमेशा चेलों को कलियुग में चलने चार सिक्कों – ‘साम, दाम, दंड और भेद’ के व्यवहारिक मार्ग पर चलने की नसीहत देते. अब सी.पी. के सामने मुश्किल यह थी कि गुरूजी को मन की पीड़ा बताई कैसे जाए. उनका कस्बाई संस्कार इसके आड़े आ रहा था. लेकिन बब्बन भैया भी आख़िर गुरु ठहरे, चेले का कष्ट उनसे भला कैसे छुपा रह सकता था. ज़्यादातर वक़्त सी.पी. अपने कमरे में शुतुरमुर्ग की तरह औंधे मुँह पटाए रहते. हर वक्त उनके चेहरे से एक अजब तरह की बेनियाज़ी और उदासी सी टपकती रहती गोया टोक भर देने से अब रोये कि तब रोये. बब्बन भैया को जिंदगी का तजुर्बा था. सी.पी. के कष्ट को वे फ़ौरन ताड़ गए लेकिन इस कष्ट के मूल में प्रेम है, इसका इल्म उनको भी नहीं था.

      खैर...एक न एक दिन बात तो खुलनी ही थी और वह ‘एक दिन’ भी ज़ल्दी ही आ गया. महीने की अभी शुरुआत हुई थी और इतवार का दिन था. ज़्यादातर लड़कों के घरों से ‘सुख-संदेशे’ अर्थात मनीऑर्डर आ चुके थे. इसी ख़ुशी में शाम को बब्बन भैया के कमरे में ‘रसरंजन सह आत्मबल-उत्थान-सत्र’ का आयोजन रखा गया था. बब्बन भैया ने अपने हाथों से मीट-भात पकाया था. चखने में भुनी हुई कलेजी और टमाटर-खीरे का सलाद था. साथ में ग्रीन लेबल के दो पूरे खम्भे और गोल्डफ्लेक की एक भरी हुई डिबिया. देर शाम जलसा शुरू हुआ. बब्बन भैया के खास न्योते पर सी.पी. भी आये क्योंकि इस सत्र की सबसे ज़्यादा ज़रूरत उस वक़्त उनको ही थी. दूसरे दौर के बाद जब महफ़िल अपने उरूज़ पर थी तो अचानक बब्बन भैया को अपने प्यारे चेले का ध्यान आया.

      “बेटा छेदी, सुनते है आजकल टेंशन में हैं. कोई खास परेशानी ?” गुरु ने हौले से चेले की दुखती रग पर अपनी आत्मीयता का हाथ फिराया.

      जवाब में सी.पी. थोड़ी देर खामोश रहे फिर अचानक उनके गले से ‘बब्बन भैया SS’ जैसी कुछ घरघराती हुई और कातर सी चीख निकली और वे अचानक बुक्का फाड़ कर रोने लगे. इस अप्रत्याशित और नाटकीय स्थिति से पूरी मंडली सकते में आ गई. बब्बन भैया भी आवाक रह गए. बहरहाल उन्होंने संयम से काम लिया और सी.पी. को दिलासा देने लग गए. लेकिन सी.पी. का  रुदन कमने की बजाए लगातार बढ़ता ही जा रहा था. आख़िरकार बब्बन भैया ने अपने तजुर्बे का आला लगाया. चेले के माथे को किसी कुशल वैद्य की तरह छूकर देखा, उनकी नब्ज़ टटोली फिर मंडली की ओर मुखातिब होकर बोले, “प्रेम का आघात लगता है.... शॉक बिकॉज़ ऑफ़ फॉलिंग इन लव.”

      बब्बन भैया के डायग्नोसिस पर मंडली ने चैन की सांस ली.

      “कौन लड़की है ? नाम क्या है ?.” बब्बन भैया ने नरमी से पूछा.

      सी.पी. चुप.

      “लौंडिया साथ में पढ़ती है ?”

      सी.पी. चुप. सिर्फ़ सुबकने की आवाज़.

      बब्बन भैया समझ गए कि मामला संजीदा है. उन्होंने मंडली को इशारे से ‘तखलिया’ कहा. एक एक कर सभी चेले कमरे से बाहर निकल गए. उन्होंने दरवाज़े की कुंडी भीतर से चढ़ा दी और मुड़ कर सी.पी. को देखा, “अब बतलाओ कौन है ?” .

       सी.पी. फिर भी चुप. उनकी हिम्मत दरअसल जवाब दे रही थी.

      “अबे ससुरे, मुँह नहीं खोलोगे तो हम भी क्या उखाड़ लेंगे ?” अब बब्बन भैया का भी सब्र जवाब दे रहा था. लेकिन हद ये हो गई कि उनकी घुड़की खाने के बाद भी सी.पी. के मुँह से आवाज़ नहीं फूटी. अलबत्ता कमोबेश एक बेखुदी से आलम में उनका हाथ अपनी कमीज़ की जेब तक ज़रूर गया और एक गुलाबी लिफाफा निकाल कर उन्होंने बब्बन भैया की हथेली पर रख दिया. लिफाफे में पुष्पारानी के नाम एक ख़त था जिसे उन्होंने ‘लिखता हूँ ख़त खून से स्याही न समझना’ जैसा भाव ह्रदय में रखते हुए पहले ही से लिख कर तैयार रखा था. बब्बन भैया ने लिफाफा खोला और उस आठ पन्ने की ‘छोटी-सी’ चिट्ठी को ध्यान से पढ़ने लगे. इधर सी.पी. का हलक सूखा जा रहा था. चिट्ठी को पढ़ चुकने के बाद बब्बन भैया ने उसे अपनी जेब के हवाले किया और सी.पी. को देखकर आत्मीयता से मुस्कुराए.

       “धांसू लिखे हो बेटा..एकदम सॉलिड.”

       “भैया जी, हम दिल से चाहते हैं उनको. सीरियसली बोल रहे हैं”. बब्बन भैया की हमदर्दी से सी.पी. फिर से जज़बाती होने लगे.

       “हम समझते हैं बेटा सबकुछ. तुमने अच्छा किया कि हमको बता दिया.”

        “तब कहाँ जाते भैया जी... अब तो आप ही कुछ करिए.” सी.पी. फिर से सुबकने लगे.

       “घबराओ मत. मैटर अब हमारे अंडर में है, हमीं रास्ता भी निकालेंगे. अभी जाकर आराम से सोइए. कल देखेंगे.”

       एक मुद्दत बाद उस रात सी.पी. चैन की नींद सोये. अपनी नियति अपने गुरुदेव के हाथों सौपने के बाद अब वे निर्द्वंद और संशय मुक्त थे. अब तो सद्गुरु के चमत्कार की प्रतीक्षा थी. उस रोज़ पूरी रात पुष्पारानी स्लो मोशन में उनके ख्वाबों में आती-जाती रहीं. बब्बन भैया भी अपने वादे पर एकदम खरे उतरे. अगली सुबह ही उन्होंने अपना चमत्कार दिखा दिया. सी.पी. अभी सोये ही हुए थे. रात की खुमारी अभी ठीक से उतरी नहीं थी. अचानक किसी ने दरवाज़ा खटखटाया. आँखें मलते हुए जब कुंडी खोली और देखा तो खुद बब्बन भैया थे. सी.पी. थोड़ा अचकचाए लेकिन भीतर आने की बजाय उन्होंने बाहर से ही आवाज़ दी.

      “मुँह-हाथ धोकर ज़रा हमारे कमरे में आइये छेदी बाबू.”

      “जी, अभी आये भैया जी.” सी.पी. ने जवाब दिया.

      ज़ल्दी-ज़ल्दी उन्होंने अपने मुँह पर पानी के छींटे मारे, अंगोछे से मुँह पोछा और आईने के सामने खड़े होकर अपने बाल संवारें. सुबह-सुबह बब्बन भैया के बुलावे से वे थोड़ा सशंकित थे लेकिन उनके मन में रह-रह कर लड्डू भी फूट रहे थे. जैसे-तैसे बदन पर कमीज़ डालकर जब वे बब्बन भैया के कमरे में पहुंचे तो देखते हैं कि पूरी मंडली वहां पहले से उपस्थित थी. बब्बन भैया ने इशारा किया तो वे सामने की खाली कुर्सी पर बैठ गए. इससे पहले कि कोई कुछ कहता या सी.पी. माजरे को समझ पाते, वे क्या देखते हैं कि सर को थोड़ी अदा में झुकाए कमरे में पुष्पारानी ने प्रवेश किया. उनकी एक झलक से ही सी.पी. के मस्तिष्क में डोपामाईन और एड्रीलिन का स्तर तेज़ी से बढ़ने लगा. लेकिन पुष्पारानी अकेली नहीं थीं. उनके पीछे-पीछे उनकी हस्तिनीरूपा माता जी भी थीं और जिनकी लाल-लाल आँखों से उस वक़्त खून टपक रहा था. उनके हाथ में वही गुलाबी लिफाफा था जिसे उन्होंने बहुत विश्वास के साथ पिछली रात बब्बन भैया के हाथों सौंपा था. लिफाफे पर नज़र पड़ते ही सी.पी. हक्के-बक्के रह गए. इसका मतलब बब्बन भैया ने विश्वासघात किया था ! यह सोचते ही सी.पी. का दिमाग सुन्न हो गया. एक तरह की बेखुदी में उनको बस

इतना याद है कि पुष्पारानी और उनकी माता जी ने भी पास पड़ी कुर्सियों पर आसन ग्रहण किया. तभी बब्बन भैया की आवाज़ सुनाई पड़ी. वे माताजी से मुखातिब थे, “आंटीजी, आप एकदम गुस्सा मत कीजिए. आपको शुगर है. छेदी बाबू अभी बच्चे हैं. इस ऊम्र में कभी-कभी ऐसी चूक हो जाती है लेकिन हम हैं न, हम समझाते हैं इनको.” इतना कहने के बाद उन्होंने सी.पी. के कंधे पर हाथ रखा, “देखिये, अभी आपकी पढ़ने –लिखने की ऊम्र है. ऐसे कुविचारों से बचिए. हमसब यहाँ एक फॅमिली की तरह हैं..यह सब सोचना भी पाप है. खैर ... खाइए कसम कि आगे से ऐसी गलती नहीं होगी और रफा-दफा कीजिये मैटर को.”

      सी.पी. को समझाने के बाद बब्बन भैया एक पल के लिए रुके, फिर अपनी कमीज़ की जेब से टटोल कर कोई लाल रंग की धागेनुमा चीज निकाली और उसे पुष्पारानी की हथेली पर रख दिया. सी.पी. कुछ चैतन्य हो पाते इससे पहले ही किसी चेले ने उनका दायां हाथ पकड़ कर पुष्पारानी की ओर बढ़ा दिया. बब्बन भैया ने संकेत किया और पुष्पारानी ने बड़े निरपेक्ष भाव से वह धागा सी.पी. की कलाई में लपेट दिया. सी.पी. निश्चेत बैठे रहे. बस बब्बन भैया की वाणी रह-रह कर उनके कानों तक पहुँच रही थी.

      “चलिए, अभी से पुष्पारानी आपकी बहन समान हुईं.”

      “बड़े धरम का काम हुआ भैयाजी. संयोग देखिए, छेदी बाबू की कोई बहन नहीं थी और पुष्पा दीदी को भाई. आप के परताप से फैमिली कम्पलीट हुई.” किसी चेले की आवाज़ थी.

       सी.पी. उजबक की तरह बस शून्य में ताके जा रहे थे.

       रक्षाबंधन के इस सादे-संक्षिप्त समारोह की समाप्ति के तत्काल बाद पुष्पारानी अपनी हस्तिनीरूपा माता जी के साथ कमरे से प्रस्थान कर चुकी थीं. एक-एक कर पूरी मंडली भी रुखसत हो चुकी थी. बस रह गए बब्बन भैया और सी.पी. जो अभी भी उसी तरह निश्चेत बैठे थे. बब्बन भैया कुछेक मिनट तो उनको घूरते रहे फिर अचानक तकिये के नीचे से अपना तमंचा निकाल लिया और सीधे सी.पी. के माथे पर तान दिया.

     “स्साले कुजात कहीं के...! इतने दिनों से छत्ते की रखवाली हम कर रहे हैं और अब शहद चाटने के लिए तू मुँह लपलपा रहा है ?”

     सी.पी. कुछ नहीं बोले.

     “हमने ज़रा पुचकार क्या लिया कि अपनी जात और औकात दोनों ही भूल गए ?”

     सी.पी. कुछ नहीं बोले.

     “आगे से उसके कमरे की तरफ आँख भी उठाया तो यहीं आँगन में गाड़ देंगे. वो ऊपर छज्जे से तेरी समाधि पर थूकती रहेगी और तेरी आत्मा को ठंढक मिलती रहेगी.”

      सी.पी. तब भी कुछ नहीं बोले लेकिन पता नहीं क्यों उस वक़्त बब्बन भैया के स्वाभाव की शूद्रता देख कर उनको घृणा नहीं हुई न क्रोध आया और न उनके तमंचे को देखकर डर ही लगा. अलबत्ता एक तरह की विरक्ति ज़रूर हुई. इस वाकये ने उनका परिचय इस सच से करा दिया की उनकी जाति उनको दाखिले या नौकरी की सुविधा भले दे सकती है लेकिन अपनी इसी जाति के कारण वे आज भी मित्रता या प्रेम जैसे आधारभूत और जन्मसिद्ध मानवीय संबंधों के लिए पहली पसंद नहीं हैं. बब्बन भैया की छद्म अंतरंगता ने उनको यही सबक सिखाया. तो इस प्रकार ‘कासिद की लाश आई है ख़त के जवाब में’ के अंदाज़ में सी.पी. की इकलौती प्रेमकथा का पटाक्षेप हो गया. अब आपकी मर्ज़ी कि आप इस अंत को हास्यास्पद, क्रूर या करुण, जो चाहें कह लें... क्योंकि इस निष्कर्ष तक आजतक सी.पी. खुद भी नहीं पहुँच पाए.

      इस घटना के हफ्ते भर बाद ही सी.पी. ने खुल्दाबाद का वह लॉज छोड़ दिया और तेलियरगंज जैसे दूरदराज़ के इलाक़े में एक पुराने मकान की बरसाती में रहने आ गए. पूज्यपाद बब्बन भैया से फिर कभी मुलाकात नहीं हुई और पुष्पारानी तो इतनी ज़ालिम निकलीं कि कभी सपने में भी नहीं आईं. धौलपुर हाउस वाला सपना भी कबका ध्वस्त हो चुका था. सामने फाइनल इयर के इम्तेहान मुँह बाए खड़े थे जिन्हें जैसे-तैसे पास करना था.

      छह महीने बाद इम्तेहान जब शुरू हुए तो पहले पेपर के दिन ही मंडली के एक लड़के से मुलाक़ात हो गई. उसी ने बताया कि ‘रक्षाबंधन उत्सव’ के अगले महीने ही बब्बन भैया एक रात पुष्पारानी को लेकर चम्पत हो गए. लुटी-पिटी पुष्पारानी तो खैर महीने भर बाद ही वापस लौट आईं लेकिन बब्बन भैया का कुछ अता-पता नहीं चला. यह सब सुन कर सी.पी. के मन में एक टीस-सी उठी थी लेकिन वह जानते थे कि बदनाम हो चुकी पुष्पारानी के लिए वे अभी भी स्वीकार्य और उपयुक्त नहीं थे. आख़िर दुसाध जो ठहरे. जाते-जाते खबरची ने चुटकी भी ली, “जानते हैं छेदी बाबू, बब्बन भैया की फ़रारी के बाद पुष्पारानी जी आजकल ‘टू लेट’ की तख्ती लगाये घूम रही हैं. आप चाहें तो अब खुल्दाबाद लौट सकते हैं.”       

      जवाब में सी.पी. एक फीकी हँसी हंस कर रह गए.

      खैर... जैसे-तैसे इम्तेहान ख़त्म हो गए, जैसे तैसे सी.पी. बी.ए. पास कर गए और जैसे-तैसे बनारस के रेल कारखाने में एक खलासी के रूप में उनकी नौकरी भी लग गई. धौलपुर हाउस देखने का उनका सपना तो पूरा नहीं हो पाया लेकिन रेल की नौकरी मिलने से उनके बाबू नथुनीराम की जैसे जनम जनम की साध पूरी हो गई. बहाली वाले दिन जब सी.पी. ‘पेपर वेरिफिकेशन और मेडिकल’ के लिए बनारस पहुंचे तो बोर्ड के अधिकारियों ने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी की उनकी बी.ए. की डिग्री को कोई तवज्जो नहीं दिया. उनसे सिर्फ़ उनका जाति प्रमाणपत्र मांगा गया और चालीस किलो का वज़न उठाने के लिए कहा गया. सी.पी. ने क्लास फोर में ज्वाइन तो कर लिया लेकिन अपनी डिग्री का यह तिरस्कार उनको लम्बे समय तक कचोटता रहा. उनके चार्जमैन मिश्रीलाल उनकी इस स्वाभाविक कुंठा को अच्छी तरह से समझते थे. आखिर एक ही बिरादरी के जो ठहरे. यूनियन की राजनीति में मिश्रीलाल की अच्छी पैठ थी और अपने पद और यूनियन की सक्रियता के कारण वे अपनी जाति में बड़े सम्मानित माने जाते थे. वे सी.पी. को हमेशा विभागीय परीक्षा में बैठने के लिए प्रोत्साहित करते रहते थे.

      बहरहाल कारखाने की फाउंड्री में पांच वर्षों तक अपनी हड्डी गलाने के बाद आख़िरकार सी.पी. विभागीय परीक्षा पास कर गए और खलासी से ग्रेड थ्री क्लर्क बन गए. उनका तबादला मुगलसराय डिवीज़नल ऑफिस के क्लेम सेक्शन में कर दिया गया. नथुनीराम के लिए यह जीवन का सबसे सुखद दिन था. भावातिरेक में लखपतिया देवी ने भी विन्घ्यावासिनी माता को अंचरा पसार कर एक जोड़ी पाठा कबूला. लेकिन सी.पी. की इस पदोन्नति की सबसे ज्यादा प्रसन्नता अगर किसी को थी तो वे मिश्रीलाल जी थे. बहरहाल उनकी इस प्रसन्नता का रहस्य भी ज़ल्दी ही ज़ाहिर हो गया जब एक रविवार वे नथुनीराम के ‘डी टाइप’ क्वार्टर में सुबह-सुबह शुद्ध घी की बनी बरफी के एक बड़े से डिब्बे के साथ हाज़िर हुए. अपनी बिरादरी के इतने बड़े आदमी को अपने दरवाज़े पर देख नथुनीराम भीतर से बहुत गदगद थे. पहले तो उन्होंने मिश्रीलाल की बढ़िया से आवभगत की और फिर कष्ट करने यानि पधारने का प्रयोजन पूछा. मिश्रीलाल ने भी पहले तो नथुनीराम की सज्जनता और और सी.पी. की मेधा जैसी दीन-दुनिया और व्यवहारिकता की बातें की फिर आहिस्ते से सी.पी. के साथ अपनी ग्रेजुएट सुपुत्री रंजना के पाणिग्रहण का प्रस्ताव रख दिया. वे अपने साथ रंजना कुमारी की एक रंगीन तस्वीर भी लेकर आये थे. नथुनीराम और लखपतिया देवी ने तस्वीर का अवलोकन किया और संतुष्ट हुए. रंजना कुमारी देखने में सुन्दर होने के साथ-साथ सुघड़ और पढ़ी-लिखी भी थी. सी.पी. से जब उनकी राय पूछी गई तो उन्होंने विवाह के लिया न ‘हाँ’ कहा न ‘ना’ कहा. इससे कोई फर्क भी नहीं पड़ा क्योंकि उसी साल अगहन के लगन में दोनों का ब्याह संपन्न हो गया. रंजना कुमारी के लिए भी यह विवाह शुभ फलकारक रहा. अगले ही वर्ष वे भी मिडिल स्कूल में टीचर लग गईं. एक साल उपरांत ही दोनों एक सुन्दर-स्वस्थ बेटी के माँ-पिता भी बन गए. लिहाजा कहा जा सकता है कि दोनों का दाम्पत्य कुल मिला कर सफल और सुखद है. नथुनीराम एक संतुष्ट और तृप्त जीवन जीने के बाद अब सद्गति को प्राप्त हो चुके हैं. लखपतिया देवी अभी जीवित हैं और अपने परिवार और धरम-करम की व्यस्तताओं के बीच स्वस्थ और सुखी हैं.

 

      अब आप सोच रहे होंगे कि इस पूरे वृतांत में सी.पी. की डिप्टी कलेक्टरी वाली बात तो गोल ही हो गई, तो ऐसी बात नहीं है. जिस दिन सी.पी. नई टाई और ब्रीफ़केस से विभूषित होकर दफ़्तर आये थे और उनकी इस हिमाकत पर दफ़्तर में सनसनी फैल गई थी उसके तक़रीबन महीने भर बाद का वाकया है. सी.पी. पी.सी.एस. का इंटरव्यू दे चुके थे और अभी दो दिन पहले ही उनका रिजल्ट भी आ चुका था. बदकिस्मती से वे मेरिट लिस्ट में नहीं आ पाए थे. रिटेन में उनके पास होने की खबर की तरह यह खबर भी उनसे पहले ही उनके दफ़्तर पहुँच चुकी थी. उनके अधिकांश सहकर्मियों ने ज़ाहिरन इस बात से राहत की सांस ली. सबसे पहले श्रीवास्तव जी ने फुर्ती दिखाई. गुप्ताजी की टेबुल पर लपककर पहुँचते हुए अंडकोष वाली अपनी पुरानी सूक्ति का स्मरण कराते हुए वे बोले, “क्यों गुप्ता जी, हमने कुछ गलत कहा था क्या ?”

      “नहीं महाराज, सोलहो आने ठीक कहा था. इनका उत्पात देखिये, इतना कंजेशन हो गया है इनलोगों की वज़ह से कि हमारे-आप के लिए तो प्रमोशन की कोई गुंजाईश ही नहीं बची. ग्रेड थ्री में आये थे और चौबीस-पच्चीस साल में ग्रेड वन भी नहीं बन पाए, ओ.एस. की तो बात ही छोड़िये.” गुप्ता जी आज कुछ ज्यादा मुखर थे. तब तक पांडे जी भी शौचालय से निकल कर आ चुके थे.

      “अरे श्रीवास्तव, हमने भी अपनी जवानी के दिनों में एक फिलम देखी थी जिसमें मुररिया साला हीरो बनने जाता है और बाबा जी का घंटा हाथ में लेकर लौटता है.” कान पर से जनेऊ उतारते हुए वे भी चर्चा में शामिल हो गए.

      पांडे जी क्लेम सेक्शन में अकाउंटेंट हैं और अपने शौचालय-प्रेम के कारण पूरे डिवीज़नल ऑफिस मे मशहूर हैं. उनको जानने वाला हर आदमी यह जानता है कि पांडे जी अगर अपनी कुर्सी पर नहीं हैं तो यक़ीनन वे चाय-पानी के लिए कैंटीन में नहीं बल्कि चिंतन-मनन और विश्राम के लिए शौचालय में होंगे. यह शौचालय-प्रेम दरअसल उनको अपने स्वर्गीय पिताजी से उत्तराधिकार में मिला था. उनके पिताजी भी रेलकर्मी ही थे लेकिन तब अंग्रेजो का ज़माना था. अंग्रेज़ अफसर काम निकालने के मामले में इतने सख्त हुआ करते थे कि जहाँ किसी कर्मचारी को बेवजह बैठे या आपस में गपशप करते देख लेते तो कोड़े से उनकी मिजाजपुर्सी करते थे. सो उनके लिए सुस्ताने की एक ही महफूज़ जगह थी और वह ज़गह थी शौचालय. जो कर्मचारी जितनी दफा हाजत का बहाना बना सकता था वह उतना ही अधिक विश्राम लाभ प्राप्त कर सकता था. खैर, अंग्रेज़ तो चले गये, पांडे जी के अनुभवी पिताजी भी परलोक सिधार गए लेकिन उनका बताया यह नुस्खा आज भी पांडेजी के काम आ रहा है. दो बार इसी कारण से उनको मेमो भी मिल चुका है लेकिन शौचालय के प्रति उनकी यह आसक्ति आज भी जस की तस बनी हुई है.

      बहरहाल दो-तीन दिनों बाद की बात है. रिजल्ट आने के बाद आज सी.पी. पहली बार दफ़्तर आये थे. लाजिम था कि वे ज़रा मायूस थे. लिहाजा उनका शरीक़े-गम होने के बहाने उनके सहकर्मियों ने आनन-फानन में शोक सभा की तर्ज़ पर एक ‘अफ़सोस सभा’ का आयोजन कर डाला. सी.पी. हमेशा की तरह अपनी उसी जगह पर बैठे थे जिसे दफ़्तर में ‘राहू का घर’ कहा जाता था और जैसे ही लंच ऑवर हुआ, सबने उनको चारो तरफ से घेर लिया.

      “हायर पोस्ट के लिए तो घोर करप्शन हो गया है साहब. बिना जुगाड़ या चढावा के कोई उपाय ही नहीं. मेरिट तो तेल लेने गया अब.” तिवारी जी ने सहानुभूति से ओत-प्रोत स्वर में नमक भर आवेश मिलाते हुए अफ़सोस-सभा का विधिवत उद्घाटन किया.

      “सब हरि-ईच्छा है भाई, नहीं तो आज हमसब भी ख़ुशी-ख़ुशी सी.पी. बाबू का फेयरवेल कर रहे होते.” अफ़सोस जताने के इस ‘रिले रेस’ में तिवारी जी के हाथ से बैटन लपकते हुए इस बार गुप्ता जी बोले.

      सी.पी. सहानुभूति की भाषा में लिपटे तंज़ को बाखूबी समझ रहे थे लेकिन एक संचिका को उलटते-पलटते हुए वे व्यस्त रहने का झूठा उपक्रम कर रहे थे.

      “कितनी सुन्दर टाई और अटैची खरीदी थी अपने सी.पी. बाबू ने. मगर दोनों की दोनों बेकार गईं.” व्यथा में आकंठ डूबी यह आवाज़ शर्मा जी की थी.

      “बेकार क्यों गई? सुना है, अपने डिप्टी साहब अगले महीने लिलुआ जा रहे हैं....ट्रान्सफर होकर. अपने सेक्शन की तरफ़ से क्यों न अटैची हम उनको गिफ्ट कर दें? हम भी सस्ते में निबट जायेंगे और सी.पी. बाबू का हेडेक भी खत्म. क्यों सी.पी. बाबू, है न सरल समाधान?” यह सुझाव श्रीवास्तव जी का था.

        प्रत्युत्तर में सी.पी. हलके से हँस कर रह गए.

       “लेकिन टाई को सहेज कर रखियेगा, इंटरव्यू की यादगारी रहेगी”, गुप्ता जी ने पूरी टीम को कनखी से देखते हुए कहा.

                  “सच पूछिए सी.पी. बाबू, तो आप हमारे लिए कभी किसी डिप्टी कलेक्टर से कम नहीं रहे.” ये शर्मा जी थे. “अब देखिये आपकी मैडम टीचर हैं. उनका और अपना वेतन जोड़ कर देखिये. डिप्टी कलेक्टर तो क्या उसके बाप को भी उतना नहीं मिलता होगा.” शर्मा जी ने अपनी बात का निहितार्थ समझाते हुए कहा”.   

       “सब ‘बाबा’ की महिमा है भाई.” रिले रेस का यह आखिरी लैप था और इस बार डंडा पांडे जी के हाथ में था, “अभी तो आप जवान हैं सी.पी. बाबू. इस बार नहीं तो अगली बार सेलेक्ट हो ही जायेंगे. आप ठहरे देश के विशिष्ट नागरिक...स्पेशल सिटीजन. डिप्टी कलेक्टर नहीं भी बने तो भी प्रमोशन लेकर आठ दस सालों में क्लेम सेक्शन के ओ.एस. तो बन ही जाइएगा.”                          

       पांडे जी की बात पर हर किसी ने सहमति में अपना-अपना सर हिलाया. सी.पी. जानते थे कि उनके सन्दर्भ में विशिष्ट नागरिक अर्थात स्पेशल सिटीजन का मतलब एस.सी. यानि दलित होता है. बहरहाल उन्होंने एक नज़र पांडे जी को देखा और बड़े विनम्र लहजे में बोले, “ हम तो सिर्फ़ बदनाम हैं पंडीजी, अब तो इस देश में ठाकुर-ब्राह्मण भी विशिष्ट नागरिक बनने के लिए बेचैन हैं. बस हरिजन कहलाने

से ऐतराज़ हैं उनको.”

       इस उलटवार से पांडे जी सकते में आ गये. उन्होंने घड़ी पर नज़र डाली. भोजनावकाश समाप्त हो चुका था और अब काम का समय शुरू होने वाला था. अचानक पेट में जोर की ऐठन के साथ उनको हाजत जाने की ज़रूरत महसूस हुई और वे कान पर जनेऊ चढ़ाते हुए शौचालय की ओर तेज़ी से लपके.

             

      और अंत में :                  

      इस पूरी कथा में एक छोटे से प्रसंग का ज़िक्र होने से रह गया है, हालाँकि मूलकथा से इस सियासी प्रसंग का कोई वास्ता नहीं. दरअसल सी.पी. का रिजल्ट आने के ठीक हफ्ते भर पहले लखनऊ में पहलवानी का शौक रखने वाले मास्टर साहेब की सरकार गिर गई. उनकी जगह भगवा पार्टी के समर्थन से महंगे कपड़े-जेवर और डिज़ाइनर हैंडबैग का शौक़ रखने वाली बहन जी प्रदेश की नई मुख्यमंत्री के रूप में सत्तानशीन हुईं. गठबंधन को यथासंभव टिकाऊ बनाने की गरज से एक रोज़ बहन जी ने समर्थन देने वाली पार्टी के  विधायक दल के नेता को राखी बांध कर उनको अपना मानस भाई घोषित कर दिया. खबरिया चैनलों के ज़रिये मौकापरस्ती के इस बेशर्म तमाशे को पूरे देश में लोगों ने देखा. लखनऊ में जिस रोज़ यह सियासी ड्रामा खेला गया, मुगलसराय में पांडे जी की अगुआई में सी-पी. के साथ हमदर्दी और अफ़सोस जताने का छिछोड़ा खेल भी उसी रोज़ खेला जा रहा था. हालाँकि, यह महज़ संयोग की बात थी.

      राजनीति में ‘रक्षाबंधन’ का यह फ्यूज़न उस वक़्त तो कोई खास कारगर साबित नहीं हुआ लेकिन बाद के वर्षों में इस चमत्कारिक प्रयोग ने अस्वाभाविक ही सही लेकिन एक नए तरह के चुनावी समीकरण को जन्म दिया जिसने सभी राजनीतिक भविष्यवाणियों और एक्जिट पोल को खारिज करते हुए अरसे बाद सूबे को एक पूर्ण बहुमत वाली स्थिर सरकार दी.

     बहरहाल इस नयी और बेमिसाल ईजाद के दोनों अहम किरदार यानि प्रदेश की नई मुख्यमंत्री दलित थीं और उनको समर्थन देने वाले उनके नये मानस भाई ब्राह्मण थे.

         ...और संयोग से, यह महज़ संयोग की बात नहीं थी

                              ***

सम्पर्क: प्रभात मिलिंद, 094357 -25739, ई-मेल- Prabhatmilind777@gmail.com

पेन्टिंग: सन्दली वर्मा

सन्दली वर्मा

टिप्पणियाँ

  1. भाषा,कथ्य और शिल्प की दृष्टि से एक बेहतरीन कहानी प्रभात जी।

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  2. भाषा,कथ्य और शिल्प की दृष्टि से एक बेहतरीन कहानी प्रभात जी।

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  4. जातिगत बुराइयाँ और वर्गगत वैमनस्यतायें भारतीय समाज की देह पर उगने वाले ऐसेे फोड़े की तरह हैं जिनपर बार-बार नश्तर लगाया जाना ज़रूरी है. यही ज़रूरी काम यह कहानी बहुत बारीकी से करती है.
    जब तक व्यक्ति की नीयत में फ़र्क़ नहीं आयेगा,तब तक समाज और समष्टि की मानसिकता नहीं बदलेगी. और, बिना मानसिकता में बदलाव के सिर्फ़ सरकार और क़ानून के स्तर पर तो इस बीमारी का ख़ात्मा हरगिज़ नहीं होगा. 'जाति' को अगर 'धर्म' के बर-अक्स रखें तो लगता है कि धर्म को तो फिर भी बदल लेने या पूरी तरह से छोड़ देने की गुंजाइश होती है पर 'निर्जात' होने का क्या रास्ता है ? जब तक हमारे भीतर निर्जात (casteless) होने की कोई चेतना विकसित नहीं होती, तब तक जाति भी धर्म की तरह एक विभाजक और विध्वंसक अवधारणा बनी रहेगी.
    सी.पी. की कहानी बिना आक्रामक हुए और बिना गलदश्रु हुए यह बात उम्दगी और खरेपन के साथ सामने रखती है. कहानी में संवादों का चुटीलापन और उसके व्यंगार्थ विषय को अभीष्ट की तरफ़ धकेलने में ज़बरदस्त भूमिका निभाते हैं.
    इस कहानी में एक अच्छा नाटक और एक अच्छी फ़िल्म बनने की भरपूर संभावना है.
    लेखक और ब्लाग-एडमिन,दोनो को बधाई !

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ग़ज़ल   जो अहले-ख़्वाब थे वो एक पल न सो पाए  भटकते ही  रहे शब् भर  ये  नींद  के साए  एक मासूम-सा चेहरा था, खो गया शायद हमें भी ज़ीस्त ने कितने नक़ाब  पहनाये  वो सुन न पाया अगरचे सदायें हमने दीं   न पाया  देख हमें  गरचे सामने आये  गुज़रना था उसे सो एक पल ठहर न सका  वो वक़्त था के मुसाफ़िर न हम समझ पाए    हमें न पूछिए मतलब है ज़िंदगी का क्या  सुलझ चुकी है जो गुत्थी तो कौन उलझाए  हमारी ज़ात पे आवारगी थी यूं क़ाबिज़  कहीं पे एक भी लम्हा न हम ठहर पाए बस एक  बात का 'कुंदन'बड़ा मलाल रहा  के पास बैठे रहे और न हम क़रीब  आये   ****************************

मो० आरिफ की कहानी-- नंगानाच

  नंगानाच                      रैगिंग के बारे में बस उड़ते-पुड़ते सुना था। ये कि सीनियर बहुत खिंचाई करते हैं, कपड़े उतरवाकर दौड़ाते हैं, जूते पॉलिश करवाते है, दुकानों से बीड़ी-सिगरेट मँगवाते हैं और अगर जूनियर होने की औकात से बाहर गये तो मुर्गा बना देते हैं, फर्शी सलाम लगवाते हैं, नही तो दो-चार लगा भी देते हैं। बस। पहली पहली बार जब डी.जे. हॉस्टल पहुँचे तो ये सब तो था ही, अलबत्ता कुछ और भी चैंकाने वाले तजुर्बे हुए-मसलन, सीनियर अगर पीड़ा पहुँचाते हैं तो प्रेम भी करते हैं। किसी संजीदा सीनियर की छाया मिल जाय तो रैगिंग क्या, हॉस्टल की हर बुराई से बच सकते हैं। वगैरह-वगैरह......।      एक पुराने खिलाड़ी ने समझाया था कि रैगिंग से बोल्डनेस आती है , और बोल्डनेस से सब कुछ। रैग होकर आदमी स्मार्ट हो जाता है। डर और हिचक की सच्ची मार है रैगिंग। रैगिंग से रैगिंग करने वाले और कराने वाले दोनों का फायदा होता है। धीरे-धीरे ही सही , रैगिंग के साथ बोल्डनेस बढ़ती रहती है। असल में सीनियरों को यही चिंता खाये रहती है कि सामने वाला बोल्ड क्यों नहीं है। पुराने खिलाड़ी ने आगे समझाया था कि अगर गाली-गलौज , डाँट-डपट से बचना

विक्रांत की कविताएँ

  विक्रांत की कविताएँ  विक्रांत 1 गहरा घुप्प गहरा कुआं जिसके ठीक नीचे बहती है एक धंसती - उखड़ती नदी जिसपे जमी हुई है त्रिभुजाकार नीली जलकुंभियाँ उसके पठारनुमा सफ़ेद गोलपत्तों के ठीक नीचे पड़ी हैं , सैंकड़ों पुरातनपंथी मानव - अस्थियाँ मृत्तक कबीलों का इतिहास जिसमें कोई लगाना नहीं चाहता डुबकी छू आता हूँ , उसका पृष्ठ जहाँ तैरती रहती है निषिद्धपरछाइयाँ प्रतिबिम्ब चित्र चरित्र आवाज़ें मानवीय अभिशाप ईश्वरीय दंड जिसके स्पर्शमात्र से स्वप्नदोषग्रस्त आहत विक्षिप्त खंडित घृणित अपने आपसे ही कहा नहीं जा सकता सुना नहीं जा सकता भूलाता हूँ , सब बिनस्वीकारे सोचता हूँ रैदास सा कि गंगा साथ देगी चुटकी बजा बदलता हूँ , दृष्टांत।     *** 2 मेरे दोनों हाथ अब घोंघा - कछुआ हैं पर मेरा मन अब भी सांप हृदय अब भी ऑक्टोपस आँखें अब भी गिद्ध। मेरुदंड में तरलता लिए मुँह सील करवा किसी मौनी जैन की तरह मैं लेटा हुआ हूँ लंबी - लंबी नुकीली , रेतीली घास के बीच एक चबूतरे पे पांव के पास रख भावों से तितर - बितर