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अरुण शीतांश की कविताएँ

 


 

अरुण शीतांश


खूंटा

 

मन भी खूंटा की तरह है

जहां गड़ जाए

वहीं रहे

 

नज़र खूंटी या खूंटा नहीं है

 

मन है

 

हम खूंटे संग खेलते थे बचपन में

कई खूंटे पर कई 

बैल,गाय, घोड़े,बकरी, बछड़े,...!

 

अब खूंटा का जमावड़ा नहीं है

बस बचा है थोड़ा मेले में 

नहीं है जमाना खूंटे का

 

खूंटी में कमीज भी नहीं टंगी है अब

कमीज़ में शालीनता थी

वह शालनीता भी नहीं रही

और उखड़ कर फेंका गए कमीज की तरह

खूंटी और खूंटा भी

 

अब बाजार में शर्ट है

रंगीन और रंगीला

वहां खूंटा नहीं है

 

खूंटी से मां आराम से पिता के पॉकेट से निकाल लेती थी दो- चार रुपए

अब ए टी एम है

बैंक हैं

 

हमारी भाषा में भी खूंटे की ध्वनि गायब कर दी गई है

वाक्य से संवेदना

अक्षर से क+अ=क

 

हम रास्ते में 

और रात में खूंटे के बारे में सोच रहे हैं

और जा रहें हैं गांव

धीरे-धीरे

 

पास के पेड़ के निकट भैंसें और गायें  चर रहीं हैं

एक चरवाहे के संग

 

उस चरवाहे का खूंटा 

किसी ने चुरा लिया है

और रो रहा है फुका  फाड़कर

 

अब गांव में न जाकर चरवाहे के पास जा रहा रहा हूं

कबीर को झोले में लटकाए ।

                                    ***

एक छोटे किसान का पहिरोपना

 

बारिश हो रही है

कोरोना काल में 

और वैसा मौसम भी है

 

यह कविता बड़े खेतों के मालिक के लिए नहीं है

नहीं है होटलों में रहने वालों के लिए

 

एक किसान 

किसान और मजदूर के बारे में सोचता है

बीज से निकलते अंकुर के बारे में बोलता है

खेत, बधार और बीज के बारे में सोचता है

बाल बच्चों और पत्नी के बारे में चिंतित रहता है

 

झुंड में गीत नहीं गाए जा रहें हैं

मोबाइल बज रहा है

फ़ूहड़ गीत के साथ

वहां पीपल का वृक्ष भी नहीं है

जहां नाश्ता ले जाता था 

दस बजे

और कौए पीछा करते हुए 

ठोकरें मारते थे 

सर पर

शायद इसीलिए बाल भी झड़ गए

 

खेत बाल बनने जैसे हो जाते थे

केवाल,दोमट्ट,ललकीऔर बलूआही माटी से सने हाथ पैर और कपड़े से सोंधी खुशबू आज भी है पास

बिल्कुल पास

 

अब भी जाता हूं खेत 

लाठी लेकर नहीं

कोई हथियार के साथ

 

सांप, चूहे और काले कीड़े दिखाई नहीं देते

और देते भी हैं तो बहुत कम

 

बहुत कम दिखाई देते हैं 

कुत्ते 

गांव में कम हो गए हैं

 

और नहीं दिखाई देती है

किसी की डोली

या कोई कन्या 

लाल - लाल साड़ी ब्लाउज पहने गिरती- भहराती आ रही नईहर 

बड़े कगार पर पांव रखती

दूर से ही सुनाती थी पायल की आवाज़

और दिखाई देता था अलत्ता

और अंगुठे के पास एक बिंदु बड़ा - सा

अलत्ता लगे सांवले पांव कहां गए

कहां गई मेरे देश की बेटी 

हो सकता है-

बाप को साइकिल से ला रही हो कहीं दूर से ढो़कर।

भारत भी कोरोना का घर हो गया है न बहन!

 

ओह,खेतों के पास पाम्ही वाले लड़के भी नहीं दिखाई दे रहें हैं

 

खेतों का पानी आरी(मेंड़) के पास जब आ जाता तो लगता 

धान भर गया कोठी में

 

बहुत जिरह करने के बाद

उस समय कोटा से किरासन मिलता था

किरासनवाला अपने को जिलाधिकारी समझता था

चश्मा लगाकर

रौब में बातें करता था

हम वहां दुबके हुए डर से जाते किरासन तेल लेने 

बाबूजी हमीं को भेज देते थे वहां

 

बाबूजी चावल बेच मरकीन का कुरता खरीद लाते 

परासी बाजार से

 

अब तीस - पैंतीस साल बाद

बिंदी तक नहीं आती 

मां की

न नया लूगा‌ 

 

मेरी तबीयत अच्छी नहीं है

जैसे खेत की तबीयत

किसान और मजदूर की तबीयत बिगड़ रही है 

तो देश की तबीयत कैसी होगी

 

हे राम ?....

 

 

***

 

किताबों में  हैं मछलियां

 

सन्नाटे की सभा में

रुद्र वीणा की आवाज़

आ रही है जैसे 

               रजत - मीन किताबों में

गा रहीं हों 

कोई राग

 

आरा जैसे शहर  में 

सिलवर फिश की संख्या बढ़ गई है

यहाँ हो सकता है मृदभांड

कोई पुरातात्विक अवशेष

 मषाढ़ गांव की तरह

कोई जलकर बुझा हुआ  दीया 

 

दियारे की लड़कियों ने देखी है

सिलवर फिश

वहाँ से पैदा हो फैल गई हैं

ग्लोबल विलेज में

 

अब एक पुस्तक ताक में है पाठक के लिए

और एक पाठक ने ओढ़ ली है 

चादर

 

बाहर घिर आए हैं बादल

पानी टप- टप चू रहा है

 ह्र्दय पर

किताब पर

असंख्य कीड़ों पर 

 

रोज रात को आयेगी मछली

और खा जाएगी

सुन्दर अक्षर, शब्द और वाक्य

 

शीशा की पारदर्शी दीवाल पर

नज़र सबकी होगी

मछली पर नहीं होगी

 

किताबों पर नहीं होगी

 

एक दिन  वे दुनिया को चट कर जाएंगी 

और हमें भी

 

हम और वे दुनिया के खत्म होने वाले जीव हैं

किताबें खत्म  नहीं होंगी !

 

एक किताब मिली है आज

समय का गुलाब है उसमें

खुशबू के साथ

ठीक उसकी बगल में 

सिलवर फिश है

चाँदी की तरह चमकती हुई

 

और अपना इतिहास लिखती हुई...

                ***

संपर्क: अरुण शीतांश, संपादक- देशज, मणि भवन, संकट मोचन नगर,  आरा-802301, मो. 9431685589.

 

पेन्टिंग: सन्दली वर्मा 

सन्दली वर्मा 

 

 

 

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