सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

कबीर श्रीवास्तव की कविताएँ


 

हमराही

कबीर श्रीवास्तव 

चुप हूं मैं

काली लंबी सड़कों पर

रगड़ खाती हुई

कभी पथरीली

कभी लोहे- सी

कभी आग - सी धधकती

सड़कों पर

घिसटती

किसी की हिम्मत संग

कुछ सख्त

कुछ कोमल

पांव की रक्षा को

अंत तक

संघर्ष करती हुई

मैं

दाब और गति से

महसूस की है

हताशा

निराशा

भय

जिजीविषा

ठोकर भरी राह में

कई बार टूटी

फिर जुड़ी मैं

पराए धागों से

आगे से

दो कीलें भी निकल आयी हैं

उफ्फ !

चुभने लगी हैं

पैरों में

फिर पत्थरों की

चोट खा

मन ही मन

मुस्कायी मैं

नन्हे सपनों संग

कुछ दिन पहले ही तो

अाई थी

हजारों मील

नाप चुकी हूं

उन सपनों को

गिरते

घिसटते देखा है

हजारों मील बाद भी

वो घिसट रहा है

और

मैं भी

साथ

चुपचाप

घिसट रही हूं

अंत की प्रतीक्षा में

    ***

 

ये किसकी लाशें हैं?

रेल की पटरियों पर

कुछ अगल - बगल में

क्षत- विक्षत

ये किसकी लाशें हैं?

 

अरे ! ये क्या

इनके शरीर की बोटियों के बीच

ये सूखी रोटियां

टुकड़े - टुकड़े होकर बिखर चुकी रोटियां

खुली हुई कुछ गठरियां

टूटी चप्पलें, चिथड़े कपड़े

बिखरे हुए कुछ सामान -औजार

 

ये फसल उगाने वाले थे

फसल काटने वाले थे

बोझा ढोने वाले थे

बोरा ढोने वाले थे

पुल बनाने वाले थे

भवन बनाने वाले थे

लोहा पिघलाने वाले थे

पहाड़ तोड़ने वाले थे

सड़क बनाने वाले थे

कपड़ा बनाने वाले थे

रंग चढ़ाने वाले थे

मिट्टी काटने वाले थे

ये कौन थे जिनको रौंद गई

पटरी पर रेलगाड़ी

ये यहां आए कैसे?

क्यों आए?

कहां से आए?

कहां जा रहे थे?

ये हैं कौन?

ये किसकी लाशें हैं

क्या कोई इन्हे पहचानता है?

कोई इनका पता जानता है ?

            ***

ठंडी लाश

आग देखी है क्या ?

ऊंची लपटों संग

धधकती आग

कभी खेतों में

कभी खानों में

कभी सड़कों पर

कभी जंगलों में

धरती को फाड़

लावा बन बहती आग

ठंडे चूल्हे भी

पैदा करते हैं

भूख की आग

मौत की आग

खुश हैं

आग पैदा करने वाले

और ठिठुर रहे लोग

आग में झुलस कर

यह आग है

फैलती है

हवाओं के ज़ोर से

भड़कती है

बिक गईं हैं

हवाएं भी

दिशा नहीं बदलती

हर बार

उसी बस्ती में

आग लगा जाती है

लोग जलते हैं

मरते हैं

और लाशें

ठंडी पड़ी रहती हैं

कोई ज़ोर लगाए अगर

ख़िलाफ़ इन हवाओं के

उसे लाश बना देते हैं

झुलसने वाले

खुद!

शायद उन्हें

जलना

रास आ रहा है

ठंडी लाशों की गर्मी

भा रही है

हवाएं अब निश्चिंत हैं

लाशें अब खुद ही

ठंडी पड़ जाती हैं

मौसम देखकर

      ***

सम्पर्क: कबीर श्रीवास्तव, चाणक्यपुरी, गाड़ीखाना, खगौल. मो. 7739438461     ई-मेल- kshrivastava333@gmail.com

पेन्टिंग: सन्दली वर्मा 

सन्दली वर्मा 


टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

ग़ज़ल   जो अहले-ख़्वाब थे वो एक पल न सो पाए  भटकते ही  रहे शब् भर  ये  नींद  के साए  एक मासूम-सा चेहरा था, खो गया शायद हमें भी ज़ीस्त ने कितने नक़ाब  पहनाये  वो सुन न पाया अगरचे सदायें हमने दीं   न पाया  देख हमें  गरचे सामने आये  गुज़रना था उसे सो एक पल ठहर न सका  वो वक़्त था के मुसाफ़िर न हम समझ पाए    हमें न पूछिए मतलब है ज़िंदगी का क्या  सुलझ चुकी है जो गुत्थी तो कौन उलझाए  हमारी ज़ात पे आवारगी थी यूं क़ाबिज़  कहीं पे एक भी लम्हा न हम ठहर पाए बस एक  बात का 'कुंदन'बड़ा मलाल रहा  के पास बैठे रहे और न हम क़रीब  आये   ****************************

मो० आरिफ की कहानी-- नंगानाच

  नंगानाच                      रैगिंग के बारे में बस उड़ते-पुड़ते सुना था। ये कि सीनियर बहुत खिंचाई करते हैं, कपड़े उतरवाकर दौड़ाते हैं, जूते पॉलिश करवाते है, दुकानों से बीड़ी-सिगरेट मँगवाते हैं और अगर जूनियर होने की औकात से बाहर गये तो मुर्गा बना देते हैं, फर्शी सलाम लगवाते हैं, नही तो दो-चार लगा भी देते हैं। बस। पहली पहली बार जब डी.जे. हॉस्टल पहुँचे तो ये सब तो था ही, अलबत्ता कुछ और भी चैंकाने वाले तजुर्बे हुए-मसलन, सीनियर अगर पीड़ा पहुँचाते हैं तो प्रेम भी करते हैं। किसी संजीदा सीनियर की छाया मिल जाय तो रैगिंग क्या, हॉस्टल की हर बुराई से बच सकते हैं। वगैरह-वगैरह......।      एक पुराने खिलाड़ी ने समझाया था कि रैगिंग से बोल्डनेस आती है , और बोल्डनेस से सब कुछ। रैग होकर आदमी स्मार्ट हो जाता है। डर और हिचक की सच्ची मार है रैगिंग। रैगिंग से रैगिंग करने वाले और कराने वाले दोनों का फायदा होता है। धीरे-धीरे ही सही , रैगिंग के साथ बोल्डनेस बढ़ती रहती है। असल में सीनियरों को यही चिंता खाये रहती है कि सामने वाला बोल्ड क्यों नहीं है। पुराने खिलाड़ी ने आगे समझाया था कि अगर गाली-गलौज , डाँट-डपट से बचना

विक्रांत की कविताएँ

  विक्रांत की कविताएँ  विक्रांत 1 गहरा घुप्प गहरा कुआं जिसके ठीक नीचे बहती है एक धंसती - उखड़ती नदी जिसपे जमी हुई है त्रिभुजाकार नीली जलकुंभियाँ उसके पठारनुमा सफ़ेद गोलपत्तों के ठीक नीचे पड़ी हैं , सैंकड़ों पुरातनपंथी मानव - अस्थियाँ मृत्तक कबीलों का इतिहास जिसमें कोई लगाना नहीं चाहता डुबकी छू आता हूँ , उसका पृष्ठ जहाँ तैरती रहती है निषिद्धपरछाइयाँ प्रतिबिम्ब चित्र चरित्र आवाज़ें मानवीय अभिशाप ईश्वरीय दंड जिसके स्पर्शमात्र से स्वप्नदोषग्रस्त आहत विक्षिप्त खंडित घृणित अपने आपसे ही कहा नहीं जा सकता सुना नहीं जा सकता भूलाता हूँ , सब बिनस्वीकारे सोचता हूँ रैदास सा कि गंगा साथ देगी चुटकी बजा बदलता हूँ , दृष्टांत।     *** 2 मेरे दोनों हाथ अब घोंघा - कछुआ हैं पर मेरा मन अब भी सांप हृदय अब भी ऑक्टोपस आँखें अब भी गिद्ध। मेरुदंड में तरलता लिए मुँह सील करवा किसी मौनी जैन की तरह मैं लेटा हुआ हूँ लंबी - लंबी नुकीली , रेतीली घास के बीच एक चबूतरे पे पांव के पास रख भावों से तितर - बितर