सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

यतीश कुमार की कविताएँ


 

यतीश कुमार

देह, बाज़ार और रोशनी - 1

घर के कोने में धूप 

कुछ धुँधली सी पड़ रही है

 

रंगीन लिबास में 

मुस्कुराहट 

नक़ाब ओढ़े घूम रही है 

 

उस गली में पहुँचते ही

वसंत पीला से गुलाबी हो जाता है

इंद्रधनुषी सतरंगी किरणें

उदास एकरंगी हो जाती हैं

 

वहाँ से गुज़रती हवा

थोड़ी-सी नमदार

थोड़ी-सी शुष्क 

नमक से लदी भारीपन के साथ

हर जगह पसर जाती है

हवा में सिर्फ़ देह का पसीना तैरता है 

 

दर्द और उबासी में घुलती हँसी 

ख़ूब ज़ोर से ठहाके मारती है 

 

सब रूप बदल कर 

मिलतेहैं वहाँ

 

सिर्फ मिट्टी जानती है

बदन पिघलने का सोंधापन

और बर्दाश्त कर लेती है

पसीने की दुर्गन्ध

 

 

मिट्टियों के ढूह पर

बालू से घर बनाता है 

एक आठ साल का बच्चा

और ठीक उसी समय

एक बारह साल की लड़की

कुछ अश्लील पन्नों को फाड़ती है

और लिखती है आज़ादी के गीत

पंद्रह अगस्त को बीते 

अभी कुछ दिन ही हुए हैं

        ***

देह, बाज़ार और रोशनी -

वक़्त से पहले 

अँधेरा दस्तक देता है

शाम होते-होते सभी खुद को

पेट के अंधेरे में गर्त कर लेते हैं

 

रंगीन कमरों से निकलती रोशनी

आँगन में धुँधली

और दरवाज़े पर अंधी हो जाती है

 

बच्चे जन्म तो लेते हैं

किस माँ के शुष्क स्तन ने

रोते बच्चे को चुप कराया

तय नही है

 

माँ मुट्ठियों में वक़्त को धकेलती

भोर के पहले पहर मिलती है

उस वक़्त दिखते हैं अजनबी चेहरे 

देहरी से बाहर भागते-फिरते 

 

दोपहर तक खिलखिलाहट में 

नमकीन मुस्कुराहट पनाह पाती है

और शाम होते ही 

सर्प की तरह फिर से फ़न फैलाती है

 

हर शाम ज़िंदगी

अपनी परिभाषा भूल जाती है

सिसकियों में घुली खिलखिलाहट

रात भर बेसुरा गीत गाती है

 

तभी रात कब्र में दफन

आठ साल का लड़का

कुछ बासी फूलों में सांस फूँकता है

और ग्यारह साल की लड़की के हाथों में सौंप देता है

कब्र के स्याह अँधेरें में

एक जोड़ीआँख चमक उठती है।

***

देह, बाज़ार और रोशनी - 3

असमय फूल अक्सर यहाँ खिल जाते हैं

फूल खिलना यहाँ एक दर्दनाक हादसा है

अगर खिल गए 

तो मसल भी दिए जाते हैं

खिलती मुस्कुराहट पर

सुर्ख़ छींटेपड़ जाती हैं

 

बदलते दृश्यों में 

अजीब सी बौखलाहट तैरती  है

भावनाएँ यांत्रिक बन

मुखौटे-सी लगाती हैं

 

पेट से पूरे बदन पर 

चढ़ती आग की भीएक उम्र होती है 

 

उम्र की साँझ पर तपिश 

पेट से ही चिपकी रह जाती है 

बदन पर नहीं उतरती

तब इंतज़ार मौत से भी बदतर लगता है

 

अकेला खड़ा तुलसी चौरा 

कभी आँखे बंद नहीं करता

आँगन में मुस्कुराता चहबच्चा

सारे आँसुओं को ज़ज्ब कर लेता है

 

कभी नहीं सूखता 

बस दाग़ धोता रहता है 

 

इन्हीं दृश्यों के बीच 

आठ साला बच्चा 

ढ़ूह की मिट्टीमस्तक पर लगाता है

और ग्यारह साल की लड़की

उसकी उंगली सख़्ती से पकड़ लेती है।

         ***

देह, बाज़ार और रोशनी - 4

धुँध नीम अंधेरे में 

झीमती आँखों के बीच

कुछ तारे टिमटिमा रहे हैं

बालू के ढेर पर

लोहा पिघलाने की तैयारी चल रही है

 

आठ साल के बच्चे ने अब

पत्थरों को तराशना सीख लिया है

उन्हीं मूर्तियों में ग्यारह साल की लड़की 

अब  रंग भर रही है

 

वे गोबर में जन्में कुकुरमुत्ते हैं

बिल्कुल सफ़ेद शफ़्फ़ाक 

चिंगारी की आग बनने की यात्रा है

 

सोच में जमी हुई बर्फ़

अब पिघलने लगीहै

चित्त की शीतल परतों पर हलचल है

भँवर में पतवार मिल चुकी है

चिंगारी विस्फोट के लिए तैयार है

 

पंक से निकले अरुण कमल ने

पूरे पोखर को एक उपवन बना दिया 

फूल खिलना अब दर्द नहीं रहा

 

परंतु अनगिनत वनपोखर हैं 

जिन्हें अरुण कमल का इंतज़ार है 

      ***

सम्पर्क: yatishkumar93@gmail.com

पेन्टिंग: सन्दली वर्मा   

सन्दली वर्मा


 

  

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

दिवाकर कुमार दिवाकर की कविताएँ

  दिवाकर कुमार दिवाकर सभी ज्वालामुखी फूटते नहीं हैं अपनी बड़ी वाली अंगुली से इशारा करते हुए एक बच्चे ने कहा- ( जो शायद अब गाइड बन गया था)   बाबूजी , वो पहाड़ देख रहे हैं न पहाड़ , वो पहाड़ नही है बस पहाड़ सा लगता है वो ज्वालामुखी है , ज्वालामुखी ज्वालामुखी तो समझते हैं न आप ? ज्वालामुखी , कि जिसके अंदर   बहुत गर्मी होती है एकदम मम्मी के चूल्हे की तरह   और इसके अंदर कुछ होता है लाल-लाल पिघलता हुआ कुछ पता है , ज्वालामुखी फूटता है तो क्या होता है ? राख! सब कुछ खत्म बच्चे ने फिर अंगुली से   इशारा करते हुए कहा- ' लेकिन वो वाला ज्वालामुखी नहीं फूटा उसमे अभी भी गर्माहट है और उसकी पिघलती हुई चीज़ ठंडी हो रही है , धीरे-धीरे '   अब बच्चे ने पैसे के लिए   अपना हाथ बढ़ाते हुए कहा- ' सभी नहीं फूटते हैं न कोई-कोई ज्वालामुखी ठंडा हो जाता है अंदर ही अंदर , धीरे-धीरे '   मैंने पैसे निकालने के लिए   अपनी अंगुलियाँ शर्ट की पॉकेट में डाला ' पॉकेट ' जो दिल के एकदम करीब थी मुझे एहसास हुआ कि- ...

आलम ख़ुर्शीद की ग़ज़लें

आलम ख़ुर्शीद               ग़ज़लें                 1 याद करते हो मुझे सूरज निकल जाने के बाद चाँद ने ये मुझ से पूछा रात ढल जाने के बाद मैं ज़मीं पर हूँ तो फिर क्यूँ देखता हूँ आसमाँ ये ख़्याल आया मुझे अक्सर फिसल जाने के बाद दोस्तों के साथ चलने में भी ख़तरे हैं हज़ार भूल जाता हूं हमेशा मैं संभल जाने के बाद अब ज़रा सा फ़ासला रख कर जलाता हूँ चराग़ तज्रबा   हाथ आया हाथ जल जाने के बाद एक ही मंज़िल पे जाते हैं यहाँ रस्ते तमाम भेद यह मुझ पर खुला रस्ता बदल जाने के बाद वहशते दिल को बियाबाँ से तअल्लुक   है अजीब कोई घर लौटा नहीं , घर से निकल जाने के बाद              ***               2 हम पंछी हैं जी बहलाने आया करते हैं अक्सर मेरे ख़्वाब मुझे समझाया करते हैं तुम क्यूँ उनकी याद में बैठे रोते रहते हो आने-जाने वाले , आते-जाते रहते है...

कमलेश की कहानी-- प्रेम अगिन में

  कमलेश            प्रेम अगिन में   टन-टन-टन। घंटी की आवाज से तंद्रा टूटी छोटन तिवारी की। बाप रे। शाम में मंदिर में आरती शुरू हो गई और उन्हें पता भी नहीं चला। तीन घंटे कैसे कट गये। अब तो दोनों जगह मार पड़ने की पूरी आशंका। गुरुजी पहले तो घर पर बतायेंगे कि छोटन तिवारी दोपहर के बाद मंदिर आये ही नहीं। मतलब घर पहुंचते ही बाबूजी का पहला सवाल- दोपहर के बाद मंदिर से कहां गायब हो गया ? इसके बाद जो भी हाथ में मिलेगा उससे जमकर थुराई। फिर कल जब वह मंदिर पहुंचेंगे तो गुरुजी कुटम्मस करेंगे। कोई बात नहीं। मार खायेंगे तो खायेंगे लेकिन आज का आनन्द हाथ से कैसे जाने देते। एक बजे वह यहां आये थे और शाम के चार बज गये। लेकिन लग यही रहा था कि वह थोड़ी ही देर पहले तो आये थे। वह तो मानो दूसरे ही लोक में थे। पंचायत भवन की खिड़की के उस पार का दृश्य देखने के लिए तो उन्होंने कितने दिन इंतजार किया। पूरे खरमास एक-एक दिन गिना। लगन आया तो लगा जैसे उनकी ही शादी होने वाली हो। इसे ऐसे ही कैसे छोड़ देते। पंचायत भवन में ही ठहरती है गांव आने वाली कोई भी बारात और इसी...