दंगाइयों
में थे वे भी शामिल
जिनकी
अभी ठीक से मूंछें भी नहीं आईं थीं
चौदह
से सोलह साल के वे नौजवान
जिन्हें
कक्षाओं में होना था
पुस्तकालयों
में होना था
खेल
के मैदानों में होना था
सड़क
पर दिखे हाथ में सरिया और कट्टे लिए
उनमें
से एक इतना तेज दौड़ता था
जैसे
कोई धावक हो
अगर
उसे ओलिंपिक में भेजा जाता
तो
क्या ठिकानाए वह कोई पदक ले आता
कोई
कलाइयों को घुमाकर पत्थर फेंक रहा था
वह
एक अच्छा फिरकी गेंदबाज हो सकता था
कभी
वे भी चढ़ रहे थे शिक्षा की सीढ़ियां
पर
लौटना पड़ा बीच रास्ते से
जो
हाथ कूची थाम सकते थेए वे पेचकस चलाने लगे
बर्तन
मांजने या लोहा काटने.जोड़ने में लग गए
और
जब एक दिन उन्हें हथियार थमाए गए
उन्हें
पहली बार अहसास हुआ
वे
भी किसी लायक हैं
उनकी
भी कोई पूछ है
उन्होंने
गाड़ियों के शीशे उसी तरह
चूर.चूर
किए
जिस
तरह उनकी इच्छाएं चूर.चूर हुई थीं
उन्होंने
मकानों को उसी तरह राख कर देना चाहा
जिस
तरह उनके सपने राख हुए थे
वे
एक नकली दुश्मन पर अपना
गुस्सा
उतार रहे थे
उनका
असली दुश्मन बहुत दूर बैठा
उन्हें
टीवी पर देखता हुआ
मुस्करा
रहा था।
***
यह सभ्यता
महामारी
से नष्ट नहीं होगी यह सभ्यता
महायुद्धों
से भी नहीं
यह
नष्ट होगी अज्ञान के भार से
अज्ञान
इतना ताकतवर हो गया था
कि
अज्ञानी दिखना फैशन ही नहीं
जीने
की जरूरी शर्त बन गया था
वैज्ञानिक
अब बहुत कम वैज्ञानिक
दिखना
चाहते थे
अर्थशास्त्री
बहुत कम अर्थशास्त्री
दिखना
चाहते थे
इतिहासकार
बहुत कम इतिहासकार
कई
पत्रकार डरे रहते थे
कि
उन्हें बस पत्रकार ही
न
समझ लिया जाए
वे
सब मसखरे दिखना चाहते थे
हर
आदमी आईने के सामने खड़ा
अपने
भीतर एक मसखरा
खोज
रहा था
इस
कोशिश में एक आदमी
अपने
दोस्तों के ही नाम भूल गया
एक
को तो अपने गांव का ही नाम याद नहीं रहा
बुद्धि
और विवेक को खतरनाक
जीवाणुओं
और विषाणुओं की तरह
देखा
जाता था
जो
भयानक बीमारियां पैदा कर सकते थे
इसलिए
गंभीर लोगों को देखते ही
नाक
पर रूमाल रख लेने का चलन था
एक
दिन अज्ञान सिर के ऊपर बहने लगेगा
तब
उबरने की कोई तकनीकए कोई तरीका किसी
को
याद नहीं आएगा
तब
भी मसखरेपन से बाज नहीं आएंगे कुछ लोग
एक
विद्रूप हास्य गूंजेगा
फिर
अंतहीन सन्नाटा छा जाएगा।
***
महाबली का डर
वह
नींद में कोड़े फटकारता है
और
चिल्लाता है वैज्ञानिकोंए डॉक्टरों पर
.जल्दी
शोध पूरा करोए हमें दवा चाहिए
टीका
चाहिए इस बीमारी का
वह
परेशान है
अपने
देश में लाशों के लगते ढेर से नहीं
आकाश
की बढ़ती नीलिमा से
नदियों
के पारदर्शी होते पानी से
साफ
और भारमुक्त होती हवा से
वह
घबराया हुआ है कि
सड़कों
पर बेफिक्र दौड़ रहे हैं हिरण
फुटपाथों
पर धमाचौकड़ी मचा रहे ऊदबिलाव
संग्रहालय
का निरीक्षण कर रही पेंग्विनें
समुद्र
तट पर लौट आई हैं डॉल्फिनें
लौट
आए हैं लहरों के राजहंस
एक
शहर की जिंदगी में फिर से दाखिल हुआ एक पहाड़
जैसे
तीरथ करके वापस आए हों कोई बुजर्गवार
एक
गोरा आदमी बीमार काले आदमी के
आंसू
पोंछ रहा है
एक
मुसलमान हिंदू की अर्थी उठा रहा है
यह
कौन सी दुनिया है
कहीं
इसी में रम न जाए संसार
महाबली
सोचता है
कहीं
नीले आकाश के पक्ष में लोग
कल
घर से निकलने से ही इनकार न कर दें
वे
जुगनुओं के लिए रोज थोड़ी देर बत्तियां न गुल करने लगें
वे
पेड़ों की जगह अपनी इच्छाओं पर कुल्हाड़ियां न चलाने लग जाएं
वे
एक ही कमीज और पैंट में महीना न काटने लग जाएं
चिंतित
है महाबली
कि
कहीं विकास का पहिया थम न जाए
कहीं
युद्ध बंद न हो जाएं
अलकायदा
के लड़ाके हथियार छोड़कर
कहीं
अफगानी क्रिकेटरों से क्रिकेट न सीखने लग जाएं
किम
जोंग उन बाल मुंडवाकर किसी बौद्ध विहार में
ओम
मणि पद्मे हुम के जाप में न लग जाएं
वह डरा हुआ है
कि
लोग कहीं उससे डरना बंद न कर दें
कहीं
उसका नीला रक्त लाल न हो जाए!
***
संपर्कः
संजय कुंदन, सी.301, जनसत्ता अपार्टमेंट, सेक्टर.9, वसुंधरा, गाजियाबाद.201012,
मोबाइलः 9910257915, ईमेलःSanjaykundan2@gmail.com
पेन्टिंग:
सन्दली वर्मासन्दली वर्मा
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